
अमेठी का रण 2014 के नतीजे के फौरन बाद 2019 के लिए सज गया था। भाजपा तभी से तैयारी में थी। नाम की घोषणा तो महज औपचारिकता थी। सबको पता था कि स्मृति ईरानी एक बार फिर राहुल गांधी के मुकाबिल होंगी। 2014 की मोदी लहर में उनके पास सिर्फ तीन हफ्ते का वक्त था। इस बार उनकी पांच साल की तैयारी है। 2014 में चुनाव प्रचार के आखिरी दिन पांच मई को नरेंद्र मोदी ने उनके पक्ष में सभा की थी। वादा किया था कि हर हाल में स्मृति ईरानी अमेठी में रहेंगी। 2019 में चुनाव की घोषणा से पहले ही मोदी ने 3 मार्च को अमेठी में सभा कर डाली । याद दिलाया।” हमने वायदा निभाया। चुनाव में सफलता नही मिली। पर स्मृति अमेठी की सेवा में लगी रहीं।”
वाराणसी और अमेठी पर सबकी निगाह है। प्रधानमंत्री पद के प्रतिद्वन्दी उम्मीदवारों के ये क्षेत्र हैं। फिलहाल विपक्षी वाराणसी में मोदी को चुनौती देने लायक उम्मीदवार की माथा- पच्ची में लगे हैं। उधर राहुल गांधी को उनके गढ़ में भाजपा पिछले पांच साल से छका रही है। 2014 में हार के बाद भी राहुल की जीत के अंतर में भारी कमी से भाजपा को 2019 की संभावनाएं नजर आयीं। केंद्र-प्रान्त में अपनी सरकारों की बदौलत आत्मविश्वास बढ़ा। पार्टी ने उसे भुनाने का कोई मौका नही छोड़ा।
2009 के लोकसभा चुनाव में अमेठी में भाजपा के खाते में कुल जमा 37,570 यानी 5.81 फीसद वोट थे। 2014 में उसमे 28.51 फीसद अतिरिक्त जुड़कर यह 34.32 फीसद और संख्या में 3,00,748 हो गए। राहुल के पास 2009 में 71.78 फीसद अर्थात कुल 4,64,195 मतदाताओं का समर्थन था। 2014 के बढ़े मतदान के बीच 4,08,651 वोट पाकर वह जीते। लेकिन पिछली तुलना में 25.14 फीसद समर्थन कम हुआ और अन्तर घट कर 1,07,903 रह गया।
2017 के विधानसभा चुनाव भी भाजपा के लिए सुखद रहे। पिछले मौकों पर क्षेत्र की किसी सीट पर पार्टी मुख्य मुकाबले में नही थी। इस बार उसने पांच में चार विधानसभा सीटों अमेठी, जगदीशपुर, तिलोई, सलोन में जीत दर्ज की। पांचों सीटों पर उसके उम्मीदवारों को कुल 3,46,234 वोट मिले। 2014 के लोकसभा चुनाव की तुलना में उसके 45,486 वोट बढ़े। दूसरी तरफ कांग्रेस ने 2012 में जीतीं अपनी दोनों सीटें भी गंवा दीं। पांचों सीटों पर उसके उम्मीदवारों को मिले कुल वोट 2,37,216 थे। 2014 के लोकसभा चुनाव की तुलना में कांग्रेस के वोटों में 1,71,435 की भारी कमी हुई।
लोकसभा और विधानसभा चुनाव के मुद्दे अलग होते हैं। इसलिए राहुल गांधी को मिले वोटों से पार्टी के विधानसभा उम्मीदवारों के वोटों की तुलना पर सवाल हो सकते हैं। पर इसके संदेश को समझा जा सकता है। ये किसी सामान्य निर्वाचन क्षेत्र की विधानसभा सीटें नही थीं। राहुल लगातार तीसरी बार वहां से सांसद चुने गए थे। उससे पहले 1980 से उनके परिवार या उससे जुड़े लोगों का सीट पर कब्जा था। 1998 अपवाद था, जब भाजपा उम्मीदवार के रूप में डॉ संजय सिंह ने कैप्टन सतीश शर्मा को शिकस्त दी थी। विधानसभा चुनाव में राहुल-प्रियंका ने अपने उम्मीदवारों के लिए मेहनत की थी। फिर भी उसके वोटों में भारी कमी आयीं। सिर्फ दो पुरानी सीटें नही गंवाईं। तिलोई और अमेठी में उसके उम्मीदवार मुख्य मुकाबले में भी नही आ पाए। उधर जीत ने भाजपा को ताकत दी। उसके संगठन को मजबूती मिली। उसे हर बूथ पर अड़ने वाले कार्यकर्ता मिले। सत्ता ने उसका आकर्षण बढाया।
भाजपा राहुल को अमेठी तो सोनिया को रायबरेली से बेफ़िक्र नही रहने देना चाहती। पर पार्टी रायबरेली में कोई बड़ा नाम नही ढूंढ सकी। अमेठी में हालात पार्टी के अनुकूल हैं। 2014 की हार के बाद भी स्मृति ईरानी को केंद्रीय मंत्रिमंडल में जगह मिली। उसने उनका कद बढ़ाया। इस बीच लगभग हर दूसरे महीने वह अमेठी पहुंची। पांच साल में तीस से अधिक बार उन्होंने अमेठी पहुंच अनेक माध्यम से जनसंपर्क-संवाद किये। आम तौर पर राहुल के दौरों के फौरन बाद। उनकी काट में । वार-पलटवार का यह दौर दिल्ली से अमेठी तक चलता रहा। केंद्र-प्रान्त की योजनाओं और उनकी सरकारों की अमेठी को लेकर फ़िक्र ने स्मृति को अमेठी की आबादी से सीधे जोड़ दिया। सामूहिक बीमा,पौधा और ऋण वितरण,कुम्भ स्नान के लिए निशुल्क बस व्यवस्था , एयर स्ट्राइक आधारित फिल्म उरी के मुफ्त प्रदर्शन, सहयोग-सहायता ,साड़ी-कम्बल वितरण और केंद्र-राज्य की सरकारों की मदद से स्मृति के पास हर दौरे में उद्धाटन-शिलान्यास और अमेठी को कुछ न कुछ देने के लिए हमेशा रहा। दो बार मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ तो अलग-अलग मौकों पर पहुंचे केंद्र-प्रान्त के मंत्री, पार्टी अध्यक्ष अमित शाह और खुद प्रधानमंत्री अमेठी आ बता गए कि भाजपा सरकारें अमेठी को लेकर कितनी सजग-सचेत हैं। साथ-साथ गांधी परिवार पर तीर चलते रहे कि चालीस साल में उन्होंने अमेठी को क्या दिया ? शासन-सत्ता के बाद भी अमेठी जहां की तहां क्यों ?
