खतरे की घंटी की गूंज तेज है।समाजवादी और कांग्रेस दोनों ही पार्टियों को इसने चौकन्ना किया है।समाजवादी पार्टी पहले ही सत्ता विरोधी रुझान को लेकर फिक्रमंद थी।पारिवारिक कलह ने बाकी कसर पूरी कर दी है।उधर चार महीनो से उ.प्र. को मथने की कांग्रेसी कोशिशें भी परवान चढ़ती नजर नहीं आ रही।राहुल की खाट पंचायतों और सन्देश यात्राओं के नतीजों को लेकर पार्टी उत्साहित नहीं है। पिछले 27 सालों से प्रदेश की सत्ता से वनवास झेल रही पार्टी को अहसास हो गया है,कि हाल फ़िलहाल इसके टूटने के आसार नहीं हैं।
प्रशांत किशोर की सेवाएं लेकर उ.प्र. में चुनाव अभियान शुरू करते समय कांग्रेस को शायद ही अपनी ताकत को लेकर ग़लतफ़हमी रही हो।शीला दीक्षित को ब्राह्मण चेहरे के तौर पर पेश करके पार्टी ने ब्राह्मण वोटों को अपनी ओर खींचने की रणनीति बनायीं थी।पार्टी को उम्मीद थी कि वह इतनी सीटें जीत लेगी कि किसी भी गैर भाजपाई सरकार के लिए उसकी मदद मजबूरी बन जाए।राहुल की महीने भर की भागदौड़ क्या कुछ बदल पाई?उत्तर नकारात्मक है।शीला दीक्षित सुर्खियां भी नहीं बटोर पाईं।उनकी खबरें सिर्फ उनकी वृद्धावस्था और बीमारियों को लेकर होती है।राहुल गांधी को उ.प्र. ने पहले भी काफी निराश किया है।उन्होंने फिर भी उम्मीद नहीं छोड़ी है और इसीलिए वे लगातार मेहनत कर रहे हैं।लेकिन पार्टी उन्हें पहले ही नाकाफी मान चुकी है।पार्टी का तुरुप मानी जाने वाली प्रियंका को प्रचार के लिए मैदान में उतारने की मांग या कोशिश उसी निराशा से बाहर निकलने की एक ओर कदम है।निजी बातचीत में कांग्रेसी कुबूल करते हैं कि पार्टी राहुल के अकेले भरोसे सत्ता में वापस नही आ सकती।कांग्रेसियों का वह धड़ा जिसके लिए पार्टी का आदि और अंत नेहरू गांधी परिवार है,उसके लिए प्रियंका आखिरी उम्मीद हैं,और वह अब उन्हें आजमा लेना चाहता है।पर अंदरखाने के आकलन इतने उत्साहप्रद नहीं हैं।प्रदेश की जमीनी राजनीति की समझ रखने वालो को पता है कि कांग्रेस की मौजूदा बदहाली में प्रियंका भी कोई जादू शायद ही कर पाएं।इस बीच प्रदेश में पार्टी को खड़ा करने की राहुल की कोशिशो की पैमाइश तो चुनाव नतीजों से पता चलती लेकिन इसके बहुत पहले ही 28 में से 9 विधायकों ने पार्टी से नाता तोड़कर विपरीत हवा के संकेत दे दिए।पार्टी के लिए सबसे बड़ा झटका खुद राहुल के निर्वाचन क्षेत्र अमेठी ने दिया जहाँ तिलोई के विधायक मो. मुस्लिम ने बसपा से नाता जोड़ लिया।सन्देश गया कि अब राहुल के अपने ही गढ़ में कांग्रेसियों को उनके भरोसे जीत की उम्मीद नहीं है।
इस बीच सपा की घरेलू कलह ने कांग्रेस के लिए थोड़ी राहत के रास्ते खोले हैं।सपा को अब अकेले नैय्या पार करने की उम्मीद नजर नहीं आ रही है।वह पुराने बिखरे जनता दल परिवार के तिनके संजोने की कोशिश में है।इससे उसे किसी बड़े लाभ की उम्मीद नहीं है, लेकिन इसका प्रतीकात्मक महत्व जरूर है।गठबंधन की संभावनाएं कांग्रेस के साथ भी तलाशी जा रही हैं।इस काम में प्रशांत किशोर दिलचस्पी दिखा रहे हैं।किशोर के लिए ये जरुरी भी है।
लोकसभा चुनाव में मोदी और फिर बिहार में नीतीश कुमार की सफलता ने उन्हें काफी शोहरत दी है।दिलचस्प है कि 2017 के उ.प्र. चुनाव की दौड़ में किशोर जिस घोड़े को दौड़ाना चाहते हैं, वह बेदम है।सपा से गठबंधन और कुछ सीटें मिल जाने पर पार्टी की इज्जत बच सकती है।खुद किशोर का आभामण्डल भी पूरी तरह क्षीण होने से बचेगा।हालांकि इससे तात्कालिक रूप में भले कांग्रेस को भले कुछ लाभ मिले लेकिन काडर और टूटेगा और निराशा बढ़ेगी।
वैसे उ.प्र.में वोट ट्रान्सफर करने की कूबत इकलौती पार्टी बसपा और उसकी नेता मायावती की है लेकिन गठबंधन जब बनते हैं या फिर संभावनाएं टटोली जाती हैं तो घटकों की ताकत तौली जाती है।2012 में सपा को 29.15% फीसद वोट और 224 सीटें मिली थीं।2014 के लोकसभा चुनाव में वोट घटकर22.20%फीसद रह गया।कांग्रेस को 2012 में 28 सीटें और11.63%वोट मिले थे।लोकसभा में वोट प्रतिशत घटकर 22.20 रह गया।बसपा को 2012 में 80 सीटें और 25.91%वोट मिले थे।2014 में वोट प्रतिशत 19.60रह गया।सीट शून्य थी।भाजपा को 2012 में47 सीटें और 15%वोट मिले थे।लोकसभा में भाजपा-राजग के वोट प्रतिशत में जबरदस्त उछाल आया था और यह 42.30प्रतिशत पर पहुँच गया।सपा-कांग्रेस में बात बनती है और दोनों एक दूसरे को अपने परंपरागत वोट दिल सके तो 2014 के बुरे दौर में भी उनका जोड़ बसपा के इस चुनाव के वोट से सात फीसद ज्यादा बनता है।सपा रालोद से भी ताल मेल बिठाने की कोशिश में है।अकेले न सही तो गठबंधन की सरकार और वह भी नहीं तो मुख्य विपक्ष का दर्जा पार्टी चाहती है।आजादी के बाद सबसे लंबे समय तक शासन करने वाली कांग्रेस की विडंवना है, कि उसे हर जगह खड़े होने के लिए बैसाखियों की तलाश है।बिहार के बाद उ.प्र की बारी है।भाजपा के लिए ये अनकूल स्थिति है।आमने सामने के चुनाव में वह दिल्ली और फिर बिहार में पिटी।उ.प्र. की त्रिकोणीय लड़ाई में वह फायदे में रहेगी।कितना दिलचस्प है कि गठबंधन को आकार देने की कोशिश भाजपा को रोकने के नाम पर है और भाजपा बसपा से सीधी लड़ाई की जगह विरोधी गठबंधन को मुस्कुराने का मौका मान रही है।
सम्प्रति- लेखक श्री राज खन्ना वरिष्ठ पत्रकार है।उनके समसामायिक राजनीतिक एवं अन्य मुद्दों पर आलेख राष्ट्रीय एवं प्रादेशिक समाचार पत्रों में छपते रहते है।