
30 मई 1826। इस दिन कलकत्ता से हिन्दी का पहला अख़बार ” उदन्त मार्तण्ड ” छपा था। यह साप्ताहिक था। कानपुर के पंडित युगल किशोर शुक्ल संपादक थे। अख़बार को कम उम्र मिली। 11 दिसम्बर 1827 को आखिरी अंक छपा। बन्द हो चुके इस अखबार के 1976 में डेढ़ सौ साल पूरे हुए थे। उसी साल पांच और छः दिसंबर को लखनऊ के रवींद्रालय में इस अख़बार की याद के बहाने देश भर के पत्रकारों का एक बड़ा कार्यक्रम हुआ था। आयोजन के कर्ताधर्ता तत्कालीन मुख्यमंत्री के उपसचिव और सुप्रसिद्ध साहित्यकार स्व. ठाकुर प्रसाद सिंह थे। मुझे भी इस कार्यक्रम में शामिल होने का अवसर मिला था। लिखने-बोलने में पाबंदियों वाले ये इमरजेंसी के दिन थे। आयोजन भी इससे अछूता नही था। भाषणों में उसका साफ़ असर भी था। पर इस आयोजन ने हिंदी के पहले अखबार ” उदन्त मार्तण्ड ” को पत्रकारों की स्मृतियों में जगह दे दी। याद में हर साल 30 मई को हिंदी पत्रकारिता दिवस की परम्परा तभी से शुरु हुई। हिंदी के पहले अख़बार के नाम पर शुरु हुआ पत्रकारिता दिवस अब मीडिया के हर हिस्से को अपने से जोड़ता है। जुड़े लोगों को भीतर झांकने का मौका देता है। पाठकों-दर्शकों-श्रोताओं को उनके काम पर सवाल और पड़ताल का मंच भी देता है
गुजरे सालों में पत्रकारिता की दुनिया पूरी तौर पर बदल चुकी है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने प्रिंट को पीछे किया। तो डिजिटल मीडिया और पेशेवर पत्रकारिता से इतर सोशल मीडिया के मंच ने सूचनाओं – समाचारों-विचारों की एक अलग दुनिया खड़ी कर दी है। इसमें अभिव्यक्ति के लिए स्थान और अवसर की समस्या नहीं है। गति और व्याप्ति बेजोड़ है। संपादन की कैंची और अंकुश-अनुशासन की तलवार भी नहीं है। हालांकि तमाम मौकों पर अभिव्यक्ति का यह सशक्त माध्यम खूब अराजक नजर आता है। पर एक विशाल वर्ग उससे सक्रियता के जुड़ा हुआ है। उनकी तादाद और इस माध्यम की व्यापक पहुँच एक बड़ी ताकत बन चुकी है। कभी प्रेस/पत्रकारिता के नाम से पहचानी जाने वाली विधा अब मीडिया के नाम से जानी जाती है। नए अवतार में प्राथमिकताओं से लेकर प्रस्तुति तक में इसमें भारी बदलाव हुआ है । इन सबके बीच पाठक-दर्शक-श्रोता सबकी मीडिया को लेकर सोच बदली है।
देश के संविधान में प्रेस की स्वतंत्रता का अलग से उल्लेख नही है। अनुच्छेद 19 (1)(ए) के अधीन भाषण और अभिव्यक्ति के आम नागरिक के अधिकार में ही प्रेस की स्वतंत्रता भी शामिल है। हालांकि यह अधिकार असीमित नही है। उप अनुच्छेद (2) शर्तों के अधीन इसे सीमित करता है। आजाद भारत में आपातकाल में नागरिक अधिकारों के निलंबन के वक्त प्रेस को भी सेंसरशिप का सामना करना पड़ा था। पर इस और इस जैसे कुछ अवसरों को छोड़ कर भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बाधित होती रही है। कहीं सत्ता प्रतिष्ठान का प्रत्यक्ष या परोक्ष दबाव तो अनेक मामलों में समाचार संस्थानों के अपने स्वार्थ उन्हें दंडवत कराते रहते हैं। इस सिलसिले में जनता पार्टी की सरकार के सूचना प्रसारण मंत्री रहे लाल कृष्ण आडवाणी का एक कथन बहुत मशहूर हुआ था। उन्होंने इमरजेंसी के दौर में अखबारों-पत्रकारों की भूमिका के विषय में कहा था , ” जब उनसे झुकने को कहा गया तो वे रेंगने लगे।” फिलहाल मीडिया के एक बड़े हिस्से को झुकने के लिए कहने की भी जरूरत नहीं रह गई है।
