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अधिकार कानूनों की नीयत और हकीकत -डा.संजय शुक्ला

केन्द्र और राज्य सरकार ने समय-समय पर ऐसी कई योजनाएं और अधिकार कानून लागू किए हैं जिनका देश की आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक व शैक्षणिक व्यवस्था पर सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह से गहरा असर पड़ा है।इन योजनाओं एवं अधिकार कानूनों के मूल में निःसंदेह सत्ताधारी दल की नियत राजनीतिक नफा और वोट बैंक बनाने की रही है लेकिन ऐसी योजनाओं एवं कानूनों से आम जनता का भी भला हुआ है। हालांकि कई लोक लुभावन योजनाओं में बढ़ते भ्रष्टाचार के चलते सरकार का चेहरा भी बिगड़ने लगा है।

इन योजनाओं एवं अधिकार कानूनों को यदि ठीक ढंग से लागू किया जावे तो बेशक देश की आर्थिक व सामाजिक सेहत में बहुत हद तक सुधार आ सकते हैं। सूचना के अधिकार कानून एवं लोक सेवा गारंटी योजना ऐसी व्यवस्थाएं है जिसके चलते प्रशासनतंत्र में पारदर्शिता व जवाबदेही लायी जा सकती है। जिसका दूरगामी परिणाम शासन एवं प्रशासनतंत्र में जारी भ्रष्टाचार का समूल खात्मा नहीं तो कम से कम इससे प्रभावी अंकुश अवश्य लग सकता है। लोकतंत्र में निर्वाचित सरकारों की जवाबदेही है कि वह अपने ‘‘लोक’’ यानि नागरिकों के सर्वांगीण विकास के लिए हर संभव कदम उठाये। क्योंकि लोकतंत्र की सार्थकता तभी है जब समाज का अंतिम व्यक्ति विकास की मुख्यधारा में शामिल हो सके। इन्हीं उद्देश्यों को लेकर देश की सरकारों ने अनेक कल्याणकारी योजनाएं एवं अधिकार कानून लागू किया है।

सूचना का अधिकार कानून, शिक्षा का अधिकार कानून, खाद्य सुरक्षा कानून, महात्मा गांधी रोजगार गारंटी योजना, मिड-डे-मील (मध्यान्ह भोजन), प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना किसानों की ऋण माफी योजना सहित अनेक कल्याणकारी योजनाएं देश भर में संचालित है। विचारणीय है कि इन कानूनों एवं योजनाओं को लागू करने के पीछे जहां सरकार का मकसद सियासी था वहीं इसके पृष्ठभूमि में देष का आर्थिक व सामाजिक विकास भी रहा है लेकिन इन अधिकार कानूनों एवं स्कीमों की जमीनी हकीकत कुछ अलग ही स्थिति बयां कर रही है।

बात अगर शिक्षा के अधिकार कानून यानि आर.टी.ई. की कि जाये तो इस कानून को लागू होने के छह साल बाद भी प्राथमिक शिक्षा के स्तर में कोई परिवर्तन नजर नहीं आ रहा है। बल्कि साल दर साल स्थिति और भी बदतर होती जा रही है। 01 अप्रैल 2010 को लागू इस कानून के चहत देष के 6-14 साल तक के सभी बच्चों को निःशुल्क अनिवार्य शिक्षा देने का लक्ष्य है। सभी वर्ग के बच्चों को शिक्षा के समान अवसर देने के लिहाज से इस कानून के तहत निजी स्कूलों के 25 फीसदी सीटों पर गरीब बच्चों को प्रवेश देने का भी प्रावधान रखा गया है। लेकिन विकास की तमाम चर्चाओं के बीच बुनियादी शिक्षा की गुणवत्ता को लेकर अभी भी सरकारों द्वारा इस कानून के प्रति पूरी संजीदगी नहीं बरती जा रही है। आज की तारीख में कोई भी ऐसा राज्य नहीं है जहां पर आर.टी.ई. के मूल प्रावधानों के अनुरूप प्रशिक्षित शिक्षक, छात्र-शिक्षक अनुपात, बालिकाओं के लिए पृथक शौचालय, पेयजल, खेल के मैदान, विद्यालय के पक्के भवन एवं बुनियादी सुविधाएं हो।

