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एक और साहसी पत्रकार डैफने की शहादत – रमेश नैयर

देश और दुनिया में साहसी पत्रकार लगातार मारे जा रहे हैं। वो इसलिए कि अनाचार और अत्याचार के विरूद्ध जब सभी संस्थाएं मौन रह जाती हैं तो पत्रकार आवाज उठाता है। आजकल पत्रकारों को भरमाने और उन्हें प्रलोभनों के तराजु पर तौलने की कोशिशें जरा ज्यादा ही तेज हो गई हैं।बहुतेरे है जो अपने धरम-इमान सहित उस तराजु पर तूल जाने को तत्पर रहते हैं, परंतु फिर भी पत्रकारों की वह प्रजाति अभी तक लुप्त नहीं हुई है, जो जान का भी जोखिम उठाने से कतराती नहीं। भारत में राजनेता, माफिया, डान, धर्म को धंधा बनाने वाले पाखंडी बाबा और कुछ चरमपंथी संगठन जगह-जगह साहसी पत्रकारों को ठिकाने लगाते रहते हैं। भारत में दायित्व के मोर्चे पर पिछले कुछ वर्षों में शहीद हुए पत्रकारों के नाम जगजाहिर हैं, उन्हें दोहराने की जरूरत नहीं होनी चाहिए।
सोशल मीडिया पर अनेक देशों की नामचीन शक्तिमान हस्तियों के काले चेहरे बेनकाब करने वाले विकिलीक्स के सरफरोश जूलियन असांजे ने जो तहलका मचाया था, उससे अनेक महाबलियों की टांगे कांप उठी थीं। असांजे को अनेक यातनाएं सहनी पड़ीं, परंतु अनेक शक्तिमान राजनेताओं के विद्रूप चेहरे भी बेनकाब हो गए। उन्हीं की राह पर चलते हुए, बल्कि एक छलांग लगाकर आगे निकलकर पनामा
पेपर्स को लीक करने वाली माल्टा की पत्रकार डैफने कैरूआना ने 52 देशों और उनके अनेक राज्यों के शासकों, प्रशासकों तथा उनके परिजनों के भ्रष्टाचार उजागर करने का जोखिम उठाया। सुश्री डैफने ‘इंटरनेशनल कान्सर्टियम आफ इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिस्ट संस्था’ से जुड़ी हुई थी। इस संस्था ने 1.15 करोड़ गोपनीय दस्तावेज जारी किए थे।इनमें भारत और पाकिस्तान सहित अनेक पिछड़े और विकासशील देशों के राजनेताओं की बेनामी पूंजी के विदेशी निवेश की भी जानकारी थी। पाकिस्तान की न्याय पालिका ने उनका संज्ञान लिया और प्रधानमंत्री मियां नवाज शरीफ को सत्ता से बेदखल होना पड़ा। भारत में अभी तक पनामा पेपर्स में आए लोगों के नाम पर सन्नाटा छाया हुआ है।किसी कार्रवाई की उम्मीद नजर भी नहीं आती।

