
महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव के बाद सरकार बनाने के लिए चले घटनाक्रम के कई निहितार्थ है। जहाँ एक तरफ इस घटनाक्रम ने भाजपा का सत्ता लोलुप चेहरा सबके सामने ला दिया है, वहीं मोदी-शाह जोड़ी के मद की भी शुरूआत कर दी। वैसे भी महाराष्ट्र और हरियाणा के विधानसभा चुनाव में भाजपा का मत-प्रतिशत तेजी से गिरा था। चूँकि महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनाव कश्मीर सेे धारा 370 हटाने के बाद के पहले चुनाव थे एवं श्री नरेन्द्र मोदी और अमित शाह ने अपना चुनाव अभियान इन्ही मुद्दों पर केन्द्रित किया था तथा यह उम्मीद पाली थी कि इन दोनों राज्यों में हिन्दू लहर चलेगी तथा भाजपा न केवल जीतेगी बल्कि इस लहर में भाजपा विरोधियों का सफाया हो जाएगा। मोदी-शाह की जोड़ी व भाजपा का यह आंकलन भी गलत था और भाजपा का मत-प्रतिशत 2019 के लोकसभा तथा पिछले विधानसभा के चुनाव की तुलना में काफी गिरा है। जनमत के इस निर्णय की उपेक्षा कर भाजपा ने केन्द्रीय सत्ता के दबाव और अहंकार से अपनी पार्टी की हार का विश्लेषण किए बगैर निरंकुश व अहंकारी प्रदर्शन किया। श्री मोदी ने चुनाव के तत्काल बाद ही संख्यात्मक कमी के बावजूद भी यह बयान दिया था कि ‘‘हरियाणा में श्री खट्टर और महाराष्ट्र में श्री फडनवीस 5 साल तक बढ़िया सरकार चलाएंगे’’। प्रधानमंत्री के बयान को राज्यपालों ने नीति निर्णय संदेशों के रूप में लिया और न केवल भाजपा की सरकारों बल्कि इन्हीं व्यक्तियों के नेतृत्व वाली सरकारों के गठन का निर्देश माना।
हरियाणा में श्री दुष्यंत चैटाला जो कांग्रेस और भाजपा दोनों दलों के खिलाफ लड़े थे तथा जिनके सामने जातीय नेतृत्व को बचाने या हथियाने का लक्ष्य था फलस्वरूप भाजपा के साथ हाथ मिलाकर सरकार बनाई और इसी घमण्ड तथा मद में भाजपा ने यह आंकलन किया कि अंततः शिवसेना हथियार डालकर उसके साथ ही सरकार में रहेगी। परन्तु पिछले 5 वर्षाें में और चुनाव अभियान के दौरान भाजपा नेतृत्व के बयानों ने इतनी कटुता पैदा कर दी थी कि शिवसेना बराबर-बराबर कार्यकाल के बगैर भाजपा के साथ सरकार बनाने को तैयार नहीं हुई। शिवसेना का उद्देश्य सरकार बनाने का कम बल्कि भाजपा का दर्प मर्दन तथा विशेषतः देवेन्द्र फडनवीस का मद चूर करना था। भाजपा की दलीय गुटबाजी की भी भूमिका महत्वपूर्ण थी क्योंकि जिस प्रकार मोदी- शाह की जोड़ी ने श्री नितिन गडकरी को राजनीतिक कोने में धकेला था और श्री देवेन्द्र फडनवीस को उनके मुकाबले खड़ा किया था वह भी एक कारण है। चूंकि प्रधानमंत्री ने एक अलोकतांन्त्रिक बयान देकर मुख्यमंत्री पद के प्रत्याशी का नाम तय कर दिया तथा गडकरी को जो तुलनात्मक रूप से ज्यादा स्वीकार्य थे को खेल से बाहर कर दिया, उसने भी शिवसेना को मजबूती दी। चूंकि पिछले ढाई दशक से शिवसेना और भाजपा गठबंधन बनाकर हिन्दुत्व के दाव पर मिलकर चुनाव लड़ रही थी। अतः भाजपा को और देश के बहुत सारे लोगों को जिसमें मैं स्वतः भी शामिल हूं, शिवसेना का विरोध केवल सौदेबाजी का खेल लगता था। परन्तु शिवसेना इस सीमा तक विद्रोही हो चुकी, यह कल्पना नहीं थी। कांग्रेस और शिवसेना कि भूमिका विपरीत ध्रुवों के समान रही है। स्व. बाल ठाकरे ने शिवसेना की शुरूआत ‘‘आमची-मुंबई, मराठी-मुंबई’’ से की थी जो कालांतर में बदलकर मुसलमान विरोधी राजनीति का केन्द्र बन गई। यहाँ तक कि जब अयोध्या में मस्जिद गिरायी गई तब भाजपा के सभी नेताओं ने जहाँ अपना बचाव किया और अखबार से लेकर अदालत तक यह सफाई दी कि मस्जिद हमने नहीं गिराई तब एक मात्र स्व. बाल ठाकरे ही थे जिन्होंने खुलकर मस्जिद गिराने की जिम्मेवारी स्वीकार की। बाल ठाकरे हिन्दू कट्टरपंथ और अपराधियों की गेंग के प्रिय नेता थे तथा उनका अहम इतना शीर्ष पर था कि वे अपने निवास स्थान ‘‘मातोश्री’’ से केवल सभा करने को ही बाहर निकलते थे अन्यथा सभी लोग यहाँ तक कि तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व. अटल बिहारी वाजपेयी गृह मंत्री अडवानी उनसे मिलने मातोश्री ही जाते थे। परन्तु मोदी-शाह की जोड़ी ने ठाकरे परिवार के इस अहंकार को भी नहीं माना तथा पिछले 5 वर्षाें से लेकर अभी तक केवल दूतों के माध्यम से ही राजनीति करते रहे। दूसरी तरफ श्री शरद पंवार जो शिवसेना के दूसरे जनक है शिवसेना के मर्म और कर्म को बेहतर समझते है। स्व. बाल ठाकरे को उत्तर भारतियों और हिन्दुओं का नेता बनाने में बड़ी भूमिका शरद पवार की ही थी और उनके मुख्य मंत्रित्व काल में ही शिवसेना और बाल ठाकरे का इसी प्रकार उदय हुआ था जिस प्रकार स्व. मिंडर वाले का उदय पंजाब में अकाली को कमजोर करने के लिए स्व. इंदिरा गांधी के कार्यकाल में 1980 में हुआ था। श्री शरद पवार भारतीय राजनीति के ऐसे व्यक्ति है जो धन और हथकंडे दोनों में लगभग सर्वश्रेष्ठ है। वे इतने लचीले भी है कि न वे किसी के खिलाफ कोई लकीर खींचते है और न किसी दूसरे को खींचने देते हैं। महाराष्ट्र और दिल्ली की सभी सरकारों में राजनैतिक व्यापारिक और आर्थिक हित सुरक्षित रखते है तथा वे मराठाओं के शीर्ष क्षत्रप के रूप में सुरक्षित रहते है। उनके सामने या उनके जो सम्भावित लक्ष्य हैं उनमें से कुछ यह हो सकते है।
- अपने परिवार को भ्रष्टाचार के आरोपों से बचाना।
- अपनी बेटी को नेता के रूप में स्थापित करना।
- कमजोर भाजपा पराश्रित शिवसेना पिछलग्गू कांग्रेस बनाना।
- उनके नियंत्रण वाली मजबूर सरकार बनाना।
- देश की भावी राजनीति में फिर से एक बार तीसरे मोर्चे के कुशल नेतृत्व की मजबूत भूमिका में स्थापित होना।
मेरी राय में उन्होंने ये 5 लक्ष्य हासिल कर लिए है। भतीजे अजीत पवार के आर्थिक अपराध के मामले वापस होने से अब भाजपा भी उन पर आरोप नहीं लगा सकती। जबकि विधानसभा चुनाव अभियान में वे भाजपा के सर्वाधिक निशाने पर थे। उनकी बेटी ने उपयुक्त स्थान पा लिया है और अब शरद पंवार आगामी लोकसभा चुनाव में देश में तीसरे मोर्चे के स्वीकार्य दावेदार बन सकते है जिनका समर्थन आन्ध्र, तेलंगाना, तमिल, नए केरल, बंगाल, दिल्ली, उ.प्र., बिहार, आदि सुबाई क्षत्रप कर सकते है और कांग्रेस को उनके पीछे चलने की लाचारी हो सकती है। शिवसेना अब महाराष्ट्र के बाहर, भा.ज.पा. के लिये चुनौती नहीं तो असुविधा तो बन ही जायेगी।
