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पंडित जवाहरलाल नेहरूःआधुनिक भारत के निर्माता -फिरदौस ख़ान

(बाल दिवस 14 नवंबर पर विशेष)

देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू आधुनिक भारत के निर्माताओं में एक माने जाते हैं। देशभर में उनके जन्म दिन 14 नवंबर को बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है।नेहरू बच्चों से बेहद प्यार करते थे और यही वजह थी कि उन्हें प्यार से चाचा नेहरू बुलाया जाता था।

एक बार चाचा नेहरू से मिलने एक सज्जन आए।बातचीत के दौरान उन्होंने नेहरू जी से पूछा-पंडित जी, आप सत्तर साल के हो गए हैं,लेकिन फिर भी हमेशा बच्चों की  तरह तरोताजा दिखते हैं,जबकि आपसे छोटा होते हुए भी मैं बूढ़ा दिखता हूं। नेहरू जी ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया-इसके तीन कारण हैं।  पहला, मैं बच्चों को बहुत प्यार करता हूं। उनके साथ खेलने की कोशिश करता हूं।, इससे मैं अपनेआपको उनको जैसा ही महसूस करता हूं। दूसरा, मैं प्रकृति प्रेमी हूं और पेड़-पौधों, पक्षी, पहाड़, नदी, झरनों, चांद, सितारों से बहुत प्यार करता हूं। मैं इनके साथ  में जीता हूं, जिससे यह मुझे तरोताजा रखते हैं। तीसरी वजह यह है किज्यादातर लोग हमेशा छोटी-छोटी बातों में उलझे रहते हैं और उसके बारे में सोच-विचार कर दिमाग ख़राब करते हैं। मेरा नजरिया अलग है और मुझ पर छोटी-छोटी बातों का कोई असर नहीं होता। यह कहकर नेहरू जी बच्चों की तरहखिलखिलाकर हंस पड़े।

पंडित जवाहरलाल नेहरू  का जन्म 14 नवंबर 1889 को उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में हुआ था। वह पंडित मोतीलाल नेहरू और स्वरूप रानी के इकलौते बेटे थे। उनसे छोटी उनकी दो बहनें थीं। उनकी बहन विजयलक्ष्मी पंडित बाद मेंसंयुक्त राष्ट्र महासभा की पहली महिला अध्यक्ष बनीं। उनकी शुरुआती तालीम घर पर ही हुई। उन्होंने 14 साल की उम्र तक घर पर ही कई अंग्रेज  शिक्षकों से तालीम हासिल की। आगे की शिक्षा के लिए 1905 में जवाहरलाल नेहरू को इंग्लैंड के हैरो स्कूल में दाख़िल करवा दिया गया। इसके बाद उच्च शिक्षा के लिए वह कैंब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज गए, जहां से उन्होंने प्रकृति विज्ञान में स्नातक उपाधि प्राप्त की। 1912 में उन्होंने लंदन के इनर टेंपल से वकालत की डिग्री हासिल की और उसी साल भारत लौट आए। उन्होंने इलाहाबाद में वकालत शुरू कर दी, लेकिन वकालत में उनकी ख़ास दिलचस्पी नहीं थी। भारतीय राजनीति में उनकी दिलचस्पी बढ़ने लगी और वह सियासी कार्यक्रमों में शिरकतकरने लगे। उन्होंने 1912 में बांकीपुर (बिहार) में होने वाले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में प्रतिनिधि के रूप में हिस्सा लिया लिया। 8 फरवरी 1916 को कमला कौल से उनका विवाह हो गया। 19 नवंबर 1917 को उनके यहां बेटी का जन्म हुआ, जिसका नाम इंदिरा प्रियदर्शिनी रखा गया, जो बाद में भारत की प्रधानमंत्री बनीं। इसके बाद उनके यहां एक बेटे का जन्म हुआ, लेकिन जल्द ही उसकी मौत हो गई।

