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फसलों की कीमतों का उतार चढ़ाव बिचौलियों का खेल – रघु ठाकुर

भारत सरकार ने हाल में ही प्याज को निर्यात करने की अनुमति देने का फैसला किया।सरकार की ओर से यह कहा गया है कि किसानों को प्याज के दाम पर्याप्त मिल सके इसलिये प्याज को निर्यात करने का निर्णय किया गया।अभी कुछ ही माह पहले दिल्ली विधानसभा चुनाव के समय भारत सरकार ने प्याज के निर्यात पर यह कह कर रोक लगाई थी कि प्याज के दाम बहुत बढ़ गये है और उत्पादन और उपलब्धता कम है। उस समय शहरों के बाजारो में प्याज के दाम बढ़कर 100 रुपये किलो के आसपास तक पहॅुच गये थे और समाचार पत्रों, टी.वी.चैनलों तथा सोशल मीडिया पर तो प्याज ही प्रमुखता से थी, नाना प्रकार के व्यंग और चुटकुले के माध्यम से प्याज के दाम वृद्वि की चर्चा आम जन तक पहॅुच रही थी। हालांकि दिल्ली विधानसभा चुनाव समाप्त होते ही प्याज के दाम कम होना शुरु हो गये और अब शहरों के फुटकर बाजार में 10-15 रुपये किलो की दर से प्याज बिक रही है।

बिहार विधानसभा के पूर्व बेला में अरहर की दाल के दाम बढ़ना शुरु हुये थे जो बढ़ते-बढ़ते 200 रुपए किलो तक पहॅुच गये थे और अरहर की दाल ने भी बिहार विधानसभा चुनाव को बहुत प्रभावित किया। हालांकि चुनाव के बाद अरहर के दाल के दाम भी घटकर 130-140 रुपये किलो तक पहॅुच गये। अरहर के दाम वृद्वि के समय भी भारत सरकार ने यह तर्क दिया था कि अरहर का उत्पादन कम हुआ है, और दामों को कम करने के लिये अरहर का आयात शुरु किया था। बताया जाता है कि, दिल्ली के एक ही आयात-निर्यात करने वाले व्यापारी को, जिसका सम्बन्ध सरकारी पार्टी के साथ था अरहर की दाल आयात करने का अधिकार दिया गया था और उसने कई लाख टन अरहर दाल आयात की या आयात करना बताया।

अब अचानक बाजार में लहसुन के दाम बढ़े है और दाम 400 रुपये किलो तक पहुंच गये।लहसुन की एक पोटी 20 रुपये में बिक रही। यह अवश्य है कि इस समय कोई चुनाव नही है, मीडिया,सोशल मीडिया पर लहसुन की चर्चा उस प्रमुखता से नही हो पा रही जिस तरह से प्याज, अरहर की हुई थी।प्याज, अरहर, लहसुन के दामों के उतार चढ़ाव के वर्णन करने का मेरा उद्देश्य इस बात की तह में जाने का प्रयास है कि इन दामों के उतार चढ़ाव की वजह क्या है? और इसके पीछे कौन सी शक्तियां है या उनके क्या उद्देश्य हो सकते है। जब किसान की फसल आती है तो यही प्याज 2 रुपये किलो के भाव से या कभी-कभी इससे कम में भी बिक जाती है। जिसे खरीद कर लखपति बिचौलिये अपनी गोदाम में भर लेते है। इसी प्रकार पिछले साल अरहर पैदा करने वाले किसान को 44 रुपया किलो याने 4400 रुपये क्विटंल की दर से दाम मिले थे, जो दाल बाद में बाजार में 20 हजार हजार रुपया क्विंटल बिकी।लहसुन की फसल जब आती है तो यही लहसुन एक रुपया दो रुपया के भाव से बिक जाता है और अब वही लहसुन 400 रुपये के भाव से बिक रहा है।

1. दरअसल यह बाजार की लूट है इस बाजार को सरकारो ने लूट की खुली छूट दी। चूंकि किसानों की फसल के दाम सरकार तय करती है और कभी-कभी बाजार और व्यापारी तय करते है। कुल मिलाकर बाजार पर सरकार या बिचैलियो का ही निंयत्रण है और निंयत्रण का पूरा लाभ बिचौलिया उठाते है जो किसान फसल पैदा करता है उसे लागत मूल्य ही नही मिल पाता है और वह भूखा और कर्जदार बना रहता है तथा कई बार कर्ज के दबाव में आत्महत्या करने को लाचार होता है, परन्तु बिचौलिये जिनके पास थोक बंद खरीद करने की फिर बेचने की भंडारण की और यातायात की पूंजी और आर्थिक क्षमता है वे बगैर किसी परिश्रम के चंद वर्षो में अरबपति बन जाते है।

