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काले धन के खिलाफ एक आभासी लड़ाई ! -संजय द्विवेदी

 जिस दौर में सुझाव को आलोचना और आलोचना को षडयंत्र समझा जा रहा है, ऐसे कठिन समय में भारतीय संस्कृति और उसकी सामासिकता के अनुगामियों को कुछ असुविधाजनक सवाल पूछने के जोखिम जरूर उठाने चाहिए।

   नोटबंदी से हलाकान देश के सामने कई तथ्य हैं, जो हमें दुखी करते हैं। सात दिन में 40 मौतों का आंकड़ा देश के आकार के लिहाज से बड़ा नहीं हैं। किंतु इसके इर्द-गिर्द बहुत सारी अन्य सूचनाएं भी हैं, जिनसे जीवन जुड़ा हुआ है, उन पर सोचने की जरूरत है। पुराने नोटों को निष्प्रभावी करना या वापस लेना एक ऐसा फैसला है, जिसकी सीधे तौर पर आलोचना नहीं की जा सकती। इतिहास में कई बार और कई देशों में ऐसा हुआ है। यह आर्थिक क्षेत्र में एक सैद्धांतिक व्यवस्था है।

परेशानहाल है आम आदमीः

सरकार ने कालेधन और आतंकवाद को रोकने की नीयत से यह फैसला लिया है। लेकिन इसमें दो राय नहीं कि सरकार चलाने वाले अगर चतुर हैं, तो‘काले धन के प्रेत’ भी कम चालाक नहीं हैं। इस पूरे वाकये में परेशानहाल और मौत के मुंह में जाते वे आम लोग हैं,जिनके पास काला धन क्या,जीवन को ठीक से चलाने भर का सफेद धन भी नहीं है। सरकार को हक है कि वह देश हित में फैसले ले और कड़े फैसले भी ले। किंतु देश के मिजाज, मन और उसकी संस्कृति की समझ के बिना लिए गए फैसले आम जनजीवन में कड़वाहट ही घोलते हैं। इस पूरे फैसले से परेशान वे दिख रहे हैं जो रसूखवाले नहीं हैं, सत्ता और सूचनाओं की दुनिया से जिनका लेना-देना नहीं है। रोक लगते ही जिस तरह जमीन, सोना, हीरे और बहुमूल्य धातुओं में रातों रात जो निवेश हुआ, वह चौंकाने वाला है। कई लोगों ने अपने धन को लोन की तरह बांटा। कुछ ने अपने कर्मचारियों को तीन से चार माह की तनख्वाह बांट डाली। कुछ ने दीवाली के बाद भी बोनस दे डाला। इसमें ज्यादातर पैसा बैंक के पास कहां आया? सोची-समझी रणनीति के तहत कुछ लोगों के लाभ-हानि को देखकर यह कदम उठाया गया लगता है। जिसके नाते कठिनाई सिर्फ आम आदमी के हिस्से आयी। यह देखना बहुत रोचक है कि सरकार के साधारण फैसलों पर सड़कों पर आ जाने वाले उनके सहयोगी संगठन और समविचारी संगठन कहीं जनता की मदद करते नहीं दिखे। जबकि ऐसी आपात स्थितियों में इन संगठनों ने हमेशा सड़क पर उतर कर प्रभावितों की मदद की है। इस दौर में वह जनसेवा की भावना कहां लुप्त हो गयी समझना कठिन है। दूसरा हर मुद्दे पर गली-गली होर्डिंग लगाने वाले, हर बात पर दीवालें रंग देने वाले लोग इस बार कहां गायब हैं। सरकार अपने विज्ञापनों से अपना गाल बजा रही है। उसके समर्थकों ने देश में एक भी होर्डिंग इस क्रांतिकारी फैसले के पक्ष में नहीं लगाया। लगा हो तो मुझे दिखा नहीं। जबकि सर्जिकल स्ट्राइक पर इस समर्थक समूह ने होर्डिंग्स की बाढ़ ला दी थी। अगर ये कार्यकर्ता नोटबंदी के बाद आम घटनाओं की तरह लोगों की मदद के लिए उतरते तो जनता में आक्रोश कम होता।

सामान्य लोग नहीं है अर्थशास्त्रीः

 यह भी मानिए कि आम आदमी अर्थशास्त्री नहीं हैं। उसे नहीं पता कि इन कदमों से कैसे अर्थव्यवस्था को गति मिलेगी। वह तो हो रहे प्रचार का हिस्सा ही है। मीडिया पर अगर यह प्रचार है कि यह कदम देश हित में है तो लोग भी इसे ऐसा ही मानेगें। आम आदमी प्रचार से ही प्रभावित होता है और अपनी राय बनाता है। वह वस्तुस्थिति का विश्लेषण करने की क्षमता नहीं रखता। इस पूरे मामले में सरकार के प्रबंधकों की विफलता यह है कि वे प्रचार में तो जोर से लगे, किंतु लोगों को सुविधाएं मिलें और उनका जीवन सहज हो इसे भूल गए। सरकार समर्थक संगठन भी मौन ओढ़े रहे। जनता की यह अनदेखी इस प्रसंग की सबसे बड़ी चूक है। जबकि हमें यह पता है कि आम लोगों को दर्द मिला, तो वे अच्छे-अच्छे हिटलरों को ठीक कर सकते हैं।