पंडित नेहरू1916 के लखनऊ अधिवेशन में महात्मा गांधी के संपर्क में आए। मगर 1929 में कांग्रेस के ऐतिहासिक लाहौर अधिवेशन का अध्यक्ष चुने जाने तक नेहरू भारतीय राजनीति में अग्रणी भूमिका में नहीं आ पाए थे। इस अधिवेशन में भारत के राजनीतिक लक्ष्य के रूप में संपूर्ण स्वराज्य का ऐलान किया गया। इससे पहले मुख्य लक्ष्य औपनिवेशिक स्थिति की मांग थी। वह जलियांवाला बाग हत्याकांड की जांच में देशबंधु चितरंजनदास और महात्मा गांधी के सहयोगी रहे और 1921 के असहयोग आंदोलन में तो महात्मा गांधी के बेहद करीब में आ गए और गांधी जी की मौत तक यह नजदीकी क़ायम रही। कांग्रेस पार्टी के साथ नेहरू का जुड़ाव 1919 में प्रथम विश्व युद्ध के फौरन बाद शुरू हुआ। उस वक़्त राष्ट्रवादी गतिविधियों की लहर जोरों पर थी और अप्रैल 1919 को अमृतसर के नरसंहार के रूप में सरकारी दमन खुलकर सामने आया। स्थानीय ब्रिटिश सेना कमांडर ने अपनी टुकड़ियों को निहत्थे भारतीयों की एक सभा पर गोली चलाने का हुक्म दिया, जिसमें 379 लोग मारे गए और तक़रीबन बारह सौ लोग जख्मी हुए।

1921 के आख़िर में जब कांग्रेस पार्टी के प्रमुख नेताओं और कार्यकर्ताओं को कुछ प्रदेशों में गैर क़ानूनी घोषित कर दिया गया,  तब पहली बार नेहरू जेल गए। अगले 24 साल में उन्हें आठ बार गिरफ्तार कर जेल भेजा गया। नेहरू ने कुल मिलाकर नौ साल से ज्यादा वक़्त जेलों में गुजारा। अपने मिजाज के मुताबिक़ ही उन्होंने अपनी जेल-यात्राओं को असामान्य राजनीतिक गतिविधि वाले जीवन के अंतरालों के रूप में वर्णित किया है।कांग्रेस के साथ उनका राजनीतिक प्रशिक्षण 1919 से 1929 तक चला। 1923 में और फिर 1927 में वह दो-दो साल के लिए पार्टी के महासचिव बने। उनकी रुचियों और जिम्मेदारियों ने उन्हें भारत के व्यापक क्षेत्रों की यात्रा का मौका दिया, ख़ासकर उनके गृह प्रदेश संयुक्त प्रांत का,  जहां उन्हें घोर गरीबी और किसानों की बदहाली की पहली झलक मिली और जिसने इन महत्वपूर्ण समस्याओं को दूर करने की उनकी मूल योजनाओं को प्रभावित किया। हालांकि उनका कुछ-कुछ झुकाव समाजवाद की ओर था, लेकिन उनका सुधारवाद किसी निश्चित ढांचे में ढला हुआ नहीं था। 1926-27 में उनकी यूरोप और सोवियत संघ की यात्रा ने उनके आर्थिक और राजनीतिक चिंतन को पूरी तरह प्रभावित कर दिया।

वह महात्मा गांधी के कंधे से कंधा मिलाकर अंग्रेजों के ख़िलाफ लड़े, चाहे असहयोग आंदोलन हो या फिर नमक सत्याग्रह, या फिर 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन हो। उन्होंने गांधी जी के हर आंदोलन में बढ़-चढ़कर शिरकत की। नेहरूकी विश्व के बारे में जानकारी से गांधी जी काफी प्रभावित थे और इसलिए आजादी के बाद वह उन्हें प्रधानमंत्री पद पर देखना चाहते थे। 1920 में उन्होंने उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में पहले किसान मार्च का आयोजन किया। वह1923 में अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के महासचिव चुने गए। गांधी जी ने यह सोचकर उन्हें यह पद सौंपा कि अतिवादी वामपंथी धारा की ओर आकर्षित हो रहे युवाओं को नेहरू कांग्रेस आंदोलन की मुख्यधारा में शामिल करसकेंगे।