और राहुल ? प्रदेश में तीस साल पहले तो 2014 में केंद्र की सरकार गंवाने के बाद अमेठी के सांसद के पास देने को उनकी विकास निधि के अलावा कुछ नही था। गुजरे पांच साल से गढ़ में उन्हें घेरने में जुटी भाजपा की राहुल ने पलटवार में जबाबी घेराबंदी का रास्ता चुना । सड़क से सदन तक वह और उनकी पार्टी भाजपा पर अमेठी के साथ सौतेले व्यवहार। वहां की स्वीकृत योजनाएं वापस ले जाने। उनके किये काम का झूठा श्रेय लेने। वहां के विकास कार्यक्रम ठप करने। एक भी बंद उद्योग चालू न कर पाने। कोई नया उद्योग और स्थानीय युवाओं को रोजगार देने में विफल रहने जैसे आरोप जड़ते रहे। 2014 में वह बचाव की मुद्रा में थे। अब आक्रामक।
बेशक अमेठी का विकास इस चुनाव का एक मुद्दा है। लेकिन वहां का फैसला सिर्फ इस सवाल पर नही होना है। राहुल गांधी लगातार तीन बार अमेठी से जीते हैं। पर वह अपने पिता स्व.राजीव गांधी जैसे अमेठी में मजबूत नही हैं। उन जैसा सम्पर्क-संवाद और भावनात्मक रिश्ता भी वह अमेठी से नही जोड़ सके हैं। अपने कार्यकर्ताओं को पिता राजीव गांधी जैसी आत्मीयता नही दे पाते। उन्हें नाम से पहचानने और पुकारने का उनका मिजाज नही हैं । इससे दूरियां बढ़ी हैं।संगठन कमजोर हुआ है। कायकर्ता अनमने हैं। 1999 से प्रियंका गांधी अमेठी-रायबरेली के चुनाव की जिम्मेदारी संभाल रही हैं। लेकिन इस बीच सिर्फ चुनाव में अमेठी में नज़र आने से लोगों की शिकायतें-उलाहने बढ़े हैं। अमेठी में जीत का घटता अंतर और विधानसभा की पांचों सीटों पर पार्टी की हार बताती है कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की वापसी के लिए निकली प्रियंका का ” अपने परिवार की अमेठी” में जादू उतार पर है। फिर भी जब गांधी परिवार मैदान में हो तो प्रतिद्वन्दी की राह आसान नही होती । प्रदेश में कांग्रेस को कोई भाव नही देने वाली बसपा-सपा ने वहां मैदान से बाहर रहकर गैर भाजपाई वोटों के बंटवारे को रोका है। आमने-सामने की इस लड़ाई में भाजपा से दूर रहने वाला वोटर हर हाल में गांधी परिवार की झोली में है।
2014 में उससे रूठे और तब प्रचार के तीन महीने में आप पार्टी के कुमार विश्वास के साथ नत्थी मुस्लिम वोटर भाजपा की जीत की संभावना देखते ही राहुल के पाले में एकमुश्त चले गए।कुमार विश्वास को सिर्फ 25,527 वोट मिले। बेशक भाजपा, उसकी सरकारों और स्मृति ईरानी की मेहनत ने अमेठी की लड़ाई को काफी कठिन बना दिया है। इतनी कठिन कि राहुल की अमेठी के साथ केरल की किसी दूसरी सीट से लड़ने की चर्चा भी शुरू हो गई। अमेठी कांग्रेस कमेटी से सहमति का प्रस्ताव भी ले लिया गया। पिछले पांच सालों में अमेठी के दूर गांवों और कमजोर तबकों तक भाजपा की पहुंच बनी है। अपनी पार्टी के अनुकूल समीकरण गिनाते एक संजीदा भाजपा नेता इसमें ” लेकिन” जोड़ते हैं और फिर खुद ही सवाल करते हैं ” अमेठी क्यों पूछी जाती है? मोदी-योगी और तमाम मंत्री क्यों और किसकी वजह से अमेठी आते हैं ? मीडिया में अमेठी क्यों छाई रहती है? जबाब भी देते हैं, ” चालीस साल से गांधी परिवार के नाते पहचानी जा रही है अमेठी। वहां के वाशिंदे इस पहचान को लेकर बेहद सचेत हैं। गांधी परिवार की अमेठी में यही सबसे बड़ी ताकत है।” उसकी काट की मशक्कत जारी है। चुनाव दर चुनाव। इस बार और तैयारी के साथ !
सम्प्रति- लेखक श्री राज खन्ना वरिष्ठ पत्रकार है।श्री खन्ना के आलेख विभिन्न प्रमुख समाचार पत्रों में प्रकाशित होते रहते है।
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