राजनीति में जनमानस के बीच बन रही अवधारणा (परसेप्शन) काफी मायने रखती है और यदि एक बार कुछ सवाल उठने लगें तो उनका समाधान जितनी जल्दी हो वह कमलनाथ के नेतृत्व में बनी कांग्रेस सरकार के लिए नितान्त आवश्यक है। यह इसलिए जरुरी है कि तीन माह के भीतर लोकसभा चुनाव होने जा रहे हैं और कांग्रेस ने मध्यप्रदेश में कम से कम 20 सीटें जीतने का लक्ष्य रखा है। यह लक्ष्य उस दशा में ही पूरा हो सकता है जब जनता के मन में सरकार की स्थिरता को लेकर जो सवाल उमड़-घुमड़ रहे हैं उनका समाधान न केवल हो बल्कि इस ढंग से हो कि लोगों को लगे कि पार्टी में एकजुटता है और सब कुछ ठीकठाक है। जनधारणा बन गयी है कि कांग्रेस में काफी असंतोष है, पदों को लेकर खींचतान है और कुछ विधायक रुठे हुए हैं तो बसपा एवं सपा कभी भी अपना समर्थन वापस ले सकती हैं। इन परिस्थितियों में मुख्यमंत्री कमलनाथ के लिए सबसे बड़ी चुनौती यही है कि उनकी सरकार की स्थिरता को लेकर जो वातावरण बनाया जा रहा है उसे वे बदलें। वैसे भी निर्दलियों, सपा-बसपा की बैसाखियों पर सरकार टिकी हुई है इसलिए अधिक सावधानी की जरुरत है। कमलनाथ को फूंक-फूंक कर कदम रखने की इसलिए भी आवश्यकता है क्योंकि मध्यप्रदेश विधानसभा के इतिहास में पहली बार सत्ताधारी दल की अपनी और विपक्ष की अपनी ताकत के बीच केवल पांच विधायकों का फासला है। विपक्षी बेंचों पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान सहित कई धाकड़ चेहरे हैं और उनका मनोबल भी विधायक दल की संख्या को देखते हुए बढ़ा हुआ है। वैसे वचनपत्र की पूर्ति की दिशा में सरकार ने तेजी से कदम उठाये हैं लेकिन कांग्रेस में जिस तरह की खींचतान के समाचार सामने आये हैं और उससे जो माहौल बन रहा है उसे बदलने की दिशा में कितने कारगर कदम उठे हैं, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि कांग्रेस पार्टी के भीतर और सहयोग दे रहे दलों तथा निर्दलियों के बीच केमेस्ट्री कैसी रहती है।
प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और मुख्यमंत्री कमलनाथ ने प्रादेशिक फलक पर हाशिए में पड़ी और गुटों व धड़ों में बंटी कांग्रेस को एकजुट कर 15 साल से सत्ता पर काबिज भाजपा के हाथों से सत्ता छीनकर कांग्रेस का राजनीतिक वनवास तो खत्म करा दिया है, लेकिन अब चुनौती उससे बड़ी है क्योंकि कांग्रेस सत्ता में हैं और लोकसभा चुनाव की चुनौती सिर पर है, ऐसे में पार्टी को एकजुट रखने का करिश्मा कमलनाथ को दिखाना होगा, जो किसी भी रुप में अपने आपमें आसान टास्क नहीं है। खासकर उन्हें अपने समर्थकों, ज्योतिरादित्य सिंधिया के समर्थकों व दिग्विजय सिंह के समर्थकों को न केवल साधकर रखना है बल्कि इन तीनों बड़े नेताओं के आपस में रिश्ते मधुर हैं और कोई मतभेद नहीं है ऐसा भाव आम जनमानस में पैदा करना भी सबसे बड़ी चुनौती है। जिस तेजी से कमलनाथ ने चुनाव में मतदाताओं से किए गए वायदों के वचनपत्र को शपथ लेने के कुछ घंटों के अन्दर ही दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति से अमल में लाने की पहल करते हुए किसानों की कर्जमाफी सहित कुछ अहम् फैसले लिए उसको देखते हुए यह कहा जा सकता है कि आगाज अच्छा है तो अंजाम भी अच्छा होगा। निर्णय तो रोज हो रहे हैं लेकिन निर्णय लेते समय इस बात की भी सावधानी जरुरी है कि कोई ऐसा निर्णय जल्दबाजी में न हो जिसका राजनीतिक फायदा उठाते हुए कांग्रेस की घेराबंदी करने का अवसर भाजपा के हाथ लगे। भाजपा हाथ आये किसी भी मुद्दे को भुनाने की पूरी-पूरी कोशिश करेगी, जैसा कि वन्दे मातरम् गायन के मामले को लेकर हुआ और सरकार को यूटर्न लेना पड़ा, जिससे राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान सहित भाजपा नेताओं को यह कहने का मौका मिला कि यह उनके दबाव का नतीजा है।