1931 में पिता की मौत के बाद जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस की केंद्रीय परिषद में शामिल हो गए और महात्मा के अंतरंग बन गए। हालांकि 1942 तक गांधी जी ने आधिकारिक रूप से उन्हें अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी घोषित नहीं किया था, लेकिन 1930 के दशक के मध्य में ही देश को गांधी जी के स्वाभाविक उत्तराधिकारी के रूप में नेहरू दिखाई देने लगे थे। मार्च 1931 में महात्मा और ब्रिटिश वाइसरॉय लॉर्ड इरविन (बाद में लॉर्ड हैलिफैक्स) के बीच हुए गांधी-इरविन समझौते से भारत के दो प्रमुख नेताओं के बीच समझौते का आभास मिलने लगा। इसने एक साल पहले शुरू किए गए गांधी जी के प्रभावशाली सविनय अवज्ञा आंदोलन को तेजी प्रदान की, जिसके दौरान नेहरू को गिरफ्तार किया गया। दूसरे गोलमेज सम्मेलन के बाद लंदन से स्वदेश लौटने के कुछ ही वक़्त बाद जनवरी 1932 में गांधी को जेल भेज दिया। उन पर फिर से सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू करने की कोशिश का आरोप लगाया गया।नेहरू को भी गिरफ्तार करके दो साल की कैद की सजा दी गई।

भारत में स्वशासन की स्थापना की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए लंदन में हुए गोलमेज सम्मेलनों की परिणति आख़िरकार 1935 के गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट के रूप में हुई, जिसके तहत भारतीय प्रांतों के लोकप्रिय स्वशासी सरकारकी प्रणाली प्रदान की गई। इससे एक संघीय प्रणाली का जन्म हुआ, जिसमें स्वायत्तशासी प्रांत और रजवाड़े शामिल थे। संघ कभी अस्तित्व में नहीं आया, लेकिन प्रांतीय स्वशासन लागू हो गया।

1930 के दशक के मध्य में नेहरू यूरोप के घटनाक्रम के प्रति ज्यादा चिंतित थे, जो एक अन्य विश्व युद्ध की ओर बढ़ता प्रतीत हो रहा था। 1936 के शुरू में वह अपनी बीमार पत्नी के इलाज के लिए यूरोप में थे। इसके कुछ ही वक्त  बाद स्विट्जरलैंड के एक सेनीटोरियम में उनकी पत्नी की मौत हो गई। उस वक़्त भी उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि युद्ध की स्थिति में भारत का स्थान लोकतांत्रिक देशों के साथ होगा। हालांकि वह इस बात पर भी जोर देते थे कि भारतएक स्वतंत्र देशों के रूप में ही ग्रेट ब्रिटेन और फ्रांस के समर्थन में युद्ध कर सकता है।

सितंबर 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ने के बाद जब वाइसरॉय लॉर्ड लिनलिथगो ने स्वायत्तशासी प्रांतीय मंत्रिमंडलों से मशविरा किए बगैर भारत को युद्ध में झोंक दिया, तो इसके ख़िलाफ कांग्रेस पार्टी के आलाकमान ने अपने प्रांतीय मंत्रिमंडल वापस ले लिए। कांग्रेस की इस कार्रवाई से राजनीति का अखाड़ा जिन्ना और मुस्लिम लीग के लिए साफ हो गया।

अक्तूबर 1940 में महात्मा गांधी जी ने अपने मूल विचार से हटकर एक सीमित नागरिक अवज्ञा आंदोलन शुरू करने का फैसला किया, जिसमें भारत की आजादी के अग्रणी पक्षधरों को क्रमानुसार हिस्सा लेने के लिए चुना गया था।नेहरू को गिरफ्तार करके चार साल की कैद की सजा दी गई। एक साल से कुछ ज्यादा वक़्त तक जेल में रहने के बाद उन्हें अन्य कांग्रेसी क़ैदियों के साथ रिहा कर दिया गया। इसके तीन दिन बाद हवाई में पर्ल हारबर पर बमबारी हुई। 1942 में जब जापान ने बर्मा के रास्ते भारत की सीमाओं पर हमला किया तो इस नए सैनिक ख़तरे के मद्देनजर ब्रिटिश सरकार ने भारत की तरफ हाथ बढ़ाने का फैसला किया। प्रधानमंत्री विन्स्टन चर्चिल ने सर स्टेफोर्ड क्रिप्स को संवैधानिक समस्याओं को सुलझाने के प्रस्तावों के साथ भेजा। सर स्टेफोर्ड क्रिप्स युद्ध मंत्रिमंडल के सदस्य और राजनीतिक रूप से नेहरू के नजदीकी और मोहम्मद अली जिन्ना के परिचित थे। क्रिप्स की यह मुहिम नाकाम रही, क्योंकि गांधी जी आजादी से कम कुछ भी मंजूर करने के पक्ष में नहीं थे।

