कोशिश हमेशा सर्वसहमति की हुई लेकिन एक को छोड़ हर मौके पर राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव हुआ। देश के सोलहवें राष्ट्रपति का चयन भी चुनाव से ही मुमकिन होगा। गिनती के खेल में स्थितियां भले यशवंत सिन्हा के अनुकूल न हो लेकिन विपक्ष, सत्ता दल को वाक ओवर देने को तैयार नहीं हैं। राष्ट्रपति चुनाव के इतिहास में केवल 1977 में एक मौका आया था, जबकि किसी प्रत्याशी का इस पद पर निर्विरोध निर्वाचन हुआ था। तब जनता पार्टी के उम्मीदवार एन. संजीव रेड्डी राष्ट्रपति चुने गए थे। ये वही रेड्डी थे , जो 1969 में कांग्रेस के उम्मीदवार के तौर पर निर्दलीय वी. वी. गिरि से पराजित हुए थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने गिरि का समर्थन किया था। राष्ट्रपति का ये चुनाव कांग्रेस पार्टी के ऐतिहासिक विभाजन का कारण भी बना था।
देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद अकेले ऐसे राष्ट्रपति थे, जिन्हें दो कार्यकाल मिले। दिलचस्प है कि इन दोनों ही बार उन्हें भी चुनाव लड़ना पड़ा था। 1952 के पहले चुनाव में डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद को के.टी.शाह ने चुनौती दी थी। डॉक्टर प्रसाद को 5,07,400 तथा प्रतिद्वंदी शाह को 92,827 वोट प्राप्त हुए थे। 1957 में डॉक्टर प्रसाद को 4,59,698 और मुकाबले में चौधरी हरीराम को 2,672 तथा तीसरे प्रत्याशी नागेंद्र नारायण दास को 2,000 वोट मिले थे। 1962 में इन्हीं चौधरी हरीराम ने डॉक्टर एस. राधाकृष्णन को असफल चुनौती दी थी। डॉक्टर राधाकृष्णन को 5,53,067 , चौधरी हरीराम को 6,341और यमुना प्रसाद त्रिशुलिया को 3,537 वोट मिले थे।
1967 के चौथे राष्ट्रपति चुनाव में गैरकांग्रेसी विपक्ष अपेक्षाकृत बेहतर स्थिति में था। इस वर्ष हुए राष्ट्रपति चुनाव में निर्वाचित डॉक्टर जाकिर हुसैन को 4,71,244 और विपक्ष समर्थित जस्टिस के.सुब्बाराव को 3,63,971 वोट प्राप्त हुए थे। कार्यकाल के मध्य ही जाकिर हुसैन के निधन के कारण 1969 का राष्ट्रपति चुनाव सर्वाधिक सरगर्म था। कांग्रेस ने एन.संजीव रेड्डी को अपना प्रत्याशी बनाया था। पार्टी की आंतरिक खींचतान के बीच तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने निर्दलीय प्रत्याशी वी. वी. गिरि को समर्थन दे दिया था। कांटे के संघर्ष वाले इस चुनाव में द्वितीय वरीयता के मतों की गिनती के बाद गिरि राष्ट्रपति निर्वाचित हुए थे। गिरि को 4,20,077 और रेड्डी को 4,05427 मत प्राप्त हुए थे। छठवें राष्ट्रपति फखरुद्दीन अहमद को त्रिदिव चौधरी ने चुनौती दी थी। अहमद को 7,54,113 और चौधरी को 1,89,196 वोट मिले थे।
1969 में पराजित होने वाले एन.संजीव रेड्डी 1977 में सत्ताधारी जनता पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर निर्विरोध सातवें राष्ट्रपति चुने गए। आठवें राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह (7,54,113 वोट) को जस्टिस हंस राज खन्ना (2,82,685 वोट) ने चुनौती दी थी। नौंवें राष्ट्रपति आर.वेंकटरमन (7,40,148) के सामने जस्टिस वी.आर.कृष्णा अय्यर (2,81,550 वोट) थे। दसवें राष्ट्रपति डॉक्टर शंकर दयाल शर्मा को 6,75,864 तथा प्रतिद्वंदी जी.जी. स्वेल को 3,48,485 वोट प्राप्त हुए थे। ग्यारहवें राष्ट्रपति के.आर. नारायणन (9,56,290 वोट) के प्रतिद्वंदी टी. एन. शेषन (50,631वोट) थे। बारहवें राष्ट्रपति ए. पी. जे.अब्दुल कलाम (9,22,884) को कैप्टन लक्ष्मी सहगल (1,07,366 वोट) ने असफल चुनौती दी थी। तेरहवीं राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल (6,38,116 वोट)के प्रतिद्वंदी भैरो सिंह शेखावत(3,31,306 वोट) थे। अगले राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी (7,13,763) के मुकाबले पी. ए.संगमा के वोट (3,15,987) थे। वर्तमान राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद ने 7,02,044 वोट हासिल किए थे। उनकी प्रतिद्वंदी मीरा कुमार के वोटों की संख्या 3,67,314 थी।