जिस तेजगति से कमलनाथ ने अपनी पारी की शुरुआत की है उससे आम जनमानस में यह अहसास होना लाजिमी है कि वे जो कहते हैं वह करते हैं। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष की कमान संभालने के साथ ही उसमें जिस प्रकार एकजुटता और किलिंग स्टिंक्ट पैदा की उसी तर्ज पर अब वे व्यवस्था में बदलाव का अहसास आमजन को कराने का बीड़ा उठाये हुए हैं। कमलनाथ के सामने पहली सबसे बड़ी चुनौती कांग्रेस की सरकार बनाना थी तो अब आने वाले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को अधिक से अधिक सीट दिलाना उनकी सर्वोच्च प्राथमिकता है। सत्ता परिवर्तन के साथ ही व्यवस्था में बदलाव का वाहक उन्हें बनना होगा और इसके लिए सबसे बड़ी चुनौती मंत्रालय से लेकर निचले स्तर तक नौकरशाही की सुस्ती (लेथार्जी) को चुस्ती में बदलने उन्हें अपनी महारत दिखाना होगी। कमलनाथ के पास दीर्घ प्रशासनिक अनुभव है, विभागों पर उनकी पकड़ रही है और वे सूझबूझ के धनी हैं इसलिए उनसे यह उम्मीद की जा सकती है कि वे इसे दूर कर प्रशासकीय मिशनरी को जनोन्मुखी बना सकेंगे। कमलनाथ ने साफ कहा है कि वे अधिकारों के केंद्रीयकरण में नहीं बल्कि विकेंद्रीयकरण में भरोसा करते हैं। कमलनाथ की यही सोच वास्तव में लोकतांत्रिक प्रणाली की जीवनदायिनी शक्ति है।
जिलों के काम जिलों में हों, यदि यही उनकी चाहत है तो फिर दिग्विजय सिंह के कार्यकाल में जिला सरकार का जो प्रयोग हुआ था उसे और प्रभावी बनाकर जनसमस्याओं का निवारण जिला स्तर पर किया जा सकता है। जिला सरकार की अवधारणा को यदि साकार किया जाता है तो एक बड़ी सीमा तक बदलाव का अहसास लोगों को हो सकता है। लगभग 80 प्रतिशत जनसमस्यायें ऐसी हैं जिनका निराकरण जिला स्तर पर हो सकता है और लोगों को भोपाल व मंत्रालय के चक्कर लगाने से होने वाली असुविधा से बचाया जा सकता है। जिला सरकार की पुरानी अवधारणा को और अधिक अधिकार सम्पन्न बनाकर लोगों को अनावश्यक परेशानी से भी बचाया जा सकता है। शायद इसी मंशा से कमलनाथ ने अधिकारियों का चेताते हुए कहा कि ग्राम, ब्लाक या तहसील और कलेक्टोरेट में होने वाला काम यदि नहीं हुआ और व्यक्ति मेरे पास आया तो ऐसे अफसर को मैं बर्दाश्त नहीं करुंगा जो यह कहे कि मैं करवा दूंगा। कमलनाथ के पास फिलहाल लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को अधिक से अधिक सीट दिलाने के लिए बहुत कम समय है इसलिए उन्होंने 100 दिन की कार्ययोजना बनाकर उस पर अमल प्रारंभ कर दिया है।
और यह भी
पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अपने आपको नेता प्रतिपक्ष की दौड़ से अलग कर लिया है और इसके साथ ही इस बात की प्रबल संभावना नजर आ रही है कि पूर्व जनसंपर्क एवं जल संसाधन मंत्री नरोत्तम मिश्रा नये नेता प्रतिपक्ष हो सकते हैं। विधानसभा के अंदर जिस प्रकार की चुनौतियां हैं उसे देखते हुए नरोत्तम मिश्रा का दावा सबसे मजबूत है क्योंकि वे सत्तापक्ष पर आक्रामक हमला कर सकते हैं, तो ऐसे हालात भी कभी-कभी पैदा कर सकते हैं जिससे कि सत्तापक्ष का आत्मविश्वास डोलता नजर आये। इसके अलावा नेता प्रतिपक्ष के रुप में और जो नाम आगे चल रहे हैं उनमें गोपाल भार्गव, भूपेंद्र सिंह, राजेन्द्र शुक्ल के नाम शामिल हैं।
सम्प्रति-लेखक श्री अरूण पटेल अमृत संदेश रायपुर के कार्यकारी सम्पादक एवं भोपाल के दैनिक सुबह सबेरे के प्रबन्ध सम्पादक है।