2. चूंकि कृषि उपजों या खाद्यन्न का मंहगाई से सीधा संबध उपभोक्ता से होता है जो खाद्यन्न की मॅहगाई से सीधा प्रभावित होता है और मीडिया उसके मंहगाई के घाव को कुरेद-कुरेद कर दर्द का एहसास कराता है इसलिये राजनैतिक निर्णय में इस दाम वृद्वि का सीधा असर होता है। प्याज और दाल के दाम सरकारो को बदलने के हथियार बन जाते है और पिछले 35 वर्षो से याने लगभग 1998 से प्याज के दाम विशेषतः मध्यम वर्ग और गरीब वर्ग के मतदाताओं को प्रभावित करते है हालांकि यह मतदाता भी कभी इस मॅहगाई के कारणों की खेाज करने का प्रयास नही करता।

3. नकारात्मक राजनीति केवल आलोचना को ही योग्यता या कार्यक्रम बना देती है। जिस सरकार के कार्यकाल में खाद्यान्न दाम बढ़ते है लोग उसके खिलाफ हो जाते है और उसके खिलाफ मीडिया में दिखने वाली विरोधी ताकत और पार्टी के साथ वह हो जाते है तथा जब विरोधी पार्टी स्वतः सरकार में आ जाती है तब वह भी इसी दाम वृद्वि के ढेर्रे पर चलने लगती है, और फिर वही मतदाता उससे नाराज होकर पुरानी उस गुनाहगार पार्टी को जिसे उन्होंने मंहगाई के कारण हटाया था पुनः वापिस ले आते है यह चक्र लगातार चलता रहता है।

4. अब प्रश्न यह है कि इसके असली कारणों और उसके हल पर विचार किया जाये। स्वः लोहिया ने अपने जीवन काल में एक सिद्वांत एक समाजवादी कार्यक्रम में प्रमुखता से रखा था, उनका कहना था कि दो फसलों के बीच उतार चढ़ाव 6 प्रतिशत से अधिक नही होना चाहिये। याने अगर फसल आने पर किसानो को उत्पादक के एवज में 100 रुपये दाम मिले है तो किसी भी सूरत में बाजार में उसके दाम 106 रुपये से अधिक न हो। अगर यह सिद्वांत लागू किया गया होता तो 44 रुपये किलो कि अरहर दाल जिसे किसानो ने बेचा था बाजार में 47 रुपये से अधिक की नही बिक सकती थी या प्याज 3 रुपया और लहसुन लगभग 3 रुपये के भाव से अधिक का नही बिक सकता था। परन्तु यह नीति लागू करने को जब लोहिया ने दो फसलो के बीच उतार चढ़ाव की सीमा बांधी थी तब उत्पादन भी कम था और यातायात के साधन भी कम थे। अब उत्पादक ज्यादा है और यातायात के साधन भी ज्यादा है। अगर इस सिंद्वात को लागू किया जाये तो बिचौलिये अरबपति नही बनेगे। वे राजनीति दलो को या नेताओं को खरीदने के लिये चंदा देने में समर्थ नही होगे और लाचारी में अपने भंडारण में खाद्यन्न फसलों को दबाकर दाम बढ़ाने का खेल भी नही खेल सकेगें।

इसका परिणाम यह हो सकता है कि राजनीति की नकारात्मकता कम होगी और जो बुनियादी बातो पर कार्यो अनुदान पर सोचना शुरु करें जब सरकारों को गिराना और बदलना बाजार के हाथ नही होगा बल्कि जनमत के विवेक पर होगा।यह राजनीति और सरकारों पर बिचौलियो का निंयत्रण ही है कि भारत सरकार इन बिचैलियो के आगे नतमस्तक है। लगभग एक माह तक बाजार में उपभोक्ता के लुटने के बाद भारत सरकार ने दाल के दामों के नियंत्रण के लिये दो उपाय किये है:-