पूरे देश में करीब 1.5 लाख स्कूलों में 12 लाख से ज्यादा शिक्षकों के पद खाली पड़े हैं। निजी स्कूलों में गरीब बच्चों को प्रवेश देने संबंधी प्रावधान का निजी स्कूल प्रबंधन अवहेलना कर रहे हैं। दरअसल इन स्कूलों में पढ़ने वाले धनाढ्य तबकों के पालक यह नहीं चाहते कि उनके बच्चों के साथ ‘‘स्लम बच्चे’’ बैठें। यह कड़वा सच है कि चूंकि पांच सितारा निजी स्कूल इन्हीं कुबेरपतियों के भरोसे चलती है जिनके कारण स्कूल प्रबंधन भी ‘‘मखमल पर टाट की पैबंद’’ नहीं लगाना चाहते। बहरहाल इस कानून के बावजूद शिक्षा का अधिकार अभी भी दूर की कौड़ी है।

लबे संघर्ष के बाद साल 2005 में शासन-प्रशासन के काम-काज को चुस्त-दुरूस्त व पारदर्शी बनाने के लिए तत्कालीन यू.पी.ए. सरकार द्वारा ‘‘सूचना का अधिकार कानून’’ यानि आर.टी.आई. लाया गया। लेकिन सूचना में जनभागीदारी तथा जनभागीदारी से पारदर्शी प्रशासन के लक्ष्य से यह अधिकार कानून चुकने लगा है। सूचना अधिकार कानून को खुद नौकरशाही से जटिलता का सामना करना पड़ रहा है। सूचना आवेदनों की लंबित मामले बताते हैं कि पूरे देश में नौकरशाही का रवैया इस कानून को लेकर सकारात्मक नहीं है। आर.टी.ई. कानून को सबसे ज्यादा चुनौती नौकरशाहों से ही मिल रही है इन्होंने इस कानून को बोझ की तरह ले लिया है।यह कानून प्रशासन में पारदर्शिता, जवाबदेही व प्रशासनिक सुधारों पर जोर देती है लेकिन अफसरशाही इसके लिए तैयार नहीं है।

देश में आर.टी.आई के जरिए ही भ्रष्टाचार के कई प्रमुख मामले सामने आए हैं जिसमें मुंबई का आदर्श सोसायटी घोटाला, 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाला, कोल लायसेंस आबंटन घोटाला और दिल्ली में आयोजित कामन वेल्थ खेल घोटाला इत्यादि शामिल है। विडंबना है कि सूचना आयोगों में सूचना आयुक्तों तथा स्टाफ की कमी बनी हुयी है तो दूसरी ओर सामाजिक कार्यकर्ता रिटायर्ड अधिकारियों को सूचना आयुक्त बनाए जाने का विरोध कर रहे हैं। इसके अलावा इस कानून के प्रति लोगों में जागरूकता की भी कमी है वहीं कई सामाजिक कार्यकर्ता जो इस कानून के तहत शासन एवं प्रशासनतंत्र से सूचनाएं प्राप्त करने के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं उन्हें लगातार खतरों का सामना करना पड़ रहा है। एक आंकलन के मुताबिक भ्रष्टाचार और अनियमितता उजागर करने के प्रयास में पिछले नौ वर्षों में लगभग 250 आर.टी.आई. कार्यकर्ता मारे जा चुके हैं। राजनीति, नौकरशाही और न्यायपालिका में भ्रष्टाचार व्याप्त है, इस क्षेत्र से जुडे़ लोग आर.टी.आई. की तारीफ तो करते हैं लेकिन अपने आपको इस कानून से दूर रखना चाहते हैं। अभी भी न्याय पालिका, बड़ी कंपनियां, एन.जी.ओ., धार्मिक और राजनीतिक संगठन इस कानून से बाहर है।

