
साल भर राजनीति के खारे पानी में गोताखोरी के बाद 2017की लंबी परछाइयां समय की लहरों पर गहरे लंगर डालकर कुछ इस कदर जमी बैठी हैं कि 2018 की रोशन सुबह की खुशियों के आगे अंधेरों का पर्दा दहशतजदा करता सा महसूस होता हैं। साल के आखिरी दिनों में नए साल की अगुवाई के लिए बेचैन ख्वाहिशों के तरानों में खनकती खुशियों का आगाज बीते दिनों को याद करके ठिठक सा जाता है। आखिरकार क्यों बीता समय आने वाले समय को डरा रहा है ? इसका कोई सीधा-सपाट उत्तर किसी के पास नहीं है, लेकिन वक्त की सलाखों में कैद हादसे और उनकी गुर्राहट जहन में सन्नाटा खींच कर डरा रही है। इस सन्नाटे और डर को किस तरीके से आंका जाए या सुना जाए…?
जफर इकबाल का एक शेर है-‘चेहरे से झाड़ पिछले बरस की कुदूरतें, दीवार से पुराना कैलन्डर उतार दे…।‘ यहां ‘कुदूरतें’ का मतलब ‘मीननेस’ है। हिन्दी-डिक्शनरी में ‘मीननेस’ के मायने कमीनापन, संकीर्णता, दरिद्रता, नीचता या छिछोरापन है। 2017 के दरम्यान इन छिछोरे शब्दों का ‘कोलॉज’ देश की हकीकत और हरकतों को बयां करने के लिए पर्याप्त है। वक्त के कोलॉज में इन छिछोरे शब्दों की रंगत इतनी गहरी दर्ज है कि कैलेण्डर उतार फेंकने के बावजूद जहन की दीवारों पर ये कैलेण्डर आसानी से उतरने के लिए तैयार नहीं है। 2017 के दरम्यां भारत की कहानी में समाज और आदमी के सवालों के सियासी-अक्स का धुंधलापन 2018 की रोशनी के साथ उतरता महसूस हो रहा है। सियासत मे इलेक्शन की गुनगुन फिर लय पकड़ने लगी है और 2018 की देहरी पर भी आठ राज्यों के चुनाव आकर खड़े हो गए हैं। डर लगता है कि चुनाव वजीर को प्यादा बना देते हैं और उसका व्यवहार प्यादे से भी बदतर हो जाता है।
लोकगीतों में कवि सोचते रहते हैं कि ‘कल भी बादल बरसे थे, आज भी बादल बरसेंगे’…लेकिन, कवि का सोचा कभी हकीकत में तब्दील नही होता है। कुछ इसी प्रकार चुनाव में नेताओ का कहा, सुना और सोचा, कभी सच नही होता है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा था कि जीएसटी का कानून देश में आर्थिक क्रान्ति का शंखनाद है और नोटबंदी के बाद काले धन का समुन्दर पाताल लोग मे समा जाएगा। कहना मुश्किल है कि ये सपनें हकीकत से कब रूबरू होगे?
साल के आखिरी सप्ताह में मुस्लिम-समाज की नौ करोड़ महिलाओं को एड्रेस करने वाला ट्रिपल तलाक का ऐतिहासिक विधेयक कानून किताब का हिस्सा बन चुका है। यह तथ्य किसी से छिपा नही है कि ट्रिपल तलाक के ताले का कोड-नम्बर कॉमन सिविल कोड की जादुनगरी में ही हांसिल होने वाला है। सियासत की इस नई बिछात के नीचे छिपे ‘सांप-बिच्छु’ 2018 के आंगन में छुपा-छुपाई खेलने के लिए सरसराने लगे हैं। साम-दाम और दंड-भेद का जो सियासी सिलसिला 2018 में शुरू हुआ था, वो 2019 में भी जारी रहने वाला है।
गुरूवार को ट्रिपल तलाक के मसले पर भाजपा, कांग्रेस या अन्य नेताओं के भाषण की सकारात्मकता देखने और सुनने काबिल थी। नोटबंदी और जीएसटी पर भी प्रधानमंत्री की तकरीर सुनने के बाद देश की उम्मीदें आसमान छूने लगी थी। त्रासदी यह है कि लोकसभा में सरकार के भाषणों में उम्मीदो के जो तारे अंगड़ाई लेते हैं, वो संसद के बाहर आसमान में ढूंढे नही मिलते हैं। सरकार के भाषण जितने लुभावने और अच्छे होते हैं, उसका शासन उतना ही बेमुरव्वत और बेमतलब होता है। दोनों में जमीन-आसमान का फर्क है। भाषण और शासन में यही विरोधाभास गरीबी और मुफलिसी की हकीकत है। यह देश बोलता बहुत है और देश के लोग सुनते भी बहुत हैं। नेता एजेण्डा सेट करते हैं, टीवी में एंकर डमरू बजातें है, प्रवक्ता मुद्दो की लंगोट पहनकर ‘डब्ल्यू-डब्ल्यू-एफ’ करते हैं। लोग पूजा-भाव सब देखते हैं। कहने, सुनने और देखने के इस ‘इंद्रजाल-कॉमिक्स’ में नेता और एंकर ‘फेंटम’ हैं और जनता वह आदिवासी, जो ‘फेंटम’ को देवता का अवतार मानता है। इसीलिए ‘फेंटम’ कभी नही हारतें हैं और जनता कभी जीतती नही है। 2017 की तरह यह खेल 2018 में भी जारी रहेगा।
सम्प्रति – लेखक श्री उमेश त्रिवेदी भोपाल एनं इन्दौर से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के प्रधान संपादक है। यह आलेख सुबह सवेरे के आज 30 दिसम्बर के अंक में प्रकाशित हुआ है।वरिष्ठ पत्रकार श्री त्रिवेदी दैनिक नई दुनिया के समूह सम्पादक भी रह चुके है।
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