कांग्रेस में अब नेतृत्व गांधी जी के हाथों में था, जिन्होंने अंग्रेजों को भारत छोड़ देने का आह्वान किया। 8 अगस्त 1942 को मुंबई में कांग्रेस द्वारा भारत छोड़ो प्रस्ताव पारित करने के बाद गांधी जी और नेहरू समेत पूरी कांग्रेस कार्यकारिणी समिति को गिरफ्तार करके जेल भेज दिया गया। नेहरू 15 जून 1945 को रिहा हुए। लंदन में युद्ध के दौरान सत्तारूढ़ चर्चिल प्रशासन का स्थान लेबर पार्टी की सरकार ने ले लिया था। उसने अपने पहले कार्य के रूप में भारत में एक कैबिनेट मिशन भेजा और बाद में लॉर्ड वेवेल की जगह लॉर्ड माउंटबेटन को तैनात कर दिया। अब सवाल भारत की आजादी का नहीं, बल्कि यह था कि इसमें एक ही आजाद राज्य होगा या एक से ज्यादा होंगे। गांधी जी ने बटवारे को क़ुबूल करने से इंकार कर दिया, जबकि नेहरू ने मौक़े की नजाकत को देखते हुए मौन सहमति दे दी। 15 अगस्त 1947 को भारत और पाकिस्तान दो अलग-अलग आजाद देश बने। नेहरू आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्रीबन गए।

फिर 1952 में आजाद भारत में चुनाव हुए। ब्रिटिश संसदीय प्रणाली को आधार मान कर बनाए गए भारतीय संविधान के तहत हुआ यह पहला चुनाव था, जिसमें जनता ने मतदान के अधिकार का इस्तेमाल किया। इस चुनाव के वक़्तमतदाताओं की कुल संख्या 17 करोड़ 60 लाख थी, जिनमें से 15 फीसदी साक्षर थे। इस चुनाव में कांग्रेस भारी बहुमत से सत्ता में आई और पंडित जवाहरलाल नेहरू देश के पहले प्रधानमंत्री बने। इससे पहले वह 1947 में आजादी मिलने के बाद से अंतरिम प्रधानमंत्री थे। संसद की 497 सीटों के साथ-साथ राज्यों की विधानसभाओं के लिए भी चुनाव हुए।देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का पहला चुनाव प्रचार भी यादगार है। कहा जाता है कि कांग्रेस का चुनाव प्रचार केवल नेहरू पर केंद्रित था। चुनाव प्रचार के लिए नेहरू ने सड़क, रेल, पानी और हवाई जहाज सभी का सहारा लिया। उन्होंने 25,000 मील का सफर किया यह सफर 18,000 मील हवाई जहाज से,  5200 मील कार से, 1600 मील ट्रेन से और 90 मील नाव से किया गया। ख़ास बात यह भी रही कि देश भर में 60 फीसदी मतदान हुआ और पहले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को सबसे ज्यादा 364 सीटें मिली थीं।

नेहरू के वक़्त एक और अहम फैसला भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन का था। इसके लिए राज्य पुनर्गठन क़ानून-1956 पास किया गया। आजादी के बाद भारत में राज्यों की सीमाओं में हुआ, यह सबसे बड़ा बदलाव था। इसके तहत 14 राज्यों और छह केंद्र शासित प्रदेशों की स्थापना हुई। इसी क़ानून के तहत केरल और बॉम्बे को राज्य का दर्जा मिला। संविधान में एक नया अनुच्छेद जोड़ा गया, जिसके तहत भाषाई अल्पसंख्यकों को उनकी मातृभाषा में शिक्षाहासिल करने का अधिकार मिला।

