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छत्तीसगढ़ में किसके हाथ में कमान – दिवाकर मुक्तिबोध

दिवाकर मुक्तिबोध

छत्तीसगढ़ में चुनाव के पूर्व की तस्वीर बहुत साफ़ सुथरी व स्वस्थ नज़र नहीं आ रही है। राज्य विधानसभा चुनाव के लिए तारीख़ों का एलान हो चुका है। 12 एवं 20 नवम्बर को 90 सीटों के लिए मतदान होगा। चुनाव कार्यक्रम की घोषणा के साथ ही आदर्श आचार संहिता लागू हो गई है। यानी अब मतदाताओं को प्रभावित करने वाली सरकारी घोषणाएँ नहीं होंगी। लेकिन राजनीतिक माहौल में जिस तरह गरमाहट व तनाव है, उसे देखते हुए सवाल है कि क्या राज्य में शांतिपूर्ण चुनाव की परम्परा पर आघात पहुँचने वाला है ? नक्सली समस्या से जूझ रहे छत्तीसगढ़ ने बीते वर्षों मे ख़ूब हिंसा देखी है, ख़ूब ख़ून बहा है पर आमतौर पर चुनाव शांति से निबटे हैं। किन्तु इस बार परिस्थितियां कुछ अलग दिखाई दे रही है। कम से कम वह अभी बेहतर तो नहीं ही है। नक्सलियों ने अलग फ़रमान जारी कर दिया है। यह समस्या ख़ैर अपनी जगह तो है ही, सत्तारूढ़ भाजपा व प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस के बीच जो तनाव व राजनीतिक विद्वेष घिरता हुआ नज़र आ रहा है वह चुनाव के दौरान हिंसक झड़प की आशंकाओं को घनीभूत करता है। 2003 में राज्य के पहले चुनाव के ठीक पूर्व ऐसा ही नज़ारा पेश हुआ था जब रायपुर में एनसीपी के नेता रामअवतार जग्गी को गोली मार दी गई थी । हत्या की इस घटना से भारी तनाव फैला लेकिन धीरे-धीरे वह पिघला व मतदान की प्रक्रिया शांति से पूर्ण हो गई।

दरअसल आगामी नवंबर में होने वाले चुनाव, पूर्व के तीन चुनाव के मुक़ाबले काफ़ी भिन्न होंगे। राष्ट्रीय भाजपा का अंतिम लक्ष्य हर सूरत में 2019 का लोकसभा चुनाव जीतना व नरेन्द्र मोदी को दुबारा प्रधानमन्त्री बनाना है और इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए उसे अपने शासित राज्यों से संवैधानिक ताकत चाहिए, सत्ता बरकरार रहनी चाहिए। इसलिए उसका पूरा जोर छत्तीसगढ़ सहित पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों पर है जहाँ मिजोरम व तेलंगाना को छोड़ तीन में उसकी सरकारें हैं। छत्तीसगढ़ में डा.रमन सिंह तीन लगातार कार्यकाल के मुख्यमंत्री हैं तथा पार्टी हाईकमान ने उन्हें 90 में से 65 से अधिक सीटें जीतने का लक्ष्य दे रखा है। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए सरकार व प्रदेश पार्टी को खुली छूट मिली हुई है। जाहिर है, मुख्यमंत्री के सामने बेहद कठिन चुनौती है।इस चुनौती का सामना वे किस तरह कर पाएँगे, यह कहना कठिन है पर यह जरूर है कि शासक के रूप में वे इस बार बदले-बदले से नज़र आ रहें हैं।अपने सरल, सहज व शांत स्वभाव के लिए ख्यात रमन सिंह कठोर व आक्रामक हैं तथा अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को ईंट का जवाब पत्थर से दे रहे हैं। कांग्रेसियों पर बेरहम लाठी चार्ज की घटनाएँ उनके बदले हुए मिजाज की साक्षी हैं।उनकी समूल चिंता किसी भी तरीके से जनता का विश्वास पुन: जीतना है जिसके खोने का डर बेहद सता रहा है।

