इसके कारणों पर और इसलिए, निहितार्थों तथा संकेतों पर तो बहस हो सकती है, लेकिन यह तथ्य निर्विवाद है कि मोदी-शाह-भागवत की भाजपा, विकास वगैरह के सारे दावे छोडक़र, खुलेआम अयोध्या में निर्माणाधीन राम मंदिर की शरण में जा पहुंची है। एक प्रकार से इसका ही एलान करते हुए, मौजूदा निजाम में मोदी के बाद वास्तविक नंबर-2 माने जाने वाले, केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने, नये साल के पहले ही हफ्ते में त्रिपुरा में अपनी पार्टी की एक चुनावी सभा में, अयोध्या में मंदिर के चालू होने की तारीख की घोषणा कर दी। उन्होंने मोदी के मुख्य राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी माने जाने वाले, राहुल गांधी को संबोधित करते हुए एलान किया कि, ‘‘1 जनवरी 2024 को अयोध्या में गगनचुंबी राम मंदिर तैयार मिलेगा।’’
मोदी राज के आठ साल से ज्यादा के दौरान, सार्वजनिक बहस-मुबाहिसे का दायरा जितना तंग किया जा चुका है और वर्तमान निजाम तथा उसके शीर्ष नेताओं की कथनियों तथा करनी पर सवाल उठाने की गुंजाइशें जितनी सीमित कर दी गयी हैं, उन्हें देखते हुए हैरानी की बात नहीं है कि शायद ही किसी ने इस पर सवाल किया हो कि देश का गृहमंत्री, एक मंदिर के खुलने की तारीख का एलान क्यों और किस हैसियत से कर रहा है? क्या यह भारत के संविधान की प्रस्तावना में परिभाषित भारतीय राज्य के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को सिर्फ संविधान के कागज तक सीमित करते हुए, व्यवहार में देश पर एक बहुसंख्यकवादी हिंदू राज थोपे जाने का और गृहमंत्री शाह के ऐसे बहुसंख्यकवादी राज के गृहमंत्री की तरह आचरण करने का ही, मामला नहीं है?
लेकिन, मुद्दा सिर्फ गृहमंत्री के किसी निर्माणाधीन मंदिर के शुरू होने की तारीख बताने की उपयुक्तता/अनुपयुक्तता का ही नहीं है। अगर प्रधानमंत्री मोदी, भूमि की मिल्कियत के विवाद पर अदालत के फैसले के बाद और अदालती फैसले के जरिए मंदिर के निर्माण के लिए गठित कमेटी को पीछे कर के, खुद प्रस्तावित मंदिर के लिए शिलापूजन करने के लिए आगे आ सकते हैं, तो गृहमंत्री को कम-से-कम मंदिर के चालू होने की तारीख का एलान करने से कौन रोक सकता है? लेकिन, शाह का असली मकसद तो मंदिर खुलने की तारीख का एलान करना नहीं, कुछ और ही था। उनका असली मकसद था, इसका दावा पेश करना कि राम मंदिर सिर्फ और सिर्फ मोदी सरकार ने बनवाया है।
और कहना पड़ेगा कि अमित शाह ने बेधडक़ मोदी सरकार की ओर से इसका दावा ही पेश नहीं किया, जिसमें दूर-दूर तक इसका जरा-सा पर्दा तक नहीं था कि मंदिर आखिरकार, सुप्रीम कोर्ट के फैसले बन रहा है और अदालत के उसी फैसले में मंदिर बनाने की जिम्मेदारी, सरकार की जगह पर, उसके लिए गठित की जाने वाली एक कमेटी को सौंपी थी। हालांकि, उक्त कमेटी का गठन सरकार द्वारा ही अपनी मर्जी से किया जाना था और किया भी गया, फिर भी अदालत ने मंदिर बनाने के काम और सरकार के बीच एक पर्दा बनाए रखना जरूरी समझा था। वर्ना सेंट्रल विस्टा की तरह, राम मंदिर का निर्माण मोदी सरकार पर भी छोड़ा जा ही सकता था।