1929 में जब लाहौर अधिवेशन में गांधी ने नेहरू को अध्यक्ष पद के लिए चुना था,  तब से 35 बरसों तक 1964 में प्रधानमंत्री के पद पर रहते हुए मौत तक नेहरू अपने देशवासियों के आदर्श बने रहे। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नेहरू का सितारा अक्टूबर 1956 तक बुलंदी पर था, लेकिन 1956 में सोवियत संघ के ख़िलाफ हंगरी के विद्रोह के दौरान भारत के रवैये की वजह से उनकी गुटनिरपेक्ष नीति की जमकर आलोचना हुई। संयुक्त राष्ट्र में भारत अकेला ऐसा गुटनिरपेक्ष देश था, जिसने हंगरी पर हमले के मामले में सोवियत संघ के पक्ष में मत दिया। इसके बाद नेहरू को गुटनिरपेक्ष आंदोलन के आह्वान की विश्वनीयता साबित करने में काफी मुश्किल हुई। आजादी के बाद के शुरूआती बरसों में उपनिवेशवाद का विरोध उनकी विदेश-नीति का मूल आधार था, लेकिन 1961के गुटनिरपेक्ष देशों के बेलग्रेड सम्मेलन तक नेहरू ने प्रति उपनिवेशवाद की जगह गुटनिरपेक्षता को सर्वोच्च प्राथमिकता देना शुरू कर दिया था। 1962में लंबे वक़्त से चले आ रहे सीमा-विवाद की वजह से चीन ने ब्रह्मपुत्र नदी घाटी पर हमले की चेतावनी दी। नेहरू ने अपनी गुटनिरपेक्ष नीति को दरकिनार कर पश्चिमी देशों से मदद की मांग की। नतीजतन चीन को पीछे हटना पड़ा।कश्मीर नेहरू के प्रधानमंत्रीत्व काल में लगातार एक समस्या बना रहा, क्योंकि भारत के साथ-साथ पाकिस्तान भी इस पर अपना दावा कर रहा था। संघर्ष विराम रेखा को समायोजित करके इस विवाद को निपटाने की उनकी शुरुआती कोशिशें नाकाम रहीं और 1948 में पाकिस्तान ने कश्मीर पर क़ब्जे की कोशिश की। भारत में बचे आख़िरी उपनिवेश पुर्तगाली गोवा की समस्या को सुलझाने में नेहरू अधिक भाग्यशाली रहे। हालांकि दिसंबर 1961 में भारतीय सेनाओं द्वारा इस पर क़ब्जा किए जाने से कई पश्चिमी देशों में नाराजगी पैदा हुई, लेकिन नेहरू की कार्रवाई सही थी। हिन्दी-चीनी भाई-भाई का नारा उस वक़्त बेमानी साबित हो गया, जब सीमा विवाद को लेकर 10 अक्तूबर 1962 को चीनी सेना ने लद्दाख़ और नेफा में भारतीय चैकियों पर क़ब्जा कर लिया। नवंबर में एक बार फिर चीन की ओर से हमले हुए। चीन ने एकतरफा युद्धविराम का ऐलान कर दिया, तब तक 1300 से ज्यादा भारतीय सैनिक शहीद हो चुके थे।पंडित नेहरू के लिए यह सबसे बुरा दौर साबित हुआ। उनकी सरकार के ख़िलाफ संसद में पहली बार अविश्वास प्रस्ताव पेश किया गया। चीन के साथ हुई जंग के कुछ वक्त बाद नेहरू की सेहत ख़राब रहने लगी। उन्हें 1963 में दिल का हल्का दौरा पड़ा, फिर जनवरी 1964 में उन्हें दौरा पड़ा। कुछ ही महीनों बाद तीसरे दौरे में 27 मई 1964 में उनकी मौत हो गई।

जवाहरलाल नेहरू ने देश के विकास के लिए कई महत्वपूर्ण काम किए। उन्होंने औद्योगीकरण को महत्व देते हुए भारी उद्योगों की स्थापना को प्रोत्साहन दिया। उन्होंने विज्ञान के विकास के लिए 1947  में भारतीय विज्ञान कांग्रेस की स्थापना की। देश के विभिन्न भागों में स्थापित वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद के अनेक केंद्र इस क्षेत्र में उनकी दूरदर्शिता के प्रतीक हैं। खेलों में भी नेहरू की रुचि थी। उन्होंने खेलों को शारीरिक और मानसिक विकास केलिए जरूरी बताया। उन्होंने 1951 दिल्ली में प्रथम एशियाई खेलों का आयोजन करवाया।