             रमेश नैयर

डैफने ने माल्टा के प्रधानमंत्री जोसेफ मस्कट, उनकी पत्नी और उनके चीफ आफ स्टाफ के आर्थिक भ्रष्टाचार के बारे में भी बहुत सारे तथ्य उजागर किए थे।प्रधानमंत्री जोसेफ को पद से इस्तीफा भी देना पड़ा। यह बात और है कि वह फिर से चुन कर आ गए। 17 अक्टूबर को सुश्री डैफने की कार को बारूद से उड़ा दिया गया और वह शहीद हो गई। डैफने के पुत्र मैथ्यू भी अपनी बहादुर मां की राह पर चल रहे हैं। डैफने किसी पत्र-पत्रिका अथवा इलेक्ट्रानिक मीडिया संस्थान में काम नहीं करती थीं। उनका ब्लाग ही इतना शक्तिमान था कि उस पर पोस्ट की जाने वाली सामग्री बड़े-बड़ों के दिल दहला दिया करती थी। माल्टा में उनकी लोकप्रियता का प्रमाण यह है कि वहां के कुल 4.5 लाख की आबादी में से चार लाख लोग उनका ब्लाग पढ़ते थे। डैफने की शहादत निश्चय ही मीडिया बिरादरी प्रणाम करती है। वह उनसे प्रेरित भी होती रहेगी। श्रीमती डैफने के पत्रकार पुत्र मैथ्यू ने सोशल मीडिया पर कहा है कि उनकी मां कानून तोड़ने वालों को बेनकाब करने का साहस दिखाने के कारण शहीद हुई। मैथ्यू का यह कथन वक्त की दीवार पर लिखी हुई इबारत की तरह विश्व को एक संदेश दे रहा है कि सारी संस्थाएं विफल हो जाती हैं तो पत्रकार अनाचार के खिलाफ खड़ा होता है। उसके विरूद्ध अंतिम सांस तक जूझने वाला व्यक्ति भी पत्रकार ही होता है। उसके लिए सबसे पहले शहीद होने वाला भी पत्रकार ही होता है।
प्रश्न उठता है कि जब सबको मालूम है कि आज के निर्मम विश्व में सच बोलना बेहद जोखिम भरा काम है, तो वो कौन सी दीवानगी है जो पत्रकार को जान हथेली पर रखकर समर में कूद जाने को विवश कर देती है ? उत्तर यही हो सकती है कि पत्रकार ही तो है जो अनादिकाल से सच कहने का साहस करता आया है। पौराणिक कथाओं के देवर्षि नारद और महाभारत के संजय इसके प्रमाण हैं। भारत के
स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भी ऐसे जांबाज पत्रकारों की कमी नहीं रही। एक उदाहरण है सुंदरलाल द्वारा संपादित साप्ताहिक स्वराज्य का। उसके आठ पत्रकारों को ब्रिटिश सत्ता के दौरान कुल मिलाकर 125 वर्षों के सश्रम कारावास का दंड दिया गया था। संभवतः वह विश्व का एक मात्र प्रसंग था, जो विश्व के और किसी देश में हुआ और न ही भारत में।

इन दिनों जब प्रिंट और चैनल मीडिया भय अथवा प्रलोभन से मैनेज होने लगा है तो पूरा सच कहने के लिए सोशल मीडिया की सक्रियता बढ़ती जा रही है। हवा का नया रूख बनाने और पुराने को बदलने की क्षमता भी इसमें दिखने लगी है। ठीक है कि सोशल मीडिया का कही-कही दुरूपयोग भी होने लगा है। अफवाहें फैलाने और चरित्र हनन में भी इसका दुरूपयोग होने लगा है। उसको प्रिंट मीडिया की भांति कानून -कायदों की मर्यादा में रखने की मांग भी उठने लगी है। परंतु मानव मनोविज्ञान बताता है कि अंतस की आवाज लाख बंधनों के बाद भी मुखर हो ही जाती है। ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है, जो अपने विचार और अपने हुनर को हर तरह का जोखिम उठाते हुए भी सोशल मीडिया पर व्यक्त करते रहे हैं। उनका जुनून याद करा देता है उर्दू की ये काव्य पंक्तियां:

फन की लताफत को ले जाऊं कहां आखिर
  पत्थर का जमाना है, शीशे की जवानी है !

 

सम्प्रति-आलेख साभार वरिष्ठ पत्रकार रमेश नैयर के फेसबुक वाल से।श्री नैयर जाने माने वरिष्ठ पत्रकार है,और छत्तीसगढ़ के कई प्रमुख समाचार पत्रों के सम्पादक रहे है।वह चंडीगढ़ के दैनिक ट्रिब्यून के सहायक सम्पादक भी रह चुके है।