
(स्वतंत्रता दिवस पर विशेष)
1857 के विद्रोह को कई नामों से जाना जाता है, जिनमें भारतीय विद्रोह, सिपाही विद्रोह, 1857 का महान विद्रोह, भारतीय विद्रोह और भारतीय स्वतंत्रता का पहला युद्ध शामिल है। 19वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक, ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत के बड़े हिस्से को अपने नियंत्रण में ले लिया था। सन 1757 में प्लासी की की लड़ाई के सौ साल बाद, अन्यायी और दमनकारी ब्रिटिश सरकार के खिलाफ गुस्से ने एक विद्रोह का रूप ले लिया, जिसने भारत में ब्रिटिश शासन की नींव हिला दी। जहां ब्रिटिश इतिहासकारों ने इसे सिपाही विद्रोह कहा, वहीं भारतीय इतिहासकारों ने इसे 1857 का विद्रोह या भारतीय स्वतंत्रता का पहला संग्राम नाम दिया। 1857 के विद्रोह से पहले अठारहवीं शताब्दी के अंत से देश के विभिन्न हिस्सों में अशांति की एक श्रृंखला शुरू हो गई थी।
छत्तीसगढ़ की माटी में कई वीर सपूतों ने जन्म लिया है. यहां के वीरों ने आजादी की लड़ाई के लिए अपने खून की नदियां तक बहाई हैं. इसकी गवाही शहर की कई इमारतें और सड़कें दे रहीं हैं. इसी में से एक है राजधानी रायपुर के बीचों बीच स्थित पुलिस परेड ग्राउंड। छत्तीसगढ़ में भी भारत की तरह बहुत से जगह अंग्रेजों के विरुद्ध आवाज बुलंद हुए थे, जिसमें बहुत से स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने भाग लिया था, बहुत से स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने अपनी अमूल्य योगदान देश की आजादी में दिए है जिनको भुला पाना हमारे लिए नामुमकिन है, इनमें से एक थे ठाकुर हनुमान सिंह (Hanuman singh from chhattisgarh) इनके सेवाभाव और समर्पण को हम सबका नमन इन्ही लोगों के कारण ही हम सब आज स्वतंत्र जीवन व्यतीत कर रहे हैं इन स्वतंत्रता सेनानियों की हम हमेशा आभारी रहेंगे।
ठाकुर हनुमान सिंह के जन्म और मृत्यु के सम्बन्ध में कोई भी प्रामाणिक जानकारी नहीं मिलती किंतु हनुमान सिंह के सम्बन्ध में अंग्रेज अधिकारियों के द्वारा तत्कालीन ब्रिटिश सरकार के समक्ष प्रस्तुत प्रतिवेदन के अनुसार वे बैसवाड़ा के राजपूत थे और वर्ष 1858 ई. में उनकी आयु 35 वर्ष थी। अर्थात् उनका जन्म वर्ष 1823 ई. माना जा सकता है।
नागपुर का अस्थाई सैनिक दल जो रायपुर में स्थित था, उसकी तीसरी टुकड़ी में वीर हनुमान सिंह मैगजीन लश्कर के पद पर नियुक्त थे। लेफ्टिनेंट स्मिथ ने वीर हनुमान सिंह की कद काठी का विवरण निम्नानुसार दिया था। वह सुगठित कद का साफ और गोल चेहरे वाला बड़ी आंखें ऊंचा मस्तक छोटी गर्दन बड़ी और रोबदार मूछ वाला था तेज आवाज में बोलता था लेकिन शांत प्रकृति का था और चलते समय नीची निगाह रखता था और बैसवारे का रहने वाला था।
कैप्टन सिडवेल के नेतृत्व में नागपुर से 100 सैनिकों की अंग्रेजी पल्टन को छत्तीसगढ़ में विद्रोह दबाने के लिए रायपुर भेजा गया था। इसी पल्टन में बैसवारे के वीर हनुमान सिंह मैगजीन लश्कर के रूप में शामिल थे। छत्तीसगढ़ के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के महानायक पहाड़ी अंचल सोनाखान के जमींदर वीर नारायण सिंह को 10 दिसंबर 1857 को खुलेआम रायपुर के प्रमुख चौराहे पर फांसी दिया गया। वीर और छत्तीसगढ़ अंचल में महाविद्रोह को दबाने की चेष्टा अंग्रेज हुकूमत ने की थी।