मोदी शाह जोड़ी के सत्ता के मद और हठ ने उनकी आँखों पर ऐसी पट्टी बाँधी थी कि वे वस्तु स्थिति का आंकलन करना तो दूर उन सम्भावित घटनाओं की कल्पना भी नहीं कर सके। उन्होंने अजीत पंवार को लेकर सत्ता बनाने के खेल में न केवल अपना चेहरा ही काला कर लिया बल्कि राज्यपाल और राष्ट्रपति को भी कटघरे में खड़ा कर दिया। उनका सत्ता लोलुप-लोकतंत्र विरोधी और संवैधानिक संस्थाओं को दास बनाने वाला खेल देश के सामने आ गया। राज्यपाल रात साढ़े तीन बजे चोरो की भांति राष्ट्रपति शासन हटाने की माँग करते है। राष्ट्रपति उठकर बगैर मंत्री परिषद की स्वीकृति के संविधान की धारा 12 का इस्तेमाल करते हुए राष्ट्रपति शासन हटा लेते है और सुबह में सरकार बन जाती है। पुरानी कहावत है कि ‘‘रात के तीसरे पहर में दो ही लोग सक्रिय होते है एक चोर दूसरे व्यभिचारी’’। महाराष्ट्र के प्रकरण में यही हुआ। राज्यपाल राष्ट्रपति जनता की नज़र में चोर हो गए तथा भाजपा सिद्धान्तहीन समझौता करने वाली राजनैतिक व्यभिचारी। अब भले ही भाजपा के लोग मोदी और शाह का चेहरा बचाने के लिए यह तर्क गढ़े कि उन्हें राज्य शाखा ने धोखे में रखा या राज्यपाल की गलती है। परन्तु राज्यपाल और भाजपा की राज्य इकाई तो केवल बली का बकरा है। देश का आम इंसान मोदी शाह को गुनहगार मान रहा है।
महाराष्ट्र सरकार कितने दिन चलेगी कैसी चलेगी जैसे प्रश्न अब कुछ समय के लिए भाजपा की अवसरवादिता और सत्ता के खेल में नीचे दब चुके है। नागपुर और संघ का चेहरा भी लगभग बेनकाब हो चुका है। सत्ता और पैसे के लिए संघ अब किसी भी अनैतिकता का उसी प्रकार मूक समर्थन कर सकती है जिस प्रकार भीष्म पितामह ने द्रोपदी के चीर हरण पर किया था। लोकतंत्र के चीरहरण का भाजपा का प्रयास और संघ के भीष्म की भूमिका ने उन्हें कौरव सेना का मुखिया बना दिया है।
हमारा मीडिया इतना सत्ता दास है वह भी मुंबई घटनाक्रम ने स्पष्ट कर दिया है। मीडिया ने रातो रात अमित शाह को पहनाए गए ‘‘चाणक्य के ताज’’ को उतार कर शरद पंवार को पहना दिया। शायद पक्ष बदलने में मीडिया राजनेताओं से कम नहीं है। मीडिया की साख भी संदिग्ध हो चुकी है।
यह सुखद है कि 26 नवम्बर संविधान दिवस के दिन संविधान ने भारतीय लोकतंत्र को बचा लिया। कुछ भाजपा के मित्र जो कल तक भाजपा की अनैतिकता को युगधर्म बता रहे थे अब विषय बदल रहे है। पूछ रहे है कि इसमें लोकतंत्र बचाने में संविधान की क्या भूमिका है? वे यह भूल गए कि संविधान ने ही सरकार बनाने के लिए बहुमत का मापदंड तय किया है और उस बहुमत के प्रति राज्यपाल या राष्ट्रपति के द्वारा पर्याप्त आधार होने के बाद भी सरकार बनाने के निमंत्रण का प्रावधान किया है। एक चिट्ठी से सरकार नहीं बन सकती बल्कि बहुमत का ठोस आधार चाहिए यह संविधान की व्याख्या है और इन अंध भक्तों को समझना चाहिए कि जब 26 नवम्बर को प्रधानमंत्री श्री मोदी संविधान दिवस पर भाषण कर रहे थे तथा उनकी पार्टी के लोगों को निर्देश था कि वह श्री मोदी का भाषण सुनने के लिए सार्वजनिक आयोजन करें जैसे कि पिछले कुछ वर्षाें में किया जाता रहा है तो इस बार आम श्रोता तो नहीं ही थे बल्कि अधिकांश भगवाधारी कार्यकर्ता भी नदारद थे और माहौल मायूसी का था। मुंबई घटनाक्रम ने महाराष्ट्र में न केवल शिवसेना की सरकार बनवायी है बल्कि भाजपा के और मोदी-शाह की जोड़ी के गिरावट का संकेत भी दिया है।
सम्प्रति- लेखक रघु ठाकुर देश के जाने माने समाजवादी चिन्तक एवं समाजवादी नेता स्वं राम मनोहर लोहिया के अनुयायी है।
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