मध्यप्रदेश में कांग्रेस में टिकट वितरण का फार्मूला सर्वे से हटकर नेताओं के चहेते कुछ लोगों को एडजस्ट करने के कारण लम्बा खिंचता जा रहा है। गुटबंदी में गहरे तक धंसी कांग्रेस में अब फिर विधायकों में अपने-अपने समर्थकों की संख्या बढ़ाने की होड़ उन नेताओं में लग गयी है जिनकी नजर अभी से मुख्यमंत्री की कुर्सी पर टिकी हुई है, हालांकि यह होगा तब जब बहुमत आयेगा। 2008 और 2013 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस इसीलिए चुनाव हार गयी थी क्योंकि टिकट वितरण का आधार अपने-अपने समर्थकों को ज्यादा से ज्यादा टिकट दिलाना था। प्रदेश अध्यक्ष बनते ही मुख्यमंत्री की कुर्सी ही नहीं बल्कि शपथग्रहण का समय भी नेताओं को सपने में दिखने लगता था। केवल अपनों को टिकट दिलाने में ही नहीं बल्कि दूसरे गुट का उम्मीदवार किसे विद्रोही बनाने से हार जाएगा, इसका भी इंतजाम इन दोनों चुनावों में हुआ था।
कांग्रेस में हमेशा मुख्यमंत्री बहुमत के आधार से नहीं बल्कि कभी कभी हाईकमान की मर्जी से तय होता आया है। 1984 के विधानसभा चुनाव में टिकट वितरण के समय तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष मोतीलाल वोरा ने किसी एक भी नेता को टिकट दिलाने की सिफारिश नहीं की थी, यहां तक कि उनके सबसे नजदीकी विजय पाटनी की जब टिकट कटी तब भी वे शान्त रहे। यहां तक की अर्जुनसिंह के दो उनके निकट सहयोगी और उनकी सरकार के काबिना मंत्री झुमकलाल भेड़िया और राजेन्द्र जैन के भी टिकट कट गए। विधायक दल में जब अर्जुनसिंह का इतना दबदबा हो गया तो कोई अन्य नेता चुनाव लड़ने सामने नहीं आया। अर्जुनसिंह विधायकों के प्रचंड बहुमत से मुख्यमंत्री बने लेकिन दूसरे ही दिन उन्हें पंजाब का राज्यपाल बना दिया गया और मोतीलाल वोरा को अर्जुन सिंह के सुझाव पर मुख्यमंत्री बना दिया गया तथा दिग्विजय सिंह को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाया गया। जिनका न कोई गुट था न कोई विधायक उनका समर्थक था, उन्हें तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने मुख्यमंत्री बना दिया।
वोरा के साथ वे विधायक और नेता अवश्य जुड़ गए जो अर्जुनसिंह विरोधी खेमे में थे, लेकिन वोराजी ने न तो उस समय अपना गुट बनाया और न कभी बाद में गुट बनाने की कोशिश की। कुछ साल बाद अर्जुनसिंह फिर मुख्यमंत्री बने और वोरा केन्द्र में मंत्री। जब अर्जुनसिंह के स्थान पर फिर विधायक दल का नेता चुनने का सवाल आया तो दिग्विजय सिंह और माधवराव सिंधिया के बीच विधायक दल के अंदर शक्ति प्रदर्शन हुआ और 248 सदस्यीय विधायक दल में सिंधिया को लगभग आधा सैकड़ा मत ही मिले। लेकिन भारी बहुमत के बावजूद भी दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री नहीं बन पाये और अंतत: फिर से वोरा के नाम पर ही अर्जुनसिंह ने सहमति दी।
बिना किसी गुट में रहे वोरा दो बार मुख्यमंत्री, एक बार केंद्रीय मंत्री, एक बार उत्तरप्रदेश के राज्यपाल और कांग्रेस महामंत्री, फिर राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष लम्बे समय तक रहे एवं अभी वे कांग्रेस के राष्ट्रीय महामंत्री हैं। टिकट की उधेड़बुन में उलझे बड़े नेता यदि यह समझ लें कि हाईकमान का विश्वास है तो बड़े से बड़ा पद मिल सकता है भले ही विधायक कोई साथ न हो। लेकिन यदि अभी भी केवल मुख्यमंत्री की कुर्सी ही सपने में नजर आती रही तो फिर कहीं वैसा ही न हो जाए जैसा पिछले दो चुनावों में हो चुका है।
सम्प्रति-लेखक श्री अरूण पटेल अमृत संदेश रायपुर के कार्यकारी सम्पादक एवं भोपाल के दैनिक सुबह सबेरे के प्रबन्ध सम्पादक है।