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मोदी सरकार ने अपने चुनावी बजट में ओबामा केयर की तर्ज पर नेशनल हेल्थ प्रोटेशन स्कीम (आयुष्मान भारत योजना) का ऐलान किया है। दुनिया के सबसे बड़े इस सरकारी वित्त पोषित स्वास्थ्य बीमा योजना को मीडिया ने ‘‘मोदी केयर’’ की संज्ञा दी है। इस योजना के तहत देश के 10 करोड़ गरीब परिवारों के 50 करोड़ लोगों को सालाना 5 लाख कैशलेस स्वास्थ्य बीमा दिया जायेगा। इस लोक-लुभावनी व महत्वाकांक्षी स्वास्थ्य बीमा योजना के ऐलान होने के बाद ही इसके क्रियान्वयन और सफलता के साथ-साथ इसके परिणामों पर भी चर्चा देश में होने लगी है। विपक्षी राजनीतिक पार्टियां जहां इसे महज चुनावी जुमला करार दे रहे हैं, वहीं नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार इन आलोचनाओं को खारिज करते हुए इसे पासा पलटने वाली योजना बता रहे हैं। गैर सरकारी क्षेत्र में काम करने वाले जनस्वास्थ्य सेवा से जुड़े विशेषज्ञों का मानना है कि ऐसे योजनाओं से देश में स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण को बढ़ावा मिलेगा जिसका खामियाजा आखिरकार मध्यम आयवर्गीय परिवारों को उठाना पड़ेगा। उनका मानना है कि ऐसे योजनाओं का लाभ मरीजों की तुलना में निजी अस्पतालों और बीमा कंपनियों को ही ज्यादा मिलेगा, जबकि जरूरत सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं को सुदृढ़ करने की है। इसलिए सरकार को स्वास्थ्य क्षेत्र में बजट आबंटन बढ़ाना चाहिए लेकिन सरकार खुद हाथ खींच रही है। केन्द्र सरकार की मंषा इस योजना को 15 अगस्त या 02 अक्टूबर से लागू करने की है लेकिन इस दिशा में भ्रम की स्थिति बनी हुई है।
दरअसल इस योजना के लागू होने में सबसे बड़ी बाधा धन की व्यवस्था है। केन्द्र सरकार ने चालू बजट में इस योजना के लिए कुल 2000 करोड़ रूपये का प्रावधान किया है जबकि इस योजना में केन्द्र सरकार की कुल लागत 10 हजार से 12 हजार करोड़ रूपये है, इन स्थितियों में यह योजना तय समय में कैसे लागू हो पायेगी ? अहम प्रश्न है। गौरतलब है कि इस योजना में 60 फीसदी हिस्सेदारी केन्द्र सरकार की तथा 40 फीसदी हिस्सेदारी राज्य सरकारों की होगी। केन्द्र सरकार के नुमाईंदों के अनुसार बजट के एक प्रतिशन अतिरिक्त उपकर (सेस) के द्वारा लगभग 11 हजार करोड़ रूपये जुटाया जा सकता है। लेकिन राज्य सरकारें अपने वित्तीय स्थिति के अनुसार ही इस योजना के लिए धन जुटा पायेंगे।
देश में 2008 से लागू राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना को कई राज्य सरकारों ने अपने आर्थिक स्थिति को दृष्टिगत रखते हुए लगभग पांच सालों बाद अपने राज्यों में लागू किया है। ऐसी स्थिति में ‘‘मोदी केयर’’ के गैर भाजपा शासित राज्यों में तय तिथियों में लागू किया जाना संशय की स्थिति में है। मोदी केयर में सरकार पर बीमा कंपनियों को देय प्रीमियम के मद में पड़ने वाले आर्थिक बोझ पर नजर डालें तो बीमा क्षेत्र के जानकारों के अनुसार 5 लाख स्वास्थ्य बीमा का प्रीमियम लगभग 10000 से 12000 रूपये प्रति परिवार निर्धारित होगा। इस लिहाज से इस नई स्किम को पूरे देश में लागू करने से लगभग 1. 20 लाख करोड़ के प्रीमियम सरकारों को निजी बीमा कंपनियों को भुगतान करना होगा जो केन्द्र और राज्य सरकारों के सम्मिलित बजट से अधिक है। इस भारी भरकम आर्थिक बोझ को दृष्टिगत रखते हुए जनस्वास्थ्य विशेषज्ञों का मानना है कि इतने पैसे से सरकारी अस्पतालों को दुरूस्त कर वहां दवाईयों का इंतजाम किया जा सकता है इसके साथ ही इससे लाखों लोगों को रोजगार भी प्राप्त होगा। हालांकि केन्द्र सरकार ने राज्य सरकारों के लिए यह व्यवस्था दी है कि वे प्रीमियम पर बीमा कंपनियों से मोल-भाव कर सकेंगे।