लेकिन क्या यह सहज है? क्या लाखों की संख्या में मोबाइल या टिफ़िन बाँटने का इतना अधिक असर होगा कि शहरी व ग्रामीण मतदाता बहकावे में आ जाएँगे? जनता यदि ठान लें कि सरकार पलटनी है, तो कोई भी प्रलोभन, कोई भी उपाय, चाहे वह वर्षों से मिल रहा दो रूपये किलो चावल हो अथवा अब आदिवासियों को पाँच रूपए किलो के भाव से चने का लालीपाप ही क्यों न हो, कुछ भी काम नहीं आता। यह ‘कुछ भी काम न आने वाली स्थिति’ तेजी से बनती दिख रही है। दरअसल रमन सरकार को अपने तीसरे कार्यकाल की आधी अवधि बीतने के बाद विभिन्न मोर्चों पर भीषण चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। ये चुनौतियां गत दो कार्यकाल में इतनी उग्र नहीं थी। हालाँकि सवाल वहीं थे जो आज है। इनमें प्रमुख हैं आदिवासियों, किसानों, शासकीय कर्मचारियों, शिक्षकों व श्रमिकों के जीने की समस्याएँ, उनके सवाल व निरंतर चल रहा उनका आंदोलन। लगभग 36 संगठनों ने सरकार की नाक में दम कर रखा है। सरकार ने इनसे निपटने के लिए सख़्ती भी दिखाई व बहुतेरी माँगे मान भी ली लेकिन ढुलमुल सरकारी रवैये के चलते आंदोलनकारी संतुष्ट नहीं हुए। सरकार के खिलाफ उनका आक्रोश यथावत है। विशेषकर किसान बहुत नाराज है। सत्ता के विरूद्ध असंतोष का ऐसा ज्वार इसके पूर्व के दो कार्यकाल में इस कदर नहीं उमड़ा था जो इस दफे नजर आ रहा है। भाजपा के विकास के दावे पर यह बहुत भारी है। आगामी चुनाव में यह बड़ा कारक है जो शहरी व ग्रामीण क्षेत्रों मे समान रूप प्रभावशील है। और इसकी मूल वजह है प्रशासनिक ढिलाई, अपारदर्शिता, योजनागत कार्यों के निष्पादन में लापरवाही, भयानक भ्रष्टाचार तथा अधिकांश निर्वाचित जन प्रतिनिधियों जिनमें मन्त्री भी शामिल हैं, की अयोग्यता। कुछ दर्जन विधायकों के प्रति नाराजगी की बात सरकार व पार्टी खुद भी स्वीकार करती रही है। यह भी एक बड़ा कारण है। चुनाव मे ऐसे दागी चेहरे बदल भी दिएं जाएँ तो इससे मतदाताओं का मन बदल जाएगा, कहना कठिन है ।

रमन सरकार के मौजूदा कार्यकाल में एक और महत्वपूर्ण तथ्य सामने आया है, राजनीतिक असौजन्यता, मलिनता तथा अहंकार में डूबे हुए सत्ताधीशों की निरंकुशता। पुलिस व स्थानीय प्रशासन के दमनकारी रवैये की अनेक घटनाएँ हैं। आंदोलनकारियों को बल पूर्वक खदेड़ने की घटनाओं को जाने भी दें तो हाल ही में बिलासपुर में घटित घटना लोकतंत्र व राजनीति में सह-अस्तित्व के सिद्धांत पर भारी प्रहार है। प्रदेश के मन्त्री अमर अग्रवाल के एक सार्वजनिक वक्तव्य से क्रुद्ध हुए कांग्रेसी कार्यकर्ताओं ने उनके बंगले के परिसर ने कचरा फेंक दिया।ऐसा हरगिज नहीं किया जाना चाहिए था लेकिन प्रति-प्रतिक्रिया ऐसी भी नहीं होनी चाहिए थी कि पुलिस हिंसा पर उतर आए। पुलिस कांग्रेस भवन में घुस गई और उसने वहाँ मौजूद नेताओं व कार्यकर्ताओं की बेदम पिटाई की व उन्हें गिरफ़्तार किया। देश की सबसे पुरानी राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टी के दफ्तर में पुलिस हिंसा की यह पहली घटना है। यह सहज संदेह है कि विपक्ष के साथ सख्ती बरतने व उससे हर तरीके से निपटने पुलिस को छूट मिली हुई है। विरोध को बर्दाश्त न करने की यह प्रवृत्ति रमन सरकार के पिछले दो कार्यकाल में कतई नहीं थी। सरकार का यह नया चेहरा है जो कुरूप है। प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी या भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के छत्तीसगढ़ प्रवास के दौरान उन्हें काले झंडे दिखाने की कोशिश करने वाले राजनीतिक पार्टी के नेताओं व कार्यकर्ताओं को तत्काल गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया जाता है। आम आदमी पार्टी के प्रदेश प्रमुख संकेत ठाकुर कई दिनों तक रायपुर जेल में पड़े रहे। और तो और अब मुख्यमन्त्री के खिलाफ प्रदर्शन को भी बर्दाश्त नहीं किया जाता। रमन सिंह के 24 सितंबर को खरसिया में रोड शो के पूर्व प्रदेश युवक कांग्रेस के अध्यक्ष व विधायक उमेश पटेल व उनका माँ को गिरफ्तार कर लिया गया। वे विरोध प्रदर्शन करना चाह रहे थे। उमेश पटेल झीरम नक्सली हिंसा में मारे गये पूर्व छत्तीसगढ़ कांग्रेस अध्यक्ष नंदकुमार पटेल के बेटे हैं। इस तरह की ऐसी अनेक राजनीतिक घटनाएँ हैं जो स्पष्ट संकेत देती है कि सरकार निरंकुशता की ओर तेजी से बढ़ रही है तथा शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन के लोकतांत्रिक अधिकार को कुचलना चाहती है।

