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गांधी-नेहरू परिवार को ‘एकाकी’ बनाने की रणनीति – उमेश त्रिवेदी

उमेश त्रिवेदी

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ऑफिसर ट्रेनिंग कैंप (ओटीसी) के तृतीय वर्ष संघ शिक्षा वर्ग के दीक्षान्त समारोह में पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी की शिरकत पिछले दस-पंद्रह सालों में घटित वो राजनीतिक घटनाक्रम है, जिसका फलक व्यापक और गहरा है। राजनीतिक विमर्श में यह मास्टर-स्ट्रोक इसलिए है कि शायद पहली मर्तबा भाजपा की बिसात को मजबूत करने की गरज से अपनी सांस्कृतिक और सामाजिक खोल छोड़ कर संघ ने अपने मंच पर राजनीति की पछुवा हवाओं को खुलकर खेलने की आजादी अथवा इजाजत दी है। कांग्रेस की राजनीति में खलल पैदा करने की भाजपाई रणनीति के तहत बजरिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने, प्रणव मुखर्जी जैसे कद्दावर नेता का इस्तेमाल कर, सांप्रदायिक राजनीति से परहेज करने वाले हर तबके को चौंका दिया है।

राजनीतिक नफे-नुकसान के तमाम आकलन की फिजूल बहस के दरम्यान फिलवक्त भी और भविष्य में भी कांग्रेस के पास इस ’पोलिटिकल-मूव’ का कोई जवाब नहीं है। इस विचार को लंबे समय तक पाला-पोसा और खंगाला गया है। कांग्रेस के वैचारिक-विमर्श को खंडित और भ्रमित करने के लिए भाजपा ने कांग्रेस के नए-पुराने नेताओं का उपयोग करने से कभी परहेज नहीं किया है। अभी तक कांग्रेस को कठघरे में खड़ा करने के लिए भाजपा महात्मा गांधी, सरदार वल्लभभाई पटेल, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस जैसे आजादी के इतिहास पुरुषों के नामों का इस्तेमाल कर रही थी। प्रणव मुखर्जी कांग्रेस के पहले ऐसे बड़े जीवित नेता हैं, जिनको अपने मंच पर आमंत्रित करके संघ और भाजपा ने अपनी राजनीतिक वैधता को पुख्ता किया है। जनता की अदालत में कांग्रेस को कठघरे में खड़ा करने के लिए भाजपा के तरकश में तर्क का ब्रह्मास्त्र हासिल कर लिया है। यह एपीसोड राजनीति के उस धारावाहिक का ’पीक’ है, जिसकी रहस्यात्मकता विचार-विमर्श में धूप-छांह जैसी अठखेलियां करके राजनीतिक परिवेश को स्थिर नहीं होने देंगी। कूट-पहेलियों का अभूतपूर्व क्रम जल्दी थमने वाला नहीं है।

घटना से जुड़े पहलुओं को यदि सिलसिलेवार पढ़ा जाए तो हमें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के उस भाषण पर गौर करना होगा, जो उन्होंने प्रधानमंत्री बनने के बाद 2014 में पहली बार लाल किले की प्राचीर से दिया था।  भाषण भाजपा की इस रणनीति की पुष्टि करता है कि कांग्रेस को पराभव के गर्त में ढकेलने के लिए उन कांग्रेसी-नेताओं के नामों का इस्तेमाल किया जाए, जिन्हें आसानी से पंडित जवाहरलाल नेहरू विरोधी राजनीतिक-थीम में नायक की तरह पेश किया जा सके। कांग्रेस में नेहरू-विरोधी थीम के दूसरे संस्करण में उन नेताओं को जोड़ा गया, जो वर्तमान परिदृश्य में गांधी-नेहरू परिवार याने इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी या राहुल गांधी के राजनीतिक वर्चस्व में हीनता-बोध का शिकार रहे हैं। प्रणव दा उनमें प्रमुख हैं।

प्रधानमंत्री के रूप में मोदी ने लाल किले से अपने पहले भाषण की शुरुआत ही महात्मा गांधी और सरदार पटेल के उल्लेख के साथ की थी। इसके अलावा उन्होंने चंद्रशेखर आजाद या डॉ. भीमराव आंबेडकर का नाम भी लिया था। 2013 में मुख्यमंत्री के रूप में आजादी की सालगिरह पर अपने भाषण में तत्कालीन प्रधानमंत्री के भाषण में सिर्फ नेहरू, इंदिरा और राजीव गांधी के नाम पर भी एतराज दर्ज कराते हुए कहा था कि इनके साथ ही सरदार पटेल और लालबहादुर शास्त्री जैसे नेताओं का जिक्र भी होना चाहिए था। नेहरू के प्रति मोदी का परहेज 2018 में लोकसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण के दौरान भी छलका, जबकि उन्होंने कहा कि यदि इस देश के प्रधानमंत्री सरदार पटेल होते तो इस वक्त देश को कश्मीर-समस्या से जूझने की जरूरत नहीं होती। सरदार पटेल के अलावा नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के नाम पर भी नेहरू-विरोधी अवधारणाओं को हवा देने में मोदी-सरकार कभी पीछे नहीं रही है। खुद प्रधानमंत्री मोदी ने नेताजी के परिजनों से निजी संवाद के जरिए यह जाहिर करने की कोशिशें कीं कि नेहरू अथवा कांग्रेस-सरकार के जमाने में भले ही नेताजी की अवहेलना होती रही हो, मोदी-सरकार के कार्यकाल में ऐसा नहीं होगा। पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री के योगदान को प्रस्तुत करने का अंदाज कुछ यही रहा है कि मोदी-सरकार अब उनकी उपेक्षा नहीं होने देगी।

यह राजनीतिक खिचड़ी एक दिन में नहीं पकी है। केन्द्र में सत्तारूढ़ होने के बाद पहले दिन से ही कांग्रेस की राजनीति में दुराव पैदा करना भाजपा की रणनीति का हिस्सा रहा है। कांग्रेस के लिए भाजपा के इस मनोवैज्ञानिक-युद्ध से निपटना आसान नहीं है। भाजपा इस बात को बखूबी समझती है कि नेहरू-गांधी परिवार को एकाकी बनाकर ही कांग्रेस की राजनीति को कमजोर किया जा सकता है। सवा सौ साल पुराने राजनीतिक दल में असंतुष्ट, अधपके और आधारहीन राजनीतिक पात्रों की कमी नहीं हो सकती, जिन्हें राजनीतिक-खिलौने के रूप में इस्तेमाल करना आसान है। राजनीतिक पौष्टिकता की दृष्टि से संघ की खिचड़ी जहां भाजपा के लिए स्वास्थ्यवर्धक है, वहीं कांग्रेस के हिस्से में वो कंकर आए हैं, जिन्हें निगलना अथवा उगलना कांग्रेस के लिए मुश्किल हो रहा है। भाजपा अथवा संघ का यह पोलिटिकल-मूव कांग्रेस और राहुल गांधी के लिए बड़ी चुनौती है।

 

सम्प्रति-लेखक श्री उमेश त्रिवेदी भोपाल एवं इन्दौर से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के प्रधान सम्पादक है।यह आलेख सुबह सवेरे के प्रधान सम्पादक है।यह आलेख सुबह सवेरे के 12 जून के अंक में प्रकाशित हुआ है।