पंडित जवाहरलाल नेहरू एक महान राजनीतिज्ञ ही नहीं, बल्कि विख्यात लेखक भी थे। उनकी आत्मकथा 1936में प्रकाशित हुई और दुनियाभर में सराही गई। उनकी अन्य रचनाओं में भारत और विश्व, सोवियत रूस, विश्व इतिहास की एक झलक, भारत की एकता और स्वतंत्रता और उसके बाद आदि शामिल हैं। वह भारतीय भाषाओं को काफी महत्व देते थे। वह चाहते थे कि हिन्दुस्तानी जब कहीं भी एक-दूसरे से मिले तो अपनी ही भाषा में बातचीत करें। उन्होंने कहा था-मेरे विचार में हम भारतवासियों के लिए एक विदेशी भाषा को अपनी सरकारी भाषा के रूप में स्वीकारना सरासर अशोभनीय होगा। मैं आपको कह सकता हूं कि बहुत बार जब हम लोग विदेशों में जाते हैं, और हमें अपने ही देशवासियों से अंग्रेजी में बातचीत करनी पड़ती है तो मुझे कितना बुरा लगता है। लोगों को बहुत ताज्जुब होता है, और वे हमसे पूछते हैं कि हमारी कोई भाषा नहीं है? हमें विदेशी भाषा में क्यों बोलना पड़ता है?

पंडित जवाहरलाल नेहरू अपने विचारों और अपने उल्लेखनीय कार्यों की वजह से ही महान बने। विभिन्न मुद्दों पर नेहरू के विचार उन्हीं के शब्दों में- भारत की सेवा का अर्थ करोड़ों पीड़ितों की सेवा है। इसका अर्थ दरिद्रता और अज्ञान और अवसर की विषमता का अंत करना है। हमारी पीढ़ी के सबसे बड़े आदमी की यह आकांक्षा रही है कि हर आंख के हर आंसू को पोंछ दिया जाए। ऐसा करना हमारी शक्ति से बाहर हो सकता है, लेकिन जब तक आंसू हैं और पीड़ा है,तब तक हमारा काम पूरा नहीं होगा।

नेहरू जी ने कहा था कि अंतर्राष्ट्रीय दृष्टि से आज का बड़ा सवाल विश्व शांति का है। आज हमारे लिए यही विकल्प है कि हम दुनिया को उसके अपने रूप में ही स्वीकार करें। हम देश को इस बात की स्वतंत्रता देते रहें कि वह अपने ढंग सेअपना विकास करे और दूसरों से सीखे, लेकिन दूसरे उस पर अपनी कोई चीज नहीं थोपें।निश्चय ही इसके लिए एक नई मानसिक विधा चाहिए। पंचशील या पांच सिद्धांत यही विधा बताते हैं।

नेहरू जी ने कहा था- आप में जितना अधिक अनुशासन होगा, आप में उतनी ही आगे बढ़ने की शक्ति होगी। कोई भी देश, जिसमें न तो थोपा गया अनुशासन है, और न आत्मा-अनुशासन-बहुत वक़्त तक नहीं टिक सकता।

मीडिया द्वारा अपना विरोध करने के बारे में उन्होंने कहा था, ’हो सकता है, प्रेस गलती करे, हो सकता है, प्रेस ऐसी बात लिख दे, जो मुझे पसंद न हो। प्रेस का गला घोंटने की बजाय मैं यह पसंद करूंगा कि प्रेस गलती करे और गलती से सीखे, मगर देश में प्रेस की स्वतंत्रता बरकरार रहे।

वह यह भी कहा करते थे कि एक ऐसा क्षण जो इतिहास में बहुत ही कम आता है , जब हम पुराने को छोड़ नए की तरफ जाते हैं , जब एक युग का अंत होता है , और जब वर्षों से शोषित एक देश की आत्मा , अपनी बात कह सकती है।

बेशक, पंडित नेहरू जैसे नेता सदियों में जन्म लेते हैं। उनके विचार आज भी बेहद प्रासंगिक हैं। बस जरूरत है उनको अपनाने की।

 

सम्प्रति -लेखिका फिरदौस ख़ान स्टार न्यूज एजेंसी में संपादक हैं।