गुजरात के गिर जिले के ऊना में दलितों के साथ मारपीट की घटना को डेढ़ माह से अधिक हो चुका है। इस घटना के बाद समूचे देश में दलितों ने आक्रमक भाषा में व तेवरो के साथ प्रतिक्रिया व्यक्त की तथा सड़कों पर निकलें। उनकी यह प्रतिक्रिया स्वाभाविक है और जरुरी भी। तथा इस आक्रमकता के पीछे छिपी पीड़ा को भी नकारना संभव नही है। देश के संवेदनशील और समता के विचार वाले लोगो ने भी इस घटना पर प्रतिक्रिया व्यक्त की है और इसकी निन्दा की है। इस एक माह के अन्तराल में पूरा प्रकरण सड़क से लेकर संसद तक चर्चित हुआ और अब सदैव के समान अपने आप पीछे चला गया तथा अन्य मुद्दे मीडिया में और देश में चर्चा में आ गये।
11 जुलाई जैसी घटनायें और अनुसूचित जाति व अनुसूचित जन जाति के साथ भेदभाव की घटनाये देश के दूसरे इलाको घटित होती रही है। हांलाकि यह विचित्र है और आश्चर्यजनक भी जब ऐसी कोई निंदनीय घटना गुजरात में घटती है तो उसकी चर्चा प्रचार तंत्र में और एक राजनैतिक हल्के में कुछ ज्यादा ही होती है। लिहाजा उन घटनाओं के जो देश के अन्य सूबो में घटती है यथा:-
1. भाजपा अध्यक्ष श्री अमित शाह ने उज्जैन में सिंहस्थ के समय समरसता स्नान का ऐलान किया था तथा एक दलित परिवार में जन्मे महामण्डलेश्वर के अखाड़े से यह कार्यक्रम शुरु होना था, परन्तु इसका तीखा विरोध सोशल मीडिया, मीडिया और उच्च जाति के लोगो व साधुओं के द्वारा हुआ तथा इस दबाव में या रणनीति के तौर पर इस समरसता स्नान को स्थगित कर दिया गया। तथा उसे सहभोज के रुप में परिवर्तित कर दिया गया। आमतौर पर ऐसा तर्क दिया जाता है कि साधु-संतो की कोई जाति नही होती। परन्तु किसी ने भी यह प्रश्न नही पूछा कि जब जाति नही होती तो समरसता स्नान से बैचेनी क्यों? यह भी नही पूछा कि इतने वर्षो तक दलितों के महामंडलेश्वर का अखाड़ा क्यों नही लगा था? मैं यह नही मानता हॅू कि इस समरसता स्नान से देश में कोई सामाजिक क्रांति हो जाती परन्तु इस घटना पर हुई प्रतिक्रिया जातिवाद से प्रेरित है।
श्री अमित शाह व भाजपा ने दोनो प्रकार से राजनैतिक लाभ लिया एक तरफ तो यह सिद्व करके कि वे दलितो के कितने बड़े हितचिंतक है और दूसरी तरफ सवर्णों को यह संदेश देकर कि हम तो अंतिम आदेश आपका ही मानेगें।
2. 10 अगस्त 2016 को मुरैना जिले के एक गढ़ी पाराशर गांव में एक दलित जाति के व्यक्ति को गांव के शमशान घाट पर अपनी पत्नी को जलाने नही दिया गया। जब वह अनुरोध करके थक गया तो उसे अपने घर के सामने ही अपनी पत्नी की लाश को जलाने को बेवश होना पड़ा। जब कि गांव में तीन शमशान घाट है और तीनों पर दंबगो का कब्जा है उसके बावजूद भी समाज व्यवस्था की यह कट्टरता चिंताजनक है। परन्तु इस घटना पर अभी तक न सोशल मीडिया में न राजनैतिक तौर पर कोई तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त