अंग्रेजों ने यह मान लिया था कि अब छत्तीसगढ़ अंचल में विद्रोह नहीं होगा लेकिन उन्हें यह अंदाज नहीं था कि क्रांति की ज्वाला उनके अपने सैन्य शिविर में ही धधक रही है। वीर नारायण सिंह की शहादत पर वीर हनुमान सिंह का खून खौल उठा और बदला लेने के लिए ही उन्होंने 18 जनवरी 1858 की रात अपने दो साथियों की मदद से कैप्टन सिडवेल को तलवार से 9 वार करके मौत की नींद सुला दिया था।

कैप्टन स्मिथ के बयान से पता चलता है कि हनुमान सिंह ने छावनी में विद्रोह के दो दिन बाद ही 20 जनवरी, 1858 की रात डिप्टी कमिश्नर के बंगले पर भी हमला करने की कोशिश की थी। उस समय बंगले में क्षेत्र के कई प्रमुख वरिष्ठ अधिकारी सो रहे थे। इन अधिकारियों की सुरक्षा के लिए नियुक्त कैप्टन स्मिथ के ठीक समय पर जाग जाने से हनुमान सिंह को यहाँ से भागना पड़ा। अंग्रेज सरकार ने उनकी गिरफ्तारी के लिए 500 रुपए के नगद पुरस्कार की घोषणा की थी, पर गिरफ्तार नहीं किया जा सका। हनुमान सिंह के फरार होने की इस घटना के बाद उनका कोई विवरण प्राप्त नहीं होता। कैप्टन स्मिथ के अनुसार जिस प्रकार हनुमान सिंह ने डिप्टी कमिश्नर के बंगले पर साहसपूर्ण आक्रमण किया, यदि उसे अपने उद्देश्य में सफलता मिल जाती तो निश्चय ही अंग्रेजी हुकूमत के अधिकारियों का इस शहर से सफाया हो जाता।
सिडवेल को मारने के बाद वीर हनुमान सिंह ने सैन्य शिविर में घूम घूम कर बदला लेने का ऐलान किया और भारतीय सिपाहियों को विद्रोह में शामिल होने के लिए खुले रुप में साथ देने के लिए ललकारा लेकिन कोई दूसरा सिपाही उनकी जैसी हिम्मत नहीं जुटा पाया। सिडवेल की हत्या के बाद अंग्रेजी सेना के शिविर में हड़कंप मच गया। अंग्रेजी सेना ने हनुमान सिंह का साथ देने वाले दोनों सिपाहियों को पकड़ लिया लेकिन वीर हनुमान सिंह साथियों का साथ ना मिलने पर छत्तीसगढ़ अंचल के पहाड़ी जंगलों में छिप गए।
रायपुर में उस समय फौजी छावनी थी जिसे तीसरी रेगुलर रेजीमेंटश् का नाम दिया गया था। ठाकुर हनुमान सिंह इसी फौज में मैग्जीन लश्कर के पद पर नियुक्त थे। सन् 1857 में उनकी आयु 35 वर्ष की थी। विदेशी हुकूमत के प्रति घृणा और गुस्सा था। रायपुर में तृतीय रेजीमेंट का फौजी अफसर था सार्जेंट मेजर सिडवेल। दिनांक 18 जनवरी 1858 को रात्रि 7:30 बजे हनुमान सिंह अपने साथ दो सैनिकों को लेकर देशी पैदल सेना की थर्ड रेजीमेण्ट के सार्जेण्ट मेजर सिडवेल उस समय अपने कक्ष में अकेले बैठे आराम कर रहे थे। हनुमान सिंह कमरे में निर्भीकतापूर्वक घुस गए तथा तलवार से सिडवेल पर घातक प्रहार किये और उनकी हत्या कर दी।
