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बैंकों के ‘बेड-लोन’ की गाज आम आदमी के ‘डिपॉजिट्स’ पर गिरेगी? – उमेश त्रिवेदी

उमेश त्रिवेदी

मोदी सरकार संसद के शीतकालीन सत्र में एक ऐसा बिल प्रस्तुत करने जा रही है, जिसके बाद यह कहना मुश्किल है कि बैंकों में जमा आपकी जिंदगी भर की कमाई में कितना हिस्सा बैंको का होगा और बैंक कितना पैसा आपको लौटाएंगी? बिल के खिलाफ मुंबई की शिल्पाश्री ने ‘चेंज डॉट ओआरजी’  पर एक ऑन-लाइन पिटीशन भी डाली है। इसमें मांग  की गई है कि बैंकों को खराब हालात से उबारने के लिए लोगों के जमा धन के इस्तेमाल की इजाजत नहीं होना चाहिये। पिटीशन पर अभी तक 70 हजार लोग हस्ताक्षर कर चुके हैं।

वर्तमान व्यवस्थाओं के अंतर्गत बैंक यह वादा करता है कि आप जब भी पैसा मांगेंगे, वह आपको तुरंत लौटाने के लिए प्रतिबध्द है। नए बिल के ‘बेल-इन’ प्रावधानों के अनुसार बैंकें जमाकर्ताओं को उनका जमा पैसा देने से इंकार कर सकती हैं। यह भी हो सकता है कि आपकी जमा-राशि के बदले बैंक आपको अपने कुछ शेयर दे दें या सुरक्षा-पत्र दे दें। बिल पारित होने के बाद रेजोल्यूशन-कमीशन जमाकर्ता की जमा-पूंजी का आकार और भविष्य तय कर सकेगा। मौजूदा कानूनों के तहत यदि आपके खाते में दस लाख रुपये जमा है तो बैंक के दीवालिए होने की स्थिति में आपको न्यूनतम एक लाख रुपया मिलता है। प्रस्तावित बिल में बैंकों को इस बंधन से मुक्त किया जा रहा है।

11 अगस्त 2017 को लोकसभा में प्रस्तुत बिल संसद की संयुक्त समिति के पास विचाराधीन है। समिति ने रिपोर्ट पेश नहीं की है, लेकिन बिल से संबंधित चर्चाएं आशंकाएं पैदा कर रही हैं कि बैंकों में जमा आपका पैसा अब पूरी तरह सुरक्षित नहीं है। इसके विपरीत सरकार का दावा है कि बैंकों के पास पर्याप्त केपिटल उपलब्ध है और उनकी निगरानी भी दुरुस्त है, जो जमाकर्ताओं की पूंजी की सुरक्षा की गारंटी है।

बिल को लेकर लोगों में आश्वस्ति का भाव नहीं है। बैकिंग-विशेषज्ञ भी आंशकित हैं। बैंक-एसोसिएशन्स का कहना है कि बिल में सम्मिलित ‘बेल-इन’ क्लॉज के जरिए बैंकों को अधिकार मिल जाएगा कि वो जमाकर्ता का पैसा अपनी खराब स्थिति सुधारने के लिए कर सकते हैं। बिल रेजोल्यूशन कॉरपोरेशन को अधिकार देता है कि वह जमाकर्ता की पूंजी को लेकर कोई भी फैसला कर सके। बड़ा सवाल यह है कि बैकों को यह अधिकार मिलने के बाद जमाकर्ताओं के पैसों की सुरक्षा का क्या होगा? नेशनल कंज्यूमर हेल्पलाइन की को-प्रोजेक्ट डायरेक्टर ममता पठानिया के अनुसार लोगों के मन की आशंकाओं को दूर करना जरूरी है। बैंकों के ‘बेड-लोन’ का खमियाजा आम लोगों को क्या भुगतना चाहिए?

केन्द्रीय वित्‍तमंत्री अरुण जेटली लोकसभा के शीतकालीन सत्र में फाइनेंशियल रेजोल्यूशन एंड डिपॉजिट इंश्योरेंस (एफआरडीआई) विधेयक-2017 प्रस्तुत कर सकते हैं। इसमें बैंको के दीवालिए होने की स्थिति में सहारा देने के लिए अनेक प्रावधान किए गए हैं। विधेयक का मसौदा तैयार है और इसे शीतकालीन सत्र में पेश करने की पूरी तैयारियां हो चुकी हैं। वित्तमंत्री ने संकेत दिये हैं कि बिल के विवादित प्रस्तावों को बदलने के लिए ससकार तैयार है। सरकार का उद्देश्य आम आदमी और बैंकों के हितों की रक्षा करना है।

केन्द्र सरकार चाहे जो दावे करे, लेकिन वस्तुस्थिति यह है कि लोगों के मन में भारतीय बैंकिग व्यवस्था को लेकर आश्वस्ति का भाव नहीं है। भारत वित्तीय साक्षरता के मामले में काफी पिछड़ा हुआ देश है। आजादी के पैंसठ-छियासठ सालों के बाद भी देश की एक चौथाई आबादी तक ही बैंकिंग-सेवाएं पहुंच पाई हैं। भारतीयों को यह भी पता नहीं है कि पैसे से पैसा कैसे कमाया जाता है। ज्यादातर भारतीय अपनी बचत का निवेश जमीन खरीदने में करते हैं या बैंकों में फिक्स्ड-डिपॉजिट में अपना पैसा रखते हैं। कुछ लोग सोना खरीद लेते हैं या इंश्योरेंस करवा लेते हैं। यह बिल देश के छोटे-छोटे जमाकर्ताओं की बड़ी जमा-पूंजी पर सवालिया निशान लगाता है। आम आदमी की छोटी-छोटी बचतें उनकी जिंदगी में आस का वह दिया है, जिसकी टिमटिमाती रोशनी के सहारे उसकी जिंदगी टुकुर-टुकुर आगे बढ़ती है।उम्मीदों के इन छोटे-छोटे चिरागों की रोशनी पर यह बिल धुंए की मानिन्द है, जो आंखों में जलन पैदा कर रहा है। इसका साफ-सुथरा होना जरूरी है।

 

सम्प्रति– लेखक श्री उमेश त्रिवेदी भोपाल एनं इन्दौर से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के प्रधान संपादक है। यह आलेख सुबह सवेरे के 11 दिसम्बर के अंक में प्रकाशित हुआ है।वरिष्ठ पत्रकार श्री त्रिवेदी दैनिक नई दुनिया के समूह सम्पादक भी रह चुके है।