
अनुसूचित जाति-जनजाति अधिनियम में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर दलित समुदाय के हिंसक इजहार ने भारत को कांग्रेस मुक्त भारत का नारा देने वाली भारतीय जनता पार्टी के माथे पर चिंता की लकीरों को गहरा कर दिया है। भारत में दलित समुदाय के बीस प्रतिशत वोटों के अंक-शास्त्र की रणनीतिक व्यूह-रचनाओं में मौत के आंकड़े जुड़ने लगे हैं। अभी तक की सूचनाओं के अनुसार भारत बंद के दौरान आठ लोगों की मौत हो चुकी है और सैकड़ों घायल अस्पतालों में भरती हैं। दलित वोटों को कोई भी खोना नहीं चाहता है। शायद इसीलिए मोदी-सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दायर करके दलितों के आंदोलन को हलका करने के प्रयास शुरू कर दिए हैं, वहीं आंदोलनकारी दलित युवाओं को सलाम करके कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी ने दलितों को अपने घेरे में लेने की पहल को आगे बढ़ा दिया है।
2014 के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में सरकार के गठन में दलित-वोटों का महती योगदान रहा है। देश की कुल 543 लोकसभा सीटों में से 80 सीटें अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित हैं। 2014 के संसदीय चुनाव में इन 80 सीटों में आधे से ज्यादा याने 41 सीटें भाजपा ने जीती थीं। उत्तर प्रदेश की सभी 14 आरक्षित सीटों पर भाजपा को जीत हासिल हुई थी। अब मोदी-सरकार के प्रति दलित-समर्थन रिसने लगा है। केन्द्र में मोदी-सरकार के गठन के बाद गौ-संरक्षण के नाम पर होने वाली राजनीति का सबसे प्रतिकूल प्रभाव दलितों की आजीविका पर पड़ा है। पिछले चार वर्षो में खैरलांजी (महाराष्ट्र), रोहित वैमुला (हैदराबाद), ऊना (गुजरात) हमीरपुर (उत्तर प्रदेश), डेल्टा मेघवाल (राजस्थान) में घटित दलित उत्पीड़न की घटनाओं से जाहिर है कि दलितों को जितना संरक्षण दिया जाना था, मोदी-सरकार के गठन के बाद वह मुहैया नहीं कराया जा सका है। दलितों में यह धारणा बलवती हो रही है कि मौजूदा सरकार में उनकी सुनवाई के रास्ते बंद हो चुके हैं। सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने उनकी भावनाओं को उव्देलित करने के लिए आग में घी का काम किया है। कांग्रेस समेत विपक्षी दलों ने मोदी-सरकार पर आरोप लगाया है कि उसने इरादतन कोर्ट में दलितों का उचित पक्ष रखने में कोताही बरती है। उत्तर प्रदेश में गोरखपुर और फूलपुर के चुनाव में सपा-बसपा के गठबंधन ने पिछड़े और दलित तबके के लोगों को एहसास करा दिया है कि यह गठजोड़ दलितों की अनदेखी करने वाली भाजपा को सबक सिखाने में मददगार सिध्द हो सकता है।
उत्तर प्रदेश से सटे मध्यप्रदेश के ग्वालियर, भिण्ड और मुरैना में दलित आंदोलन के दौरान छह व्यक्तियों की मौतों से पता चलता है कि दलित राजनीति उन इलाकों में एक मर्तबा फिर करवट ले रही है, जहां वह हाशिए पर खिसक चुकी थी। मध्य प्रदेश में भीम-सेना और बजरंग दल का सीधा टकराव जातिगत समीकरणों में बढ़ते तनाव का प्रतीक है। मध्य प्रदेश के साथ राजस्था न में आंदोलन के दरम्यान हिंसा की घटनाएं नवम्बर 2018 में होने वाले विधानसभा चुनाव की दृष्टि से भाजपा के लिए परेशानियां बढ़ाने वाली सिध्द हो सकती है। मध्य प्रदेश और राजस्थान से पहले भाजपा को कर्नाटक में विधानसभा चुनाव का सामना करना है। वैसे भी कर्नाटक में दलित राजनीति के सवाल भाजपा के लिए कठिन रहे हैं।
बिहार और बंगाल में सांप्रदायिक दंगों के बाद मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, पंजाब, राजस्थान और झारखंड में दलित आंदोलन की घटनाएं इस बात के संकेत हैं कि 2018 में छह राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव और 2019 के लोकसभा चुनाव की राहें खूनी टकराव की काली गुफाओं की ओर मुड़ चुकी हैं। लोकतंत्र में राजनीतिक आंदोलनों की हिंसक घटनाओं में तब्दीली यह जाहिर करती है कि देश में मौजूद सभी राजनीतिक दल, चाहे वो सत्ता में काबिज हों अथवा विपक्ष में सक्रिय हों, अपने भविष्य को लेकर आश्वस्त नहीं हैं। केन्द्र में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार का आत्म-विश्वास डोलने लगा है, जबकि कांग्रेस सहित सपा, बसपा या लेफ्ट पार्टियां किसी भी कीमत पर राजनीति की इस जंग में सफल होना चाहती हैं। राजनीतिक दलों की महत्वकांक्षाओं में हताशा के ग्रहण की काली छाया अपशकुन बनकर लोकतंत्र की मर्यादाओं का चीर-हरण कर रही है।
सम्प्रति- लेखक श्री उमेश त्रिवेदी भोपाल एनं इन्दौर से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के प्रधान संपादक है। यह आलेख सुबह सवेरे के 03 अप्रैल के अंक में प्रकाशित हुआ है।वरिष्ठ पत्रकार श्री त्रिवेदी दैनिक नई दुनिया के समूह सम्पादक भी रह चुके है।
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