बंगाल में दुर्गा-पूजा, भगवान राम और वंदे-मातरम् के चुनावी जयकारों के बीच एकाएक यह अनुत्तरित सवाल जहन में कुलांचे भरने लगा है कि ’भारत-मां के मंदिर में पाखाना फैलाकर लोकतंत्र की पूजा’ के मायने क्या होते हैं? बंगाल के चुनाव में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी के राजनीति-द्वंद्व में ’राज’ की लालसा ने ’नीति’ को तिलांजलि दे दी है और राज-धर्म के पाठ को भुला दिया है।
सत्ता की दुर्दांत चाहत ने नेताओं को इतना घिनौना बना दिया है कि वो संविधान की आत्मा पर घात-प्रतिघात करने लगे हैं। किसी भी कीमत पर प्रधानमंत्री बनने के लिए लालायित नरेन्द्र मोदी लोकसभा नतीजों के बाद जीते या हारे, महा-गठबंधन की सेनाएं मोदी की राहें रोक पाएं अथवा नहीं रोक पाएं, लेकिन यह तय है कि चौतरफा राजनीतिक उद्दण्डता और उन्माद के उल्कापात से क्षत-विक्षत लोकतंत्र का चेहरा 23 मई के नतीजों के बाद अब दुरुस्त नहीं हो सकेगा। चुनाव में लोकतांत्रिक परम्पराओं का चीर-हरण हैरान करने वाला है। इसके कई उदाहरण मौजूद हैं।
सबसे पहले बंगाल में भाजपा के चुनाव अभियान की बात करें। भक्तों की राय अलहदा हो सकती है, लेकिन मान्य परम्पराओं के अनुसार सत्तारुढ़ पार्टी के नाते भाजपा के शीर्ष नेताओं की जिम्मेदारी ज्यादा है कि वो संविधान की भावनाओं के अनुरूप राज-धर्म का पालन करें, लोकतंत्र की घोषित-अघोषित आचार-संहिता का पालन करें, लेकिन चुनाव के दौरान किसी भी क्षण यह महसूस नहीं हुआ कि देश के कर्णधार-नेता इस मामले में संजीदा हैं। सत्ता-प्रमुख होने के नाते प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह से अपेक्षा की जाती है कि चुनावी रैलियों में वो अपने भाषणों में तथ्यों के मामलों में विपक्षी नेताओं के बनिस्बत ज्यादा जिम्मेदार और गंभीर रहें। उन कसौटियों का पालन करें, जो लोकतंत्र की संवैधानिक मर्यादाओं में अपेक्षित हैं। इस परिप्रेक्ष्य में गुरुवार को बंगाल के मथुरापुर में आयोजित रैली में प्रधानमंत्री मोदी का यह कहना जायज नहीं है कि तृणमूल कांग्रेस के गुंडों ने कलकत्ता में देश के महान समाज-सुधारक, शिक्षाविद् ईश्वरचंद विद्यासागर की मूर्ति को तोड़ दिया है।
अभी तक किसी भी जांच में यह खुलासा नहीं हुआ है कि मूर्ति किन लोगों ने तोड़ी। यह तृणमूल कांग्रेस के गुंडों का कृत्य है अथवा भाजपा के उन कार्यकर्ताओं की करतूत, जिनके वीडियो टीएमसी नेताओं ने जारी किए हैं। (वैसे विद्यासागर कॉलेज के प्रिंसीपल के अनुसार प्रतिमा भाजपा कार्यकर्ताओं ने तोड़ी है।) इसके बावजूद बिना किसी पड़ताल के प्रधानमंत्री के रूप में मोदी का यह कथन उनकी गंभीरता पर गहरे सवाल खड़ा करता है। मोदी अच्छे वक्ता हैं। आम जनता उनसे गंभीरता की अपेक्षा करती है। फिर भी चुनाव में मोदी के भाषणों का शब्दांकन कटुता की कालिख से ओतप्रोत है।