नीतियां लाने से पहले, जानिए देश का मिजाजः

 भारतीय विचार और दर्शन को समझे बिना इस तरह के कदमों से सामान्य तौर पर भारतीय विचारों को प्रोत्साहित करने के बजाए आप लोगों को अपने ही खिलाफ खड़े होने के लिए बाध्य कर रहे हैं। हम इस उम्मीद में खुश हैं कि लोग इस फैसले से बहुत खुश हैं, लेकिन यह तथ्य है या नहीं, इसे जानने की कोशिशें नदारद हैं। सच मानिए यदि इस फैसले से प्रभावी तबका, समर्थ लोग परेशान होकर सामने आते तो सामान्यजन अपने दुख भूल जाते,किंतु यहां दृश्य उलटा है। कुल मिलाकर देश को समझे बिना यह जंग कालेधन के खिलाफ एक आभासी लड़ाई बनकर रह गयी है। यह लेख लिखे जाने तक किसी बड़े पूंजीपति या कालेधन के कारोबारी के हार्टअटैक या अस्पताल जाने की सूचना नहीं है।

  हिंदुत्व व हिंदू संस्कृति के प्रोत्साहकों की सरकार को यह नहीं पता कि देवोत्थान एकादशी(देवउठनी ग्यारस) के बाद देश में मांगलिक कार्य प्रारंभ होते हैं। यही यह वक्त है जब कृषि संस्कृति से जुड़ा यह देश खाद और बीज के लिए बाजारों में होता है। किसान और परिवार दोनों को दुखी करने वाले इस फैसले को लेने वाले लोग क्या भारत और उसकी जड़ों को समझते हैं, यह एक बड़ा सवाल है? देवउठनी ग्यारस के बाद मांगलिक कामों का सिलसिला प्रारंभ हो रहा है, उसमें इस एक फैसले ने कैसी विषबाधा धोली है, इसे वे ही समझ सकते हैं, जिनके परिवारों में विवाह हैं। जिस देश में सिर्फ 2.6 करोड़ लोग प्लास्टिक मनी का इस्तेमाल करते हों, वहां ऐसे समय में यह फैसला शादी वाले परिवारों और किसानों पर क्या प्रभाव डालेगा कहने की जरूरत नहीं है। राज्यकर्ताओं को ऐसे फैसले लेते समय यह तो पता होना चाहिए कि यह मौसम फसल बोने का है। किसान को खाद और बीज की जरूरत है। मंडियों में फसल पड़ी है, उसका भुगतान भी किसान को चाहिए, किंतु व्यापारी मंडियों से गायब हैं क्योंकि बड़े नोटों से अभी व्यापार संभव नहीं हैं। क्या यह लड़ाई सच में काले धन के खिलाफ है या आम लोगों के,यह समझ से परे है। जनता को जो कठिनाई हो रही है, उसका प्रमुख कारण निश्चित ही सरकार का कमजोर होमवर्क है।

     सच तो यह है कि भारत की जनशक्ति को अपने विकास का आधार बनाने के बजाए पूंजीकेंद्रित उदारवाद की स्थापना का मार्ग प्रशस्त करने के लिए ये सारे कदम उठाए जा रहे हैं। जिसमें कुछ ताकतवर और सत्ताकेंद्रित लोगों को लाभ मिलना तय है। ऐसे कठिन समय में जब सारा देश लाइनों में हैं, ठीक उसी वक्त यह सूचना भी दुखी करती है कि स्टैट बैंक आफ इंडिया विजय माल्या सहित 63 डिफाल्टरों को सात हजार करोड़ रूपए का कर्ज माफ कर रहा है। क्या ये सूचनाएं जले पर नमक छिड़कने जैसी नहीं है? देश में छोटे कुटीर उद्योगों के बजाए कैपिटल मार्केट और वायदा कारोबार को मजबूती देती सूचनाएं आखिर क्या बता रही हैं? क्षमा कीजिए, यद्यपि इस सरकार की भाषा भारतीय संस्कार और भारतीय संस्कृति के पुरस्कर्ता की है, किंतु आचरण औपनिवेशिक तथा पूंजीकेंद्रित उदारवाद को विकसित करने का है।

 

सम्प्रति- लेखक श्री संजय द्विवेदी जाने माने राजनीतिक विश्लेषक हैँ।