ऐसे हालात क्यों पैदा हुए ? आजादी के पहले पैदा हुई पीढ़ी शाम में ढल रही है। बाद की पीढ़ियों ने जो सुना या पढ़-देख के जाना वह उनकी स्मृतियों में है। आजादी की लड़ाई की अगुवाई करने वालों का त्याग-समर्पण उन्हें रोमांचित करता है। ये पीढ़ियाँ उन तबकों के वारिसों में उन्हीं खूबियों और समर्पण की तलाश करती है। बेशक उस दौर में अखबारों की भूमिका भी बेहद साहसिक और शानदार थी। लेकिन आज वह उम्मीद और कसौटी ज्यादती मानी जायेगी। बदलाव होना ही था। मिशन की पत्रकारिता पहले प्रोफेशन हुई। फ़िर तकनीक के विकास और पूंजी की बड़ी जरुरत के बीच बाजार में टिकना और मुनाफ़ा कमाना उसकी पहली जरुरत बन गई। खबरें , ‘ प्रोड्क्ट ‘ के रुप में परोसी जाने लगीं । ग्राहकों को प्रोड्क्ट भाये , इसकी तय शर्तें -जरूरतें होती हैं। यहीं से घालमेल शुरु होता हैं। पत्रकारिता की ताकत उसकी साख पर टिकी होती है। ये साख पाठक- दर्शक के भरोसे से मिलती है। भरोसे का सीधा सम्बन्ध खबरों के सच और पेश करने वालों की नीयत से होता है। प्रतिस्पर्धा में खबरें जब प्रोड्क्ट के तौर पर बेची जाती हैं और मकसद मुनाफ़ा कमाना होता है , तो सच से समझौता शुरु होता है। नीयत झूठ आगे करने में भी पीछे नही रहती। इस मुनाफ़े और नीयत की शक़्ल भी अलग-अलग मामलों में बदलती रहती है। सिर्फ़ पैसे की शक़्ल में उसे हासिल करना भी जरुरी नहीं। मीडिया में पूंजी लगाने वालों के हित संरक्षण, सत्ता-शासन की तरफ़दारी से लेकर राजनीतिक चाहतें इस एजेंडे में मुमकिन हैं। इस एजेंडे का लगातार विस्तार हुआ है। साथ ही मीडिया की निष्पक्षता और नीयत पर सवाल उठने शुरु हुए हैं। सबकी खबरें देने वालों की खबर लेने का सिलसिला खास तौर पर सोशल मीडिया पर तेज हुआ है। ऐसा नहीं है कि सवाल सिर्फ पाठकों-दर्शकों के बीच से उठ रहे हैं। उनसे भी ज्यादा चिंता-बेचैनी पत्रकारों के बीच है। विधायिका-कार्यपालिका और अन्य संस्थानों से घटते विश्वास के बीच मीडिया से लोगोंकी अपेक्षाएं बढ़ी हैं। हर अनसुनी आवाज उनसे स्वर पाने की चाहत रखती है। मीडिया से जुड़ी ये उम्मीदें उसके लिए काम करने वाले बहुत से लोगों में अपनी ताकत को लेकर गलतफहमियां भी पैदा कर देती है। इस तथाकथित ताकत और ग्लैमर ने प्रेस का बिल्ला लगाकर पत्रकारिता के अलावा बहुत कुछ करने वालों की एक बड़ी जमात खड़ी कर दी है।
तटस्थता-निष्पक्षता में पत्रकारिता के प्राण बसते हैं। क्या ऐसा मुमकिन हो पा रहा है ? इसका फैसला पाठक-दर्शक करते है। पहले अखबारों में “आपकी चिट्ठी ” जैसे स्तंभ छपी सामग्री पाठकों की राय उजागर करते थे। वहां कौन सी चिट्ठी छपनी है , यह फैसला उन्ही लोगों को करना रहता था, जिनके काम का ये चिट्ठियां मूल्यांकन करती थीं। सोशल मीडिया ने इन बंदिशों को खत्म कर दिया है। हथियार अब पाठक- दर्शक के हाथ में है। वह खुलकर पेड न्यूज़ से लेकर अखबारों-चैनलों के बिकने और इस या उस दल का भोंपू बनने के आरोप चस्पा कर रहा है। वह पूरी तौर पर सही हो ये जरुरी नही। वह पूरी तौर पर गलत हो ये भी जरूरी नही। पर यकीनन इतनी सच्चाई जरुर है कि भरोसे की दीवार में बड़ी दरारें आ चुकी हैं। एक दूसरा पहलू भी है। राजनीतिक – वैचारिक सोच का विभाजन पहले भी था। लेखन में उसके संकेत मिल भी