हुई। क्या यह घटना पूर्व की घटना से कम विषमता वाली है? जिसमें एक व्यक्ति अपनी मृत पत्नी की लाश को जलाने के लिये सार्वजनिक स्थान का उपयोग न कर सकें। जो व्यक्ति अपनी पत्नी की लाश को अहमदाबाद से लेकर मुरैना आता है और उसकी इन संवेदनाओं को भी जाति व्यवस्था समझने को तैयार नही है। यहां तक कि कलेक्टर व पुलिस अधीक्षक इस घटना के बाद जब गांव का दौरा करते है तो खुद कुर्सियों पर बैठ कर बात करते है व पीड़ितो को नीचे बैठाते है। हांलाकि उन्हें पीड़ित के घर जाकर संवेदना व्यक्त करना चाहिये थी यही इस मौके की मान्य परंपरा है।
3.अभी कुछ दिनों पूर्व शिवपुरी जिले के एक गांव में बाजा बजाने से इन्कार करने पर वहां के पिछड़े वर्ग के दंबग लोगों ने मार पीट की। इन बसौर समाज के लोगो ने ढोल बजाने से स्थायी इन्कार नही किया था उनका यह व्यापार है। परन्तु जिस समय उन्हें ढोल बजाने बुलाया गया था तब उनके घर मेहमान आये हुये थे। तो यही उनका गुनाह बन गया। परन्तु इसका भी प्रतिरोध देश में लगभग नही हुआ, बल्कि दलित संगठनो और क्रान्तिकारी दलों द्वारा भी इसे चुपचाप टाल दिया गया। ऐसी ही घटनायें म.प्र. के मुरैना जिला पुरवास कलां में हुई थी जहां दलित महिला संरपंच को झण्डा नही फहराने दिया गया। इन घटनाओं से कई बार ऐसा ही प्रतीत होता है कि कहीं दलितो के ऊपर होने वाले अन्याय व अत्याचार का विरोध केवल राजनैतिक आधार से तो नही होता? और अगर दलित संगठन भी केवल मीडिया व राजनीति के प्रवाह में बह कर केवल नाम छपा कर शहीद होने वाले संगठन की भूमिका अदा करेगें तो यह दुःखद ही होगा। हांलाकि गुजरात की ऊना की घटना के बाद श्री नरेन्द्र मोदी ने अपने राजनैतिक लक्ष्य हासिल कर लिये है।:-
1.दलितो को मारने की बजाय मुझे गोलीमार दो जैसा फिल्मी डायलाग बोलकर उन्होंने देश के आम दलित को बगैर कुछ करे उनका हिमायती सिद्व कर लिया है।
2.संसद में यह मुद्दा बहुत प्रभावी ढंग से नही उठाया गया बल्कि थोड़ी बहुत शाब्दिक व राजनैतिक आधार पर दिखावटी चर्चा हुई। यह भी विचित्र है कि हिन्दुस्तान की संसद में इस प्रकार की घटनाओं पर चर्चा नही होती है।यह सूचनाये तो पहले भी मीडिया के माध्यम से आम लोगों तक पहॅुची केवल सूचना का आदान प्रदान होता है चर्चा से तात्पर्य संवाद, समीक्षा व निराकरण के उपाय। संसद में पक्ष-विपक्ष राजनैतिक चश्में से हटकर निराकरण के उपाय आदि पर गंभीर चर्चा नही करता।
