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छत्तीसगढ़ में सरकारी अस्पतालों के निजीकरण पर बवाल – डा.संजय शुक्ला

डा.संजय शुक्ला

छत्तीसगढ़ के 09 सरकारी अस्पतालों को निजी हाथों में सौंपने के फैसले पर इन दिनों भारी बवाल मचा हुआ है। विपक्षी राजनीतिक दलों के नुमांइदों ने इस फैसले पर कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा है कि इससे आम आदमी के इलाज का खर्च महंगा और पहुंच से बाहर हो जाएगा। दूसरी ओर सरकारी नुमांइदों की दलील है कि प्रदेश के अस्पतालों में विशेषज्ञ डाक्टरों की भारी कमी है और सरकार के तमाम जतन व प्रोत्साहन के बावजूद विशेषज्ञ डाक्टर कस्बाई तथा ग्रामीण क्षेत्रों में सेवा देने के लिए तैयार नहीं है फलस्वरूप यह कदम उठाया गया है।

बहरहाल छत्तीसगढ़ इकलौता राज्य नहीं है जहां सरकारी स्वास्थ्य केन्द्रों और सरकारी अस्पतालों को निजी हाथों में सौंपने का फैसला लिया जा रहा हो।कई राज्यों ने सरकारी अस्पतालों के निजीकरण की राह पहले ही पकड़ ली है।मोदी सरकार ने ‘‘अर्बन हेल्थ केयर’’ को निजी हांथों में देने का फैसला पहले ही ले लिया था। नीति आयोग और केन्द्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने शहरी भारत में गैर संचारी रोगों के इलाज के लिए निजी क्षेत्रों की भूमिका पर एक माडल अनुबंध तैयार किया है। इस प्रस्ताव के तहत जिला अस्पताल या शहरी स्वास्थ्य केन्द्रों की इमारतों को निजी अस्पतालों को 30 साल के लिए लीज पर दिए जाने तथा 50 या 100 बिस्तरों वाले अस्पतालों के लिए अत्यंत रियायती दर पर जमीन देने का प्रावधान निश्चित किया है।

दूसरी ओर मोदी सरकार द्वारा जारी राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 में भी सरकारी-निजी भागीदारी या पब्लिक-प्रायवेट पार्टनरशिप (पी.पी.पी.) माडल को बढ़ावा देने की वकालत की गयी है। किंतु यह माडल कई लिहाज से असफल रहा है, इस माडल पर चलने वाले कई निजी अस्पतालों में अधिक मुनाफे के लिए मरीजों का आर्थिक शोषण, गैर जरूरी जांच व सर्जरी करने तथा मरीजों को निःशुल्क या जेनेरिक दवाईयां नहीं मिलने के मामले प्रकाश में आये हैं। इन स्थितियों में सरकार को इन अस्पतालों को पी.पी.पी.माडल में चलाने के लिए सेवाभावी संस्थानों तथा गैर सरकारी संगठनों की सहभागिता बढ़ाने पर विचार करना चाहिए जो इन्हे नो प्राफिट-नो लास की तर्ज पर चला सके ताकि आम आदमी को राहत मिल सके।

बहरहाल देश में स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण पर चिंता जायज है क्योंकि आजादी के सात दशक बाद भी अब तक की सभी सरकारें सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं को मजबूत करने में विफल रही है। इसके पृष्ठभूमि में सरकार द्वारा इस अनुत्पादक क्षेत्र में ज्यादा धन मुहैया नहीं कराना है। आंकड़ों के अनुसार पिछले 17 सालों में सरकार का स्वास्थ्य बजट 2472 करोड़ से 48,878 करोड़ तक पहुंचा है जबकि इसी दौर में निजी स्वास्थ्य क्षेत्र का बजट 50 हजार करोड़ से साढ़े छह लाख करोड़ पहुंच गया है। निजी स्वास्थ्य क्षेत्र जहां अपने कमाई का 70 फीसदी हिस्सा अपने अस्पतालों के उन्नयन में खर्च कर रहे हैं वहीं सरकारी क्षेत्र इस दिशा में गंभीर नहीं है। देश में स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण पर भी चिंता जायज है क्योंकि देश की एक बड़ी आबादी आज संक्रामक बीमारियों के साथ-साथ गैर संक्रामक बीमारियों से जूझ रही है। ‘‘इंडिया हेल्थ आॅफ नेशन्स स्टेटस’’ के रिपोर्ट के मुताबिक देश में 1990 की तुलना में 2017 में जीवनशैली से जुड़ी यानि गैर संक्रामक रोगों जैसे मधुमेह, हृदयरोग और उच्च रक्तचाप के मामलों में दुगुनी बढ़ोतरी हुई है। एक आंकलन के अनुसार 2028 तक देश में इन रोगों से पीड़ितों की संख्या में भयावह वृद्धि होने की संभावना है। चिंताजनक स्थिति यह कि इस रोग के शिकंजे में देश के नई पीढ़ी आ रही है और जीवनशैली से जुड़े इन बीमारियों से अब ग्रामीण और गरीब तबका भी अछूता नहीं रहा है। वल्र्ड इकोनामिक फोरम के मुताबिक 2030 तक देश में 3.60 करोड़ मौतें सिर्फ गैर संक्रामक बीमारियों से होगी। इस लिहाज से देश के अस्पतालों में लगभग छह से सात लाख अतिरिक्त बिस्तरों की जरूरत होगी जिसके लिए 25 से 30 अरब डालर की दरकार होगी जो सरकार के बलबूते संभव नहीं है। इसीलिए सरकार भी स्वास्थ्य सेवाओं को पी.पी.पी. माडल पर चलाने के लिए आतुर हैं। खस्ताहाल और बीमार सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था के कारण देश के 70 फीसदी आबादी निजी अस्पतालों के शरण में जाने के लिए बाध्य हैं।

निजी स्वास्थ्य क्षेत्र भारत में सबसे मुनाफे वाला धंधा बन चुका है और देश में विकसित और विकासशील देशों से लगभग ढाई लाख मरीज इलाज के लिए भारत आ रहे हैं। ‘‘मेडिकल टूरिज्म’’ के नाम से पहचान बनाने वाले भारत में निजी स्वास्थ्य उद्योग लगभग 15 फीसदी वार्षिक वृद्धि दर से बढ़ रहा है जो देश के विकास दर से दुगुनी है। देश में इस समय निजी अस्पतालों का बाजार 100 अरब डालर का है जो 2020 तक 280 अरब डालर तक पहुंचने की उम्मीद है।परन्तु इस विकास का स्याह सच यह भी है कि देश की एक बड़ी आबादी इस पांच सितारा स्वास्थ्य सुविधाओं का उपभोग आर्थिक कारणों से नहीं कर पा रही है। इस लिहाज से शहरी, कस्बाई और ग्रामीण क्षेत्रों में संचालित स्वास्थ्य केन्द्रों को संसाधन युक्त करने की ज्यादा जरूरत है क्योंकि आम आदमी की पहुंच इन अस्पतालों में ही है। बहरहाल देश की बड़ी आबादी सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ेपन का शिकार है ऐसे स्थिति में सरकार को यह भी विचार करना होगा कि स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण से कहीं यह तबका और मुसीबत में न आए, क्योंकि किसी भी देश का सामाजिक और आर्थिक विकास शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे बुनियादी सुविधाओं पर ही निर्भर करता है।

 

सम्प्रति – लेखक डा.संजय शुक्ला शासकीय आयुर्वेद महाविद्यालय रायपुर में सहायक प्राध्यापक हैं।