यकीनन ऐसी घटनाएँ उस पार्टी व सरकार के लिए खतरे का संकेत है जो कथित विशाल जन समर्थन के आधार पर अपने लिए सत्ता के चौथे कार्यकाल का सपना देख रही है तथा जिसने 65 प्लस का असंभव सा लक्ष्य तय कर रखा है। यह लक्ष्य कैसे हासिल होगा? क्या यह प्रदेश पार्टी नेतृत्व के लिए चेतावनी है? या क्या ये केवल कार्यकर्ताओं, नेताओं को गतिशील करने की गरज से है? या उनका भयादोहन करके उनके राजनीतिक भविष्य पर सवालिया निशान लगाने के मकसद से है ताकि वे जी-जान से पार्टी को सरकार बनाने लायक बहुमत के नजदीक पहुँचा सके? क्योंकि यह तो तय प्रतीत होता है कि त्रिकोणीय संघर्ष में कांग्रेस के साथ-साथ अजीत जोगी की छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस व बहुजन समाज पार्टी की मिलीजुली ताकत उसे 65 के आँकड़े को छूने नहीं देगी। यानी शायद यह कहना ज़्यादा तर्क संगत होगा कि छत्तीसगढ़ में लगातार चौथा चुनाव जीतने के लिए केंद्रीय नेतृत्व अपने ही नेताओं व कार्यकर्ताओं पर मनोवैज्ञानिक दबाव बना रहा है।

बहरहाल टारगेट 65 प्लस के लिए नरेन्द्र मोदी व अमित शाह की जोड़ी राज्य का ताबड़तोड़ दौरा कर रही है। विकास योजनाओं की घोषणाओं, शिलान्यासों, मुफ्त वस्तुओं के वितरण आचार संहिता लागू होने के साथ ही थम गया। लगभग हर महीने अमित शाह छत्तीसगढ़ आ रहे हैं। प्रधानमंत्री के भी काफी दौरे हो चुके हैं। संगठन के आला पदाधिकारियों व वरिष्ठ केन्द्रीय मंत्रियों के दौरों को देखते हुए यह सहज अनुभव होता है कि राज्य में चुनाव की कमान प्रदेश अध्यक्ष व मुख्यमंत्री के हाथ से निकल गई है तथा मोर्चा अमित शाह एंड कम्पनी ने सम्हाल रखा है। जाहिर है, चुनाव कार्यक्रम की घोषणा के साथ प्रचार अभियान तेज होगा। दर्जनों सभाएँ होंगी। और स्टार प्रचारक नरेन्द्र मोदी व अमित शाह होंगे। पर अब यह देखना दिलचस्प रहेगा कि चुनाव प्रचार में, पोस्टरों में प्रमुख चेहरा मोदी-अमित शाह का रहेगा या अटल बिहारी वाजपेयी का, जिनकी मौत को राजनीतिक रूप से भुनाने की पूरी कोशिश राज्य सरकार व प्रदेश पार्टी ने की है।

 

सम्प्रति-लेखक श्री दिवाकर मुक्तिबोध छत्तीसगढ़ के प्रतिष्ठित पत्रकार है।कई प्रमुख समाचार पत्रो के सम्पादक रह चुके है।