जाते थे। लेकिन किसी ओर पलड़ा झुकाते लेखक को पाठक की नजर में खुद को गिरने से बचाने की फिक्र रहती थी। बदली स्थितियों में स्क्रीन से अखबारी पन्नों तक अधिकतर स्थापित बोलने-लिखने वालों की दलों या विचारधारा के जरिये पहचान है। यह पहचान उनकी पूँजी है। विपरीत सोच के लोग उन्हें भले गालियाँ दें लेकिन अपनों के वे चहेते हैं। उधर यह विभाजन पाठकों-दर्शकों के बीच भी गहराया है वैचारिक असहमति , असहिष्णुता की हद तक पहुँचती नजर आ रही है। एक बड़ा वर्ग उन लोगों का तैयार हुआ है , जिन्हें खबरों – विचारों का अनुकूल एंगिल ही सच के तौर पर स्वीकार्य है।
इस संकट के बीच वे लोग पिस रहे हैं जो कुछ सपने लेकर पत्रकारिता से जुड़े। वे केवल आर्थिक मोर्चे पर ही नहीं बल्कि लिखने-पढ़ने और प्रस्तुति की आजादी पर कसी नकेलों से भी निराश हैं। मालिक नीति तय करते हैं। न्यूज़ से व्यूज़ तक उनकी ही चलती है। संपादक नाम की संस्था समाप्त हो चुकी है और समाचार माध्यम उन मैनेजरों के हवाले हैं, जिनका पहला और आखिरी लक्ष्य मुनाफ़ा है। कलम पर पहरा है। चैनलों की बाढ़ है। स्क्रीन पर चेहरे हैं लेकिन फिल्मी तर्ज पर उनकी भूमिका-संवाद – स्वर और उनका उतार-चढ़ाव सब पार्श्व से नियंत्रित है। त्वरित सजीव प्रस्तुति-प्रसारण की सुविधा और कैमरे के आकर्षण के चलते वे मीडिया के प्रतिनिधि चेहरे के रुप में उभरे हैं। उनकी शैली और प्राथमिकताएं अलग हैं। नाटकीयता-सनसनी-विवाद और बहस में शोर-शराबा ये उनकी जरूरतों में शामिल है। वहां ठहरने, तथ्यों की पुष्टि और गंभीर विमर्श की गुंजाइश नही है। प्रिंट की मजबूरी है कि उसे इनकी होड़ में अपनी जमीन भी बचानी है और उनसे अलग भी दिखना है। कोरोना और लम्बे लॉकडाउन से पैदा अर्थसंकट ने विशेषकर प्रिंट मीडिया की परेशानियां और बढ़ाई है। अखबार लगातार दुबले हो रहे हैं। उनसे जुड़े लोगों की नौकरियां जा रही हैं। नई पीढ़ी काफी हद तक अखबारों से विमुख हो चुकी है। प्रसार – विज्ञापन दोनो सिकुड़े हैं। वजूद कैसे बचे ? हर सरकार के दौर में मीडिया के बड़े हिस्से के सत्ता की ओर झुकाव की शिकायतें रही हैं। जो साथ नहीं हैं , वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर आघात, असहमति के स्वर दबाने और उनके उत्पीड़न की शिकायतें करते हैं। मोदी सरकार से भी ऐसी ही शिकायतें जोर-शोर से हैं। गोदी मीडिया,भक्तों की जमात जैसे तमगों से अनेक सत्ता समर्थक चैनलों-अखबारों की शिनाख़्त की जाती है। दूसरी तरफ सत्ता विरोधी पहचान बनाने वाले मीडिया संस्थानों और यू ट्यूबर की नीयत और फंडिंग पर सवाल हैं। इस खींचतान में जिन पाठकों -दर्शकों को सच की तलाश है , वे किसे तलाशें ? किस पर भरोसा करें ? यह भरोसे के संकट का दौर है और यह संकट गहराता ही जा रहा है। ये भरोसा जन और तंत्र के बीच पुल का काम करता है। जन को स्वर और संघर्ष की प्राणवायु भी देता है। वह माध्यम बचा रहे। उस पर भरोसा भी बना रहे। कैसे? फ़िलहाल ये सवाल बड़ी चुनौती बना हुआ है।
सम्प्रति- लेखक श्री राजखन्ना वरिष्ठ पत्रकार है।श्री खन्ना के आलेख देश के प्रतिष्ठित समाचार पत्रों,पत्रिकाओं में निरन्तर छपते रहते है।श्री खन्ना इतिहास की अहम घटनाओं पर काफी समय से लगातार लिख रहे है।
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