हनुमान सिंह के साथ तोपखाने के सिपाही और कुछ अन्य सिपाही भी आये। उन्हीं को लेकर वह आयुधशाला की ओर बढ़े और उसकी रक्षा में नियुक्त हवलदार से चाबी छीन ली। बन्दूको में कारतूस भरे। दुर्भाग्यवश फौज के सभी सिपाही उसके आवाहन पर आगे नहीं आये। इसी बीच सिडवेल की हत्या का समाचार पूरी छावनी में फैल चुका था। लेफ्टिनेन्ट रैवट और लेफ्टिनेन्ट सी.एच.एच. लूसी स्थिति पर काबू पाने के लिये प्रयत्न करने लगे। हनुमान सिंह और उसके साथियों को चारों ओर से घेर लिया गया।इसके बाद वह छावनी पहुंचे। उन्होंने अन्य सिपाहियों को भी इस विद्रोह में सम्मिलित होने के लिए आमंत्रित किया। सभी सिपाहियों ने उनका साथ नहीं दिया। सिडबेल की हत्या का समाचार फैल चुका था और अंग्रेज अधिकारी सतर्क हो गए। लेफ्टिनेन्ट रैवट और लेफ्टिनेन्ट सी.एच.एच. लूसी स्थिति पर काबू पाने के लिये प्रयत्न करने लगे। हनुमान सिंह और उसके साथियों को चारों ओर से घेर लिया गया।
हनुमान सिंह और उनके साथी 6-7 घंटे तक अंग्रेजों का डटकर मुकाबला करते रहे। इन 17 शहीदों में सभी जाति और धर्म के लोग थे, जिनके नाम हैं:- बल्ली दुबे (सिपाही), लल्ला सिंह (सिपाही), बुद्धु (सिपाही),पन्नालाल (सिपाही), शिव गोविंद (सिपाही) और देवीदीन (सिपाही), मातादीन (सिपाही), ठाकुर सिंह (सिपाही), अकबर हुसैन (सिपाही), दुर्गाप्रसाद (सिपाही), नाजर मोहम्मद (सिपाही), परमानंद (सिपाही), शोभाराम (सिपाही), गाजी खान (हवलदार), अब्दुल हयात (गोलंदाज), मुल्लू (गोलंदाज), शिवरी नारायण (गोलंदाज) मौका देखकर हनुमान सिंह भाग निकले लेकिन उनके 17 साथी अंग्रेजों द्वारा गिरफ्तार कर लिए गए। इन पर मुकदमा चलाया गया और मृत्युदण्ड दिया गया 22 जनवरी, 1858 को सभी सिपाहियों की उपस्थिति में इन्हें फाँसी पर लटका दिया गया।
सिडवेल की हत्या के बाद भी वीर हनुमान सिंह का अंग्रेजों से बदला लेने का जज्बा कम नहीं हुआ। 2 दिन बाद 20 जनवरी 1858 की आधी रात को वीर हनुमान सिंह तलवार लेकर अकेले ही शेर की मांद में शेर के शिकार का जज्बा रखते हुए रायपुर के डिप्टी कमिश्नर लेफ्टिनेंट चार्ल्स इलियट की हत्या के इरादे से उसके बंगले में घुसे और इलियट जिस कमरे में सो रहे थे, उसका दरवाजा तोड़ने का प्रयास किया लेकिन दरवाजे के मजबूत होने से प्रयास असफल रहा। इसके बाद अपनी खून की प्यासी तलवार के साथ वीर हनुमान सिंह छत्तीसगढ़ के जंगलों और पहाड़ों में गुम हो गए। उसके बाद उनका
कोई भी पता नहीं चला। चार्ल्स इलियट के आदेश पर ही वीर नारायण सिंह को रायपुर के चौराहे पर तोपों से उड़ा दिया गया था। इसीलिए वीर हनुमान सिंह इलियट को भी मार डालना चाहते थे, लेकिन उनके मजबूत इरादों पर एलियट के बंगले के मजबूत दरवाजों ने पानी फेर दिया।
अंग्रेज हुकूमत ने उनको पकड़ने के लिए हजारों जासूसों और गुप्तचरों का जाल बिछाया। रुपए 500 का इनाम भी घोषित किया (यह आज के 5 लाख रुपए से ज्यादा ही है) लेकिन अंग्रेज सेना वीर हनुमान सिंह को पकड़ने में कभी भी कामयाब नहीं हो सकी। बैसवारे के महानायक राना बेनी माधव बक्श सिंह की तरह ही वीर हनुमान सिंह भी अंग्रेजों के हत्थे नहीं चढ़े। राना बेनी माधव की तरह बाकी का जीवन उन्होंने जंगलों-पहाड़ों में ही गुजार कर जीवन लीला पूरी की। रायपुर के डिप्टी कमिश्नर लेफ्टिनेंट चार्ल्स इलियट के साथ उस रात बंगले में ही सोए हुए लेफ्टिनेंट स्मिथ ने उस रात के भयानक मंजर के बारे में लिखा भी-“यदि उस रात हम लोग जगाए ना गए होते तो लेफ्टिनेंट इलियट और मैं तो सोए सोए ही काट डाले गए होते और बंगले के अंदर अन्य निवासियों का भी यही हाल हुआ होता।”