राजनीतिक दल भी जनता के लिए होते हैं तथा तथाकथित रूप से जनता के पैसों से ही चलते हैं इसलिए जनता के सवालों एवं सूचनाओं का जवाब देना इनके लिए अवश्य बंधनकारी होनी चाहिए लेकिन देश के सभी सियासी दल अपने आपको आर.टी.आई. के दायरे से मुक्त रखने के मुद्दे पर एकजुट है। जबकि चुनाव सुधारों की दिशा में यह सार्थक एवं दूरगामी कदम हो सकता है। इन स्थितियों में अहम प्रश्न यह कि पारदर्शिता के बिना कैसा लोकतंत्र? दूसरी ओर इस कानून के दुरूपयोग की शिकायतें भी आम है कतिपय लोग शासन व प्रशासन से जुडे़ अधिकारियों एवं कर्मचारियों पर आर.टी.आई. से जानकारी प्राप्त करने के नाम पर दबाव डालते हैं या उन्हें ब्लैक मेलिंग भी करने लगे हैं। इसके साथ ही कुछ छुटभैय्ये नेताओं, पत्रकारों तथा सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए यह कानून धन उगाही का जरिया बन चुका है। बहरहाल इस कानून की मंजिल अभी दूर है।

चुनावी राजनीति में सर्वाधिक वोट कमाऊ कानून राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून भी देश में लागू किया गया है, जिसके तहत देश के 1.2 अरब आबादी के 67 फीसदी लोगों को रोटी का अधिकार दिया गया है। हालांकि तत्कालीन यू.पी.ए. सरकार के पहले ही छत्तीसगढ़ वह राज्य है जहां की सरकार ने खाद्य सुरक्षा कानून को देश में सबसे पहले लागू कर दिया था। इसका परिणाम भी सत्ताधारी दल के खाते में गया क्योंकि रमन सरकार की सत्ता में दोबारा शानदार वापसी में इस कानून की महत्वपूर्ण भूमिका थी। हालांकि इस कानून की जरूरत पर देश में बहस छिड़ी हुई है। एक घड़े का मानना है कि देश में अब भी ऐसा वर्ग है जो अत्यंत कुपोषित व निर्धन है जिन्हें सस्ते अनाज की जरूरत है, बढ़ती महंगाई के दृष्टिगत जरूरी है कि सरकार ऐसे लोगों के लिए पोषण का सहारा बनें। वहीं दूसरे घड़े का मानना है कि यह महज वोट बटोरने का सियासी हथकंडा है तथा भारत जैसे कमजोर अर्थव्यवस्था वाले देश में ऐसे योजनाओं का प्रतिकूल असर विकास योजनाओं एवं राजकोष पर पड़ेगा।

इस कानून के क्रियान्वयन में व्याप्त घोटाले का महत्वाकांक्षी योजना के नीयत पर पलीता लगा रहे हैं।दूसरी ओर इस योजना के चलते मजदूर तबके में शराबखोरी और अकर्मण्यता की लत बढ़ती जा रही है। जिससे समाज के सामने बड़ी विकट स्थिति बनने लगी है। इसके अलावा देश में हर हाथ को काम देने के उद्देश्य से महात्मा गांधी रोजगार गारंटी योजना ‘‘मनरेगा’’ लागू की गयी है। लेकिन 35000 करोड़ बजट वाली यह योजना भी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ रही है। बहरहाल देश में लागू लोक कल्याणकारी योजनाएं और अधिकार कानून आम आदमी को ही केन्द्र में रखकर बनाई गयी है। इसी आम आदमी का ही पैसा इन योजनाओं में लगा है। भले ही इन लोक लुभावन योजनाओं एवं अधिकार कानूनों के पीछे सरकार की नीयत ‘‘वोट बैंक’’ बनाने की रही हो लेकिन हकीकत यह है कि यदि इन योजनाओं एवं कानूनों को निष्ठापूर्वक लागू किया जावे तो बेशक देश में विकास की बयार बह सकती है तथा व्यवस्था में शुचिता कायम हो सकती है।

सम्प्रति – लेखक डा.संजय शुक्ला शासकीय आयुर्वेद महाविद्यालय, रायपुर में लेक्चरर है।