बहरहाल, अमित शाह ने न सिर्फ इस पर्दे को नकारते हुए, सीधे-सीधे मोदी सरकार द्वारा ही राम मंदिर बनाए जाने का दावा किया, बल्कि ऐसा करते हुए भी उनका ज्यादा जोर, इस दावे को विपक्ष के खिलाफ हमले का हथियार बनाने पर ही था। चूंकि अमित शाह यह दावा त्रिपुरा में कर रहे थे, जहां विधानसभा में सीपीएम मुख्य विपक्षी ताकत है, इसलिए उन्होंने इस हमले में उसे भी लपेट लिया, हालांकि उनके हमले की मुख्य धार, देश के पैमाने पर भाजपा की मुख्य राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी, कांग्रेस के खिलाफ थी। उन्होंने न सिर्फ कांग्रेस के शीर्ष नेता, राहुल गांधी पर व्यंग्य करते हुए, 1 जनवरी 2024 से राम मंदिर पूजा-अर्चना के लिए खुल जाने का एलान किया, बल्कि कांग्रेस पर इसका आरोप भी लगाया कि उसी ने अदालतों में राम मंदिर के निर्माण के मुद्दे को अटकाए रखा था; जबकि मोदी जी की सरकार आयी और उसके तुरंत बाद मंदिर के पक्ष में अदालत का फैसला आ गया।
शाह ने कहा: ‘‘जब से देश आजाद हुआ, तब से, ये कांग्रेसी इसे कोर्ट के अंदर उलझा रहे थे। मोदी जी आए, एक दिन सुबह सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया और मोदी जी ने उसी दिन रामलला के मंदिर का भूमि पूजन कर, मंदिर का निर्माण शुरू करा दिया!’’ यानी मोदी सरकार की ओर से सिर्फ मंदिर बनाने के श्रेय पर दावा ही पेश नहीं किया जा रहा था, राम मंदिर के बनने को यह कहकर विपक्ष के खिलाफ हथियार की तरह इस्तेमाल करने का अभियान भी छेड़ा जा रहा था कि वही मंदिर बनने से रोक रहा था और उसकी मंदिर बनने से रोकने की कोशिशों को परास्त कर के ही, मोदी राज ने राम मंदिर बनवाया है!
बेशक, त्रिपुरा में सबरूम की उसी सभा में अमित शाह ने मोदी राज के ‘हिंदू-हितरक्षक’ होने के इस दावे का रंग और गाढ़ा करने के लिए मोदी राज में काशी कारीडोर, केदारनाथ मंदिर पुनर्निर्माण, महाकाल कॉरीडोर आदि-आदि के विस्तार, पुनर्निर्माण आदि की भी याद दिलायी। फिर भी इनकी याद सिर्फ यह छवि बनाने के लिए दिलायी जा रही थी कि मोदी राज का ‘हिंदू हितरक्षण’ का काम, सिर्फ राम मंदिर के निर्माण तक ही सीमित नहीं रहा है, नहीं रहेगा। हिंदुओं के नाम पर किए जाने वाले सभी धार्मिक दावे उसके दायरे में आते हैं। तब भी, कथित रूप से हिंदुओं के धार्मिक-विरोधियों यानी मुसलमानों और भाजपा के राजनीतिक विरोधियों, दोनों को ही हमले के निशाने पर रखने के लिए, राम मंदिर के मुद्दे की जैसी उपयोगिता है, वैसी इनमें से दूसरे किसी निर्माण की नहीं है।
इसीलिए, शाह के संबोधन में मुख्य जोर राम मंदिर के निर्माण के श्रेय की, अपने राजनीतिक विरोधियों को मंदिर विरोधी पाले में खड़ा करने वाली, दावेदारी पर ही था। सामान्यत: किसी धर्मनिरपेक्ष जनतांत्रिक व्यवस्था में, चुनाव के संदर्भ में इसे धर्म के चुनावी दुरुपयोग का मामला माना गया होता। लेकिन, मोदी राज में चुनाव आयोग को इस हद तक सरकार के अंगूठे के नीचे दबा लिया गया है कि अब चुनाव आयोग से खासतौर पर सत्ताधारी पार्टी के शीर्ष नेताओं के मामले में ऐसी किसी रोक-टोक की उम्मीद करना तो दूर रहा, आम तौर पर धार्मिक पहचानों के ऐसे राजनीतिक-चुनावी दुरुपयोग के खिलाफ आवाजें तक सुनायी देनी, अब करीब-करीब बंद ही हो गयी हैं।
बहरहाल, इस तरह नये साल के शुरू में ही अमित शाह ने भाजपा के फिर राम मंदिर की शरण में जाने का बाकायदा एलान कर दिया है। त्रिपुरा में, जहां यह एलान किया गया है, उत्तर-पूर्व के ही दो अन्य राज्यों के साथ, इस साल के शुरू में ही, वास्तव में फरवरी तक ही चुनाव होने हैं। दूसरे दो राज्य हैं, मेघालय तथा नगालैंड। उत्तर-पूर्व के इन राज्यों के संदर्भ में, जहां हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक गोलबंदी की संभावनाएं, त्रिपुरा को छोड़ दें, तो अन्य दोनों राज्यों