छत्तीसगढ का “मंगल पाण्डे”
हनुमान सिंह भारत के एक स्वतंत्रता सेनानी थे जिनको (chhattisgarh’s mangal pandey) ‘छत्तीसगढ का मंगल पाण्डे’ कहा जाता है। 18 जनवरी 1858 को उन्होने सार्जेंट मेजर सिडवेल की हत्या कर दी थी जो रायपुर के तृतीय रेजीमेंट का फौजी अफसर था।
रायपुर का पुलिस परेड ग्राउंड थी अंग्रेजी सेना की छावनी:-
छत्तीसगढ़ की राजधानी मे स्थित ऐतिहासिक पुलिस परेड मैदान आजादी की लड़ाई के लिए विख्यात है। इसी मैदान में छत्तीसगढ़ में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 की लड़ाई लड़ी गई। इतिहासकार डा. रमेंद्रनाथ मिश्र ने बताया कि छत्तीसगढ़ में अंग्रेज 1854 में पहुंचे। पुलिस परेड ग्राउंड को अंग्रेजी सेना की छावनी बनाया गया था। सैकड़ों अंग्रेजी सेना घुड़सवार, गनमैन समेत अन्य सैनिकों के दल रहा करते थे। तब छत्तीसगढ़ के क्रांतिकारियों ने 1857 में अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ बिंगुल फूंक दिया। इसी मैदान में 18 जनवरी 1858 को हनुमान सिंह अपने 17 साथियों के साथ अंग्रेजों से लोहा लेने के लिए प्लानिंग तैयार की। जैसे ही अंग्रेज अधिकारियों को देखते ही खूनी हुंकार भरी।
छत्तीसगढ़ में 1857 के विद्रोह की विफलता का कारण:–
चूँकि भारतीय की प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की शुरुआत सबसे पहले मेरठ से हुई थी, बाद में यह भारत के अनेकों हिस्सों में फैल गई लेकिन उस समय संचार की एक बड़ी समस्या थी, इसलिए यह क्रांति की विफलता का एक मुख्य कारण है।
कोई खास नेता नहीं था, केंद्रीय नेतृत्व का अभाव भी एक कारण था और पूरे भारत में इसका व्यापक प्रसार नहीं हो पाना भी एक कारण था।
चूंकि भारत अंग्रेजों का गुलाम बन गया था इसलिए उनके पास उनसे लड़ने के लिए उतना पैसा और हथियार भी नहीं थे। हालाँकि अंग्रेजों के पास बहुत उन्नत प्रकार के हथियार थे और वित्त भी अच्छा था। विद्रोहियों में योजना का अभाव था। वीर हनुमान सिंह छत्तीसगढ़ में सन 1857 की क्रांति के अग्रणी नायकों में गिने-माने जाते हैं। इतिहासकार मानते हैं कि अगर अंग्रेजी सेना के भारतीय सिपाहियों ने साथ दिया होता तो वीर हनुमान सिंह की बहादुरी से छत्तीसगढ़ अंचल में एक बार फिर क्रांति की ज्वाला भड़क उठती। अंग्रेजों को छत्तीसगढ़ छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ता।
1857 की क्रांति के इस गुमनाम योद्धा ने छत्तीसगढ़ अंचल में अकेले ही क्रांति की लौ जलाकर अपना और बैसवारे का नाम इतिहास में हमेशा-हमेशा के लिए अमर कर दिया। समय रहते समाज और सरकार की ओर से वीर हनुमान सिंह के इतिहास को ढूंढने का उद्यम किया जाता, तो आज वह अपने बैसवारे में ही गुमनाम न होते। होना तो यह चाहिए था कि 18 जनवरी (अंग्रेजी सैन्य अफसर सिडवेल की हत्या की तारीख) को उत्तर प्रदेश और छत्तीसगढ़ अंचल में शौर्य दिवस के रूप में मनाया जाता।
सम्प्रति- लेखक श्री धनंजय राठौर छत्तीसगढ़ जनसम्पर्क विभाग में संयुक्त संचालक हैं।