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चिदम्बरम की ‘कॉफी-कथा’ में उभरी ‘सिस्टम’ की हकीकत – उमेश त्रिवेदी

उमेश त्रिवेदी

अपने बजट भाषणों में गरीबी और मुफलिसी पर स्यापा करने वाले पूर्व वित्तमंत्री पी. चिदम्बरम ने असल जिंदगी में कभी भी गरीबी का स्वाद नही चखा होगा, लेकिन यह महज संयोग है कि 25 मार्च 2018 के दिन चेन्नई एयरपोर्ट के लाउन्ज में उनकी जुंबा महंगाई की तेज लाल मिर्च के स्वाद से जलने लगी थी।चेन्नई एयरपोर्ट के कॉफी-कैफे डे पर 135 रुपए की एक कप चाय और 180 रुपयों की एक कप कॉफी के दाम सुनने के बाद आसमान से जमीन पर गिरने का उनका ‘पोलिटिकल-स्टंट’ कौतूहल पैदा करता है। जैसे चिदम्बरम को ध्यान नहीं होगा कि उन्होंने रेल-यात्रा कब की थी, वैसे ही यह भी ध्यान नहीं होगा कि इसके पहले चाय-काफी के भुगतान के लिए उन्होंने अपनी जेब में कब हाथ डाला था? बीते आठ दस सालों में उन्होंने जेब में हाथ डाला होता तो पता होता कि एयरपोर्ट पर ही नहीं, दीगर ठिकानों पर भी महंगाई का आलम क्या है? वैसे भी सरकारी खजाने से ऐशो-आराम की सुविधाएं हकीकत से रूबरू नहीं होने देती हैं।

ट