इस बार एन. डी. ए. समर्थित आदिवासी महिला उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू के मैदान में उतरने के बाद विपक्षी खेमे की मुश्किलें बढ़ीं हैं। बीजू जनता दल,झारखंड मुक्ति मोर्चाऔर वाई. एस.आर.कांग्रेस के समर्थन ने उन्हें मजबूती दी है। बसपा भी समर्थन का एलान कर चुकी है। इन मुश्किलों के बीच भी विपक्ष के उम्मीदवार यशवंत सिन्हा मजबूती से चुनाव लड़ने की तैयारी में हैं। 1960 बैच के आइ.ए.एस. यशवंत सिन्हा ने 24 साल नौकरी की। इसी दौरान वे चन्द्रशेखर के संपर्क में आये । 1984 के लोकसभा चुनाव में चन्द्रशेखर ने उन्हें हजारीबाग से जनता पार्टी का उम्मीदवार बनाया । इस चुनाव में उन्हें मामूली वोट और निराशा हासिल हुई थी। 1988 में जनता पार्टी और भाजपा के समझौते में वे राज्यसभा पहुंचे। चन्द्रशेखर सरकार में वित्त मंत्री बने। 1993 में भाजपा से जुड़े।1995 में भाजपा टिकट पर वे बिहार विधान सभा के लिए चुने गए। नेता विपक्ष भी बनाये गए। 1998 और 1999 में हजारीबाग से लोकसभा का चुनाव जीते। 1998 से 2004 तक अटलजी की सरकार में पहले वित्त और फिर विदेश मंत्री रहे। 2004 का लोकसभा चुनाव हारे लेकिन 2005 में पार्टी ने राज्यसभा भेज दिया। 2009 में एक बार फिर पार्टी ने हजारीबाग से टिकट दिया, जिसमे उन्हें जीत मिली।
2014 आने तक उन्हें महसूस हुआ कि सदन की कार्यवाही और अपने निर्वाचन क्षेत्र के रोजमर्रा के कामकाज में उनकी दिलचस्पी खत्म होती जा रही है। पार्टी के भीतर से भी ऐसी खबरें मिल रही थीं कि चुनाव बाद 75 साल के ऊपर के लोगों को मंत्री नही बनाया जाएगा। अपनी आत्मकथा में उन्होंने लिखा है ,’ मुझे मंत्री बनने में कोई दिलचस्पी नही रह गई थी।’ इस मुकाम पर पहुंचते हुए सिन्हा अपने गुजरे समय और हिन्दू धर्म की जीवन व्यवस्था ब्रह्मचर्य , गृहस्थाश्रम और वानप्रस्थ को याद करने लगे थे। तब मान रहे थे कि तीनों सोपानों के बाद अब सन्यास का समय आ गया है। पार्टी से उन्होंने अपने निर्वाचन क्षेत्र हजारीबाग से पुत्र जयंत सिन्हा को टिकट देने का आग्रह किया था। 2014 और फिर 2019 में जयंत सिन्हा इसी क्षेत्र से लोकसभा के लिए चुने गए। मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में जयंत मंत्री भी बने।
….और यशवंत सिन्हा का सन्यास…? अपनी आत्मकथा में भले उन्होंने इसका इरादा जाहिर किया रहा हो लेकिन गुजरे साल गवाह हैं कि राजनीति में वे पूरी तौर पर सक्रिय रहे हैं। उन्होंने भाजपा के मार्गदर्शक मंडल में निट्ठल्ले समय गुजारने की जगह मोदी विरोध का रास्ता चुना। बेशक इन वर्षों में उनकी राजनीतिक उपस्थिति प्रभावी नहीं रही लेकिन उनके हौसले कायम हैं। उनके राजनीतिक गुरु चंद्रशेखर ने कभी उन्हें सचेत किया था कि भाजपा में उनके (सिन्हा) लिए शिखर पर पहुंचने की संभावना नहीं है। 84साल के सिन्हा अब प्रतिद्वंदी खेमे की सहायता से शिखर पर पहुंचने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
सम्प्रति- लेखक श्री राजखन्ना वरिष्ठ पत्रकार है।श्री खन्ना के आलेख देश के प्रतिष्ठित समाचार पत्रों,पत्रिकाओं में निरन्तर छपते रहते है।श्री खन्ना इतिहास की अहम घटनाओं पर काफी समय से लगातार लिख रहे है।