
महासमुन्द, 25 नवम्बर।भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान वर्ष 1857 में छत्तीसगढ़–ओड़िशा सीमांचल के वीर योद्धा लालसिंह मांझी को इतिहास ने लंबे समय तक लगभग भुला दिया था, लेकिन अब उनके अदम्य साहस और संघर्ष के नए तथ्य सामने आने लगे हैं।इसके साथ ही इतिहासकार भी उनके योगदान पर गंभीरता से शोध कर रहे हैं।
शहीद लालसिंह मांझी का गृहग्राम तानवट वर्तमान में ओड़िशा के नुआपाड़ा जिले में स्थित है। वर्ष 1936 से पहले यह पूरा क्षेत्र छत्तीसगढ़ का हिस्सा था, जिसे अंग्रेजी शासन ने प्रशासनिक पुनर्गठन के दौरान ओड़िशा में शामिल कर दिया था।
तानवट में शहीद के स्मरण में विचार–गोष्ठी
अमर सेनानी लालसिंह मांझी के भूले-बिसरे योगदान को याद करने और नई पीढ़ी तक पहुँचाने के उद्देश्य से 24 नवम्बर को ग्राम तानवट में एक महत्वपूर्ण विचार–गोष्ठी का आयोजन किया गया। कार्यक्रम में ओड़िशा के वरिष्ठ इतिहासकार तथा खरियार राजपरिवार के सदस्य डॉ. फणीन्द्र देव मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित रहे, वहीं महासमुन्द के पूर्व सांसद चुन्नीलाल साहू विशेष अतिथि के रूप में शामिल हुए। यह आयोजन काना-भैरा मंदिर परिसर में संपन्न हुआ।
पूर्व सांसद चुन्नीलाल साहू ने कहा कि लालसिंह मांझी छत्तीसगढ़ और ओड़िशा की साझा वीर परंपरा के गौरवशाली प्रतीक हैं। उनकी शहादत को याद रखना और आने वाली पीढ़ियों तक पहुँचाना हम सबका दायित्व है। तानवट ग्रामवासियों द्वारा इस विषय पर चर्चा की पहल सराहनीय है।
लालसिंह मांझी: 1857 के विद्रोह के निर्भीक संरक्षक
विचार–गोष्ठी में इतिहासकार डॉ. देव ने 1857 के विद्रोह के दौरान लालसिंह मांझी की भूमिका का विस्तृत उल्लेख किया। उन्होंने बताया कि जब पूरे भारत में क्रांति को ब्रिटिश शासन ने बेरहमी से दबा दिया था और छत्तीसगढ़ के वीर योद्धा नारायण सिंह को सार्वजनिक रूप से फाँसी दी जा चुकी थी, तब उनके पुत्र गोविंद सिंह ने अपने साथियों हटेसिंह, कुंजलसिंह, बैरीसिंह तथा वीर सुरेन्द्र साय के साथ संरक्षण की मांग की।
खरियार के राजा कृष्णचंद्र देव ने उनकी रक्षा की जिम्मेदारी तानवट के जमींदार लालसिंह मांझी को सौंपी। लालसिंह ने इसे राष्ट्रधर्म मानते हुए इन क्रांतिकारियों को अपने घर में शरण दी और अंग्रेजों का प्रतिरोध प्रारंभ किया।
महाज साय के वध के बाद अंग्रेजी प्रशासन ने विद्रोहियों पर बड़े इनाम घोषित किए और तानवट के आसपास सेना का जमावड़ा शुरू किया। बरसात के बाद अंग्रेजी फौज ने बड़ी घेराबंदी की, लेकिन जनता के अपार समर्थन और लालसिंह के गोरिल्ला युद्ध कौशल ने अंग्रेजों को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया।
अंग्रेजों की नज़र में ‘सबसे खतरनाक‘ विद्रोही
लालसिंह मांझी के संघर्ष से परेशान अंग्रेजों ने बंगाल प्रेसिडेंसी को रिपोर्ट भेजकर राजा कृष्णचंद्र देव पर दबाव डालने की कोशिश की तथा उन्हें “मोस्ट डेंजरस किंग ऑफ इंडिया” तक घोषित कर दिया। विद्रोही क्षेत्र को ‘रिबेल वैली’ कहा गया और लालसिंह को ‘लुटेरा’ करार दिया गया।
अंग्रेजों ने गांव में आतंक फैलाने के लिए धान के खेत जलाए, किसानों की गाय-बैलों को कब्जे में लिया और जनता को अत्याचारों का शिकार बनाया। जनता की पीड़ा देखकर लालसिंह ने अपने बलिदान का निर्णय लिया।
देश के लिए अंतिम बलिदान
22 नवम्बर 1860 को लालसिंह मांझी ने राजा कृष्णचंद्र के दरबार में आत्मसमर्पण किया। अगले दिन उन्हें गिरफ्तार कर सम्बलपुर ले जाया गया। कुछ ही दिनों बाद उन्हें कालापानी की सजा देकर अंडमान भेज दिया गया, जहाँ से वे कभी वापस नहीं लौट सके।
लेकिन आत्मसमर्पण से पहले उन्होंने वीर नारायण सिंह के पुत्र गोविंद सिंह और अन्य क्रांतिकारियों को सुरक्षित सुंबेड़ा तक पहुँचा दिया था—यह उनके असाधारण साहस का प्रमाण है।
ग्रामवासियों की पहल को सराहना
डॉ. देव ने ग्रामीणों द्वारा पहली बार 23 नवम्बर को आयोजित जनजातीय गौरव दिवस, लालसिंह मांझी गौरव दिवस, विशेष जनसभा और कलश यात्रा की भूरि-भूरि प्रशंसा की। उन्होंने कहा कि तानवट गाँव अपने वीर सपूत को उचित सम्मान देने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम बढ़ा रहा है।
कार्यक्रम में ग्राम प्रमुख देवसिंह विशाल सहित अनंत कुमार शबर, देवप्रसाद साहू, प्राणबन्धु साहू, राजकिरण सिंहदेव, दिनेश पटेल और बड़ी संख्या में ग्रामीण उपस्थित रहे।
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