में तो बहुत ही कम हैं, भाजपा का राम मंदिर के निर्माण को मोदी राज की पहचान कराने वाली उपलब्धि के रूप में दिखाने की कोशिश करना, उसकी हताशा को ही दिखाता है। मौजूदा संकट और खासतौर पर बढ़ती बेरोजगारी, मंंदी, असमानता तथा जनता के विशाल हिस्सों की अधिकारहीनता के संदर्भ में, मोदी सरकार आम लोगों को कोई उम्मीद देने में असमर्थ है। ऐसे में इन तीनों राज्यों में से त्रिपुरा में, जहां भाजपा एक आदिवासी अलगाववादी संगठन के साथ गठजोड़ में सत्ता में थी, फिर भी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की इस तरह की कोशिशें कुछ कारगर हो सकती हैं और इसीलिए वहीं से अमित शाह ने राम मंदिर के चुनावी दोहन के ताजा चक्र की शुरूआत भी कीे है। लेकिन, मेघालय तथा नागालैंड में तो उतनी संभावना भी नहीं हैं, जहां भाजपा पहले ही केंद्र सरकार तक पुल मुहैया कराने वाले जूनियर पार्टनर के तौर पर ही, क्षेत्रीय पार्टियों के नेतृत्ववाली गठबंधन सरकारों में शामिल की गयी है। यह और भी अर्थपूर्ण है कि ऐसे क्षेत्र में भी, इन कोशिशों के प्रभाव की सीमाओं को पहचानते हुए भी, संघ-भाजपा राम मंदिर के मुद्दे को ही दुहने की कोशिश करने का, सहारा लेने के लिए मजबूर हैं।
लेकिन, फरवरी में होने वाले तीन राज्यों के चुनाव से तो शुरूआत भर होनी है। इसके बाद, इसी साल के मध्य में यानी मई-जून में कर्नाटक में भाजपा के लिए और जाहिर है कि उसके विरोधियों के लिए भी, बहुत ही महत्वपूर्ण चुनाव होने हैं। और उसके बाद साल के आखिरी महीनों में मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना तथा मिजोरम में और भी भारी-भरकम चुनाव चक्र आने वाला है। भाजपा ने आम तौर पर इन सभी चुनावों में और खासतौर पर उत्तर-पूर्व में त्रिपुरा समेत, इनमें से शेष सभी राज्यों में, राम मंदिर निर्माण को अपना तुरुप का इक्का बनाकर, अपने चुनावी पत्ते खेलने का एलान कर दिया है। कहने की जरूरत नहीं है कि इस तुरुप का आजमाया जाना यह भी दिखाता है कि इस पूरे साल में होने वाले विधानसभाई चुनावों में, जिनके नतीजों से, 2024 के अप्रैल-मई तक होने वाले अगले आम चुनाव का वातावरण व स्वर तय हो जाने वाला है, संघ-भाजपा मोदी राज की कथित कामयाबियों के भरोसे से कम और नाकामी की हार की आशंकाओं से ही ज्यादा संचालित हैं। जाहिर है कि इस महत्वपूर्ण चुनावी वर्ष में वे अपने सारे हथियार आजमा लेना चाहते हैं, जिनमें राम मंदिर बनाने के दावे का कथित ब्रह्मास्त्र भी शामिल है।
जाहिर है कि एक जनवरी 2024 की राम मंदिर के उद्घाटन की तारीख तो खुद ही इसकी संकेतक है कि 2024 का चुनाव, मोदी की ‘‘राम मंदिर निर्माता’’ की तस्वीर को ही सबसे आगे रखकर लड़ा जाएगा। लद्दाख में सीमा पर चीन के साथ आसानी से सुलझते नजर नहीं आ रहे तनाव को देखते हुए, पश्चिमी सीमा पर पुलवामा कांड तथा उसके बाद हवाई सर्जिकल स्ट्राइक जैसा, राष्ट्रवादी भावनाएं भडक़ाने वाला कोई मुद्दा, इस बार चुनाव में उसे शायद ही उपलब्ध हो और ऐसे में मोदी की भाजपा, मस्जिद हटवाकर मंदिर बनवाने के श्रेय के, हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक गोलबंदी के हथियार के ही, सहारे रहने वाली है। अब यह काठ की हांडी कितनी बार चढ़ाई जा सकेगी, यह दूसरा ही सवाल है, जिसका जवाब फिलहाल भविष्य के गर्भ में ही छुपा है।
सम्प्रति – लेखक श्री राजेंद्र शर्मा प्रतिष्ठित पत्रकार और ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।