1-उन्होंने राज्य सरकारों से कहा कि वे जमाखोरों पर छापा डाले परन्तु केवल महाराष्ट्र में मुबंई शहर को छोड़कर कही भी राज्य सरकारों ने छापा मारने में कोई दिलचस्पी नही दिखाई। क्योंकि जिन गोदामो में जमाखोरी का माल जमा होता है उन्ही गोदामो से याने उन्ही के काले धन से सरकारें पैदा होती है। दिल्ली जहां सबसे ज्यादा दाल का भंडारण था और जहां की सुबाई सरकार, ईमानदारी का सबसे ज्यादा ढोल पीटती है में एक भी छापा नही पड़ा जबकि जानकार लोगो का कहना है कि अगर केवल दिल्ली के गोदामों की दाल ही निकाली जाती तो लाखों टन दाल निकलती और आयात की आवश्यकता ही नही पड़ती। म.प्र. में केन्द्र के निर्देश के बाद एक शाम को मुख्यमंत्री ने विशेष मींटिग कर मुख्य सचिव को छापा लगाने के निर्देश दिये। केवल एक रात में भोपाल शहर में भारी मात्रा में दाल बरामद हुई और सुबह इन भण्डारों के मालिक मुख्यमंत्री के पास पहॅुचे, उन्हें याद दिलाये कि जिन भण्डारों में दाल है उसी की कमाई से तुम्हारी सरकार और मुख्यमंत्री बन सके। मुख्यमंत्री ने तत्काल मुख्य सचिव को बुलाकर फटकार लगाई कि आपसे छापा लगाने को कहा था न कि तत्काल लगाने को था यानि मतलब साफ ताकि केन्द्र को सूचना मिल जाये कि केन्द के निर्देश का पालन किया जा रहा है।छापा लगाने को कहना हमारी राजनैतिक मजबूरी है इन जमाखोरो से ही हमारी सरकार है और उन्होंने मुख्य सचिव को 3 दिन का समय देने का कहा ताकि 3 दिन में जमाखोर अपना खेल पूरा कर ले और वही हुआ।
2.केन्द्र ने दूसरी दालो को आयात करने का टेंडर निकाला। पर यह विचारणीय है कि क्या भारत सरकार के पास देश में कुल उत्पादन और कुल सम्बधित खपत के आकड़े नही होते पिछले वर्ष जब फसल आई थी तब दाल का कुल उत्पादन कितना था और कितनी दाल की आवश्यकता होगी,क्या वास्तव में कोई कमी है,क्या मात्र इन 3 आकड़ों को जिन्हें देखने में किसी भी मंत्री को 5 मिनट का समय लगता या पूरे साल सरकार नही देख पाई अगर उत्पादन या उपलब्धता और संभावित खपत में अंतर था तो सरकार तभी आयात करने का निर्णय कर सकती थी,ताकि बाजार में दाम न बढ़ पाते जो निर्णय एक माह बाजार के लूटने और जनता के लूटने के बाद लिया गया और जिससे जनता लूट रही है अगर तभी ले लिया जाता तो न जनता लूटती न बिचैलियो की तिजोरियां भरती।

3. आयात के पूर्व जो दाल 60-70 रुपये किलो से बढ़कर 200 रुपये किलो के भाव पहॅुची वह गोदामो में भरी हुई पिछले वर्ष के उत्पादन वाली दाल थी। सत्ताधारी दल के कुछ बड़े नेता एकाध मंत्री और सांसद ने यह अज्ञानता पूर्ण बयान भी दिया कि कृषि उपज के दाम बढ़ने का विरोध नही करना चाहिये क्योंकि इससे किसानो की आमदनी बढ़ती है।अब इसी मुद्दे को कौन समझाये जिनकी आंख पर सत्ता की पट्टी बधी हुई जिनके कानो पर बिचैलियो के चंदे की परत जमा है और जिनकी जबान दलीय नेतृत्व के पास गिरवी है कि यह दाम वृद्वि का पैसा कोई किसानो को नही मिला है बल्कि बिचौलियों की जेब में गया है।

अतः खाद्यान्न की दाम वृद्वि और किसान की माली हालात को निंयत्रित करना है यानि किसान की आय बढ़े और बाजार की लूट घटे तो उसका एक ही उपाय है दाम बांधो और दो फसलो के बीच के उतार चढ़ाव की सीमा रेखा खीचो देश के किसानो ओर आम जनो को विचार करना चाहिये तथा इस नारे के साथ जनता को जागना चाहिये कि दो फसलो के बीच की घट बढ़ 6 प्रतिशत से ज्यादा नही बढ़ना चाहिये फसल आई तो नीचे उतरो फसल जाये तो ऊपर जाओ यह बदमाशी नही चलेगी।

 

सम्प्रति – लेखक श्री रघु ठाकुर देश के जाने माने समाजवादी चिन्तक है।