बहरहाल देश के बदहाल जनस्वास्थ्य के सुदृढ़ीकरण में दो आम मुद्दे बाधक है पहला इस अनुत्पादक क्षेत्र में सरकारी धन की कमी और दूसरा स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण। देश की सरकारों ने गरीब परिवारों को शिक्षा, स्वास्थ्य, भोजन और आवास उपलब्ध कराने के लिए मुफ्त या अत्यंत किफायती दरों पर अनेक योजनाएं और अधिकार कानून लागू कर दिए हैं लेकिन मध्यम आयवर्गीय परिवार इन योजनाओं से अछूता है। दरसअल महंगाई के इस दौर में गरीब परिवारों के साथ-साथ मध्यमवर्गीय परिवार को भी सेहत के लिए ऐसी योजनाओं की जरूरत है। धनाढ्य वर्ग अपने आर्थिक सामथ्र्य के बल पर और गरीब तबका सरकारी कल्याण योजनाओं के बलबूते इन खर्चों को उठाने में समर्थ हो जाता है लेकिन मध्यम वर्ग के लिए मोदी केयर आज इस दिशा में मौन है। सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं के बदहाल हालात के चलते देश की एक बड़ी आबादी बीमार होने पर निजी अस्पतालों के शरण में जाने के लिए बाध्य हैं। एक शोध के अनुसार अच्छी स्वास्थ्य सेवाओं की कमी के चलते 56 फीसदी शहरी और 49 फीसदी ग्रामीण भारत निजी अस्पतालों की शरण लेने के लिए बाध्य हैं। इन अस्पतालों के भारी-भरकम खर्च जुटाने के लिए इस तबके को अपनी संपत्ति गिरवी रखने या बेचने के लिए मजबूर होना पड़ता है। कई शोध यह बताते हैं कि इलाज में होने वाले खर्चों के चलते भारत में हर साल लगभग चार करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे चले जाते हैं जिसका प्रतिकूल असर देश के राजकोषीय अर्थव्यवस्था पर पड़ना लाजमी है। केन्द्र सरकार की यह दलील है कि मोदी केयर सेहत के क्षेत्र में उपरोक्त चुनौतियों को दूर करने में पूरी तरह कारगर होगी। लेकिन इस योजना के दूसरे पहलू पर नजर डालें तो यह प्रतीत होता है कि स्वास्थ्य बीमा योजनाओं से गरीब जनता को भले ही निजी अस्पतालों में मुफ्त इलाज सुलभ होगा लेकिन ऐसे योजनाओं से देश की सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की हालात सुधरने की बजाय और दयनीय होती जायेगी। हालांकि विकसित देशों सहित कई विकासशील देशों में स्वास्थ्य सेवाएं पब्लिक प्राईवेट पार्टनरशिप (पी.पी.पी.) मोड पर संचालित हो रहे हैं तथा इन देशों में भी बीमा व्यवस्था है। लेकिन भारत में ये योजनाएं भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं है, इन स्थितियों में ‘‘मोदी केयर’’ कितना पारदर्शी और बेदाग रहेगा यह काल के गाल में है।
विचारणीय प्रश्न यह है कि देश के सरकारी सुपर स्पेशिलिटी अस्पताल जैसे ‘‘एम्स’’ और मेडिकल कालेजों के अस्पताल और स्वास्थ्य केन्द्र जनस्वास्थ्य के उम्मीदों में क्यों खरा नहीं उतर पा रहे हैं ? आखिरकार सरकार को संचारी और गैरसंचारी रोगों के उपचार के लिए निजी अस्पतालों पर क्यों निर्भर होना पड़ रहा है? निजी क्षेत्र भी सरकार के इसी मजबूरी का लाभ उठा रहे हैं तथा स्वास्थ्य क्षेत्र में भारी मुनाफे को देखते हुए कई कार्पोरेट घराने, विदेशी निवेशक तथा बीमा कंपनियां इस क्षेत्र में लगातार पूंजी निवेश बढ़ा रहे हैं। अजीब विरोधाभास है कि आम आदमी जहां बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं की कमी से जूझ रहा है वहीं यह देश बड़ी तेजी से ‘‘मेडिकल टूरिजम कन्ट्री’’ के रूप में उभर रहा है। विदेशों के अमीर मरीज भारत के पांच सितारा अस्पतालों में अपना उपचार करा रहे हैं जबकि आम भारतीयों के लिए यह अस्पताल पहुंच से बाहर है।भारत का वर्तमान कार्पोरेट हेल्थ केयर बाजार 6.5 लाख करोड़ का है, एक रिपोर्ट के अनुसार वित्तीय वर्ष 2016 में निजी स्वास्थ्य क्षेत्रों में करीब 4200 करोड़ रूपये का निवेश था जो साल 2020 तक 17 लाख करोड़ रूपये पहुंचने का अनुमान है। आर्थिक उदारीकरण के इस दौर में सरकार भी जनस्वास्थ्य क्षेत्र को बड़ी तेजी से निजी क्षेत्रों को सौंपते जा रही है। परिणामस्वरूप यह क्षेत्र ‘‘सेवा अधारित’’ न होकर ‘‘लाभ आधारित’’ उद्योग के रूप में अपनी पहचान बनाने लगा है जिसका दुष्परिणाम आम आदमी ही भोग रहा है।यह स्थिति भारत जैसे विकासशील व कमजोर अर्थव्यवस्था वाले देश के लिए कतई उचित नहीं है। बहरहाल आरोग्य से ही अंत्योदय संभव है इसलिए सरकार को समाज के हर तबके की सेहत के लिए फिक्रमंद होना पड़ेगा तभी आयुष्मान भारत का सपना साकार हो सकेगा।
सम्प्रति- लेखक डा.संजय शुक्ला राजकीय आयुर्वेदिक कालेज रायपुर में प्राध्यापक है,और समसामायिक विषयों पर निरन्तर लेखन करते रहते है।आपके आलेख प्रतिष्ठित समाचार माध्यमों में स्थान पाते है।