बंगाल की चुनावी रैलियों में दुर्गा-पूजा और जय श्री राम के जयकारों का उद्घोष मोदी की राजनीतिक बेताबियों का खुलासा है। वंदे मातरम् अथवा जन-गण-मन के सहारे वोट बटोरने की कोशिशें भाजपा की राजनीतिक मजबूरियों को बयां करती हैं कि मुद्दों के अभाव में लोगों को भाजपा के पक्ष में मोड़ने के लिए उनके पास राम-नाम, दुर्गा-पूजा या सांस्कृतिक जय-पराजय के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है।
चुनाव के अंतिम दौर में चुनाव आयोग का पक्षपाती रवैया संविधान की उन व्यवस्थाओं को दुत्कार रहा है, जो स्वायत्तता के कवच में चुनावी प्रक्रियाओं के माध्यम से लोकतंत्र को मजबूत करती हैं। चुनाव में इलेक्शन-कमीशन कभी भी निष्पक्ष नजर नहीं आया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के प्रति उसका सॉफ्ट-कार्नर किसी से छिपा नहीं है।
भोपाल से भाजपा की उम्मीदवार प्रज्ञा ठाकुर का यह कहना चौंकाता है कि महात्मा गांधी का हत्यारा ’’नाथूराम गोडसे सच्चे देशभक्त थे और हमेशा देशभक्त रहेंगे। उनको आंतकवादी कहने वाले अपने गिरेबां में झांक कर देखें। ऐसे लोगों को इस चुनाव में जवाब दिया जाएगा।’’ भोपाल के नतीजे आना शेष हैं। चुनाव के सातवें चरण के मद्देनजर भाजपा भले ही माफी मांग कर उनके कथन को रफा-दफा करना चाहे, लेकिन प्रज्ञा ठाकुर का यह सोच सिर्फ मप्र ही नहीं, समूचे भारत की राजनीति का स्थायी भाव होने जा रहा है। जिन लोगों ने उन्हें वोट दिया है, उन्हें भी इसे झेलना है और जिन लोगों ने नहीं दिया है, उन्हें इसका प्रतिफल ज्यादा भुगतना है।
चुनाव में हिन्दू-मुसलमानों के बीच घृणा की दीवार ऊंची होती जा रही है। चुनाव में भाजपा ने आमजनों के मुद्दों को हाशिए पर रख दिया है। भाजपा खुलेआम सांप्रदायिक-जहर उगल रही है। रोजगार, किसान और महिलाएं चुनावी-परिदृश्य में नदारद हैं। जो सरकार के साथ नहीं है, वह राष्ट्रद्रोही है और जो बौद्धिक रूप से मोदी-सरकार से असहमत है, वह अर्बन नक्सलवादी है। भाजपा, पक्ष-विपक्ष चाहे जिस भूमिका में रहें, चुनावी-भाषणों में मोदी और अमित शाह ने जो एजेण्डा तय किया है, उसमें अंगारे लिपटे हुए हैं। जाहिर है राजनीति की इन प्रवृत्तियों के मद्देनजर भारत में अब लोकतंत्र के लिए अपने उस आदर्श स्वरूप में लौट पाना संभव नहीं बचा है, जिसकी कल्पनाएं संविधान के नीति-नियंताओं ने की थी। जाहिर है भारत मां के मंदिर में पाखाना फैलाकर लोकतंत्र की पूजा का यह फर्जी अनुष्ठान बेमानी है।
सम्प्रति- लेखक श्री उमेश त्रिवेदी भोपाल एनं इन्दौर से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के प्रधान संपादक है। यह आलेख सुबह सवेरे के 17 मई के अंक में प्रकाशित हुआ है।वरिष्ठ पत्रकार श्री त्रिवेदी दैनिक नई दुनिया के समूह सम्पादक भी रह चुके है।