3.प्रत्यक्ष विदेशी निवेश जिसे भारत सरकार के लोग जो कल तक विरोध में रहकर करते थे तो अब स्वतः शत प्रतिशत विदेशी निवेश की छूट प्रदान कर दी। जिसके बहुत प्रकार के दुष्परिणाम देश पर पड़ेगें।इस गंभीर घटना को देश से दृष्टि ओझिल कर दिया गया। ऊना की घटना के बाद गुजरात में जो राजनैतिक परिस्थतियां बनी थी उसका लाभ उठाकर मोदी गुट ने पटेल समुदाय के हाथ से सत्ता छीनकर अपने विश्वसनीय व्यक्ति को सौप दी। एक तरफ अपने हाथ में सत्ता ले ली और दूसरी तरफ दलितों को एक बड़ा निवाला पकड़ा दिया कि तुम्हारे लिये सत्ता पटेलो से छीन ली। मुख्यमंत्री बदलने के निर्णय को जिसे राजधर्म कहते-कहते अटल जी नही कर पाये थे मोदी-अमित शाह ने उस राजधर्म का पालन कर दिया। ताकि दलित वोट भी सधा रहे व पटेलों को समझाया जायेगा कि हमारी लाचारी थी हम क्या करे ? इस तरीके से वे देश में दलित समर्थक के रुप में खड़े हो जायेगें।
5.इसी प्रकार गौकशी का विरोध करने वाले लोगो व समूह में बड़ी संख्या अपराधियों की है यह बयान दे कर, श्री मोदी ने अपने ही दल के अंतर विरोधियों को कटघरे में खड़ा कर दिया है और अपने आप को दलितो व अल्पसंख्यकों का हितचिंतक होने का संकेत समूचे देश में पहॅुचा दिया है।भले ही उनके ये दो बयान उनके कूटनीतिक हथियार हो परन्तु सराहनीय व चातुर्यपूर्ण है। इनसे देश में एक अच्छा संदेश गया है व इससे आलोचको की जबान बंद हुई है।
गुजरात में ऊना की घटना के बाद जो दलितो की ओर से प्रतिक्रिया हुई इससे दो-तीन मुद्दें उठे है।
1.दलितो ने सुरेन्द्र नगर के कलेक्टर के घर के सामने कई सौ मवेशियों की लाशों को डाल दिया और कहा कि ये तुम्हारी मां है इनकी अंतिम क्रिया आप ही करें। इस घटना ने निसंदेह ही मुद्दे को एक तार्किक मोड़ दिया है। संविधान के अनुसार किसी भी व्यक्ति को उसकी मर्जी के बगैर काम के लिये बाध्य नही किया जा सकता। यहां तक कि जो सरकारी कर्मचारी स्वेच्छा से काम करने जाते है वे अगर हड़ताल पर जाते है तो उन्हें काम पर विवश करने के लिये सरकार को पहले उस काम को अनिवार्य सेवा घोषित करना पड़ता है।
भले ही दलितों को गाय के चमड़ा निकालने में पुश्तैनी या पेशेवर ज्ञान हो पर उसे करना या न करना उनका अधिकार है। अतः इसके लिये उन्हें बाध्य नही किया जा सकता। उनका यह कहना तार्किक भी है। जब तुम इन्हें मां मानते हो व हमसे मारपीट करते हो तो इसकी अंतिम क्रिया का भी तुम्हारा है। उनके इस कदम से सवर्ण समाज व सवर्ण अपराधी वर्ग भयभीत हुआ है और अपने जातिवादी कदमों से फौरी तौर पीछे हट गया हो, परन्तु यह कोई स्थाई भाव होगा यह कहना कठिन है। हो सकता है कि अब इस काम के लिये कोई तकनीक या मशीन की खोज शुरु हो जिससे वे समस्या से निजात पा सके।हांलाकि मैं अपने सवर्ण समाज के मित्रों से कहना व पूंछना चाहूंगा कि गाय को हम मातृवत याने मां के समान मानते है। अगर समाज की प्रगतिशीलता ने अपने माता पिता के अंगो व शरीर को दान करना सिखाया है ताकि वे समाज के काम आ सके, तो उन्हें मातृवत गाय के चमड़े निकालने में क्या आपत्ति है? जन्म देने वाली मां की आंख, किडनी, लीवर, दिल, स्वेच्छा से दान में दिये जा सकते है तो गाय के चमड़े के गाय तो बहाना है। नाम पर यह क्रूरता क्यों ?
1. ऐसा प्रतीत होता है कि गाय के नाम राजनैतिक सत्ता हाथियाने के संकेत है।
2. गुजरात के दलितो ने ऊना की घटना के बाद हथियारों के लायसेंस व कुछ क्षेत्रों में बन्दूक की दुकानो की मांग भी उठाई है। हथियार किसी की सुरक्षा कर सकते है यह मुझे तार्किक नही लगता। अगर हथियार सुरक्षा कर सकते तो लिंकन से लेकर केनेडी तक अमेरिकी राष्ट्रपति, श्रीमती इंदिरा गांधी से लेकर स्व.राजीव गांधी तक कैसे मारे जाते ? हथियार एक भयभीत मानसिकता का जरिया है और आंतक का भी। मैं तो यह चाहता हॅू कि दलित संगठन व हम लोग मिल कर यह मांग करें कि समाज के सभी लोगों के हथियार लाइसेंस निरस्त किये जाये। दूसरे यह भी विचारणीय है कि जो दलित खाने की रोटी के लिये मोहताज है अपने पेट के लिये चमड़ा निकालने का काम वर्षो से कर रहे है। वह लाख-लाख रुपये की बन्दूके हथियार पिस्टल खरीदने को या दूकानो में लगाने के लिये लाखों की पूंजी कहां से लायेगे? अगर कल्पना करें कि यदि देश में सभी दलित परिवारों को हथियार मिल जायें और सवर्ण लोग भी हथियार खरीद लें तो लगभग 40 करोड़ रायफल, या पिस्टलें बिकेगी। एक हथियार बनाने वाली कम्पनी अगर एक आधुनिक हथियार पर मोटे तौर पर 10000 रुपये का मुनाफा कमाये तो कम्पनियों को 40 हजार करोड़ का मुनाफा (हथियार बनाने वाली कम्पनियो) होगा। यह भारत के कुल बजट का लगभग 5वां हिस्सा होगा इसलिये मैं तो यह चाहूंगा कि लगभग सभी लोगो के लायसेंस निरस्त किये जायें। और एक भयमुक्त, आंतकमुक्त, और अपराधमुक्त समाज बनाया जाये। अपनी बात समाप्त करते हुये भारत सरकार से मांग करुगां किः-
1. ऊना में दलितो के ऊपर अत्याचार करने वाले लोगो पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा दर्ज हो। तथा उन्हें मताधिकार से वांचित किया जाये। भारतीय संविधान जो समानता व स्वतंत्रता की बात कहता है उसके विरुद्व कार्य करना संविधान द्रोह है उसे राष्ट्र द्रोह समझना या राष्ट्रद्रोह से कुछ ज्यादा ही माना जाना चाहिये।
2. जहां कहां भी दलितो पर अत्याचार की घटना प्रमाणित सिद्व हो वहां अपराधियों को दण्ड के साथ-साथ उनका मताधिकार भी समाप्त किया जाये। मैं दलित संगठनों से भी अपील करना चाहॅूगा कि वे हिंसा के व्यापार के षडयंत्र में न फंसे और हथियार मुक्त भारत और दुनिया बनाने की पहल के सहयोगी बने। भारत सरकार ने हथियारों के क्षेत्र में, शतप्रतिशत एफ.डी.आई.को मंजूरी दी है इस एफ.डी.आई के खतरे को समझे और किस प्रकार एफ.डी.आई. और निजीकरण अप्रत्यक्ष रुप से आरक्षण और रोजगार को समाप्त करने का षडयंत्र है इसे भी समझे। निजी क्षेत्र में आरक्षण नही है और एफ.डी.आई निजी क्षेत्र का अंतराष्ट्रीय विस्तार है तथा रोजगार के अवसरों की समाप्ति व आरक्षण रोजगार की तो सम्पूर्ण समाप्ति है।
सम्प्रति – लेखक श्री रघु ठाकुर जाने माने समाजवादी चिन्तक है।वह लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी(लोसपा) के संस्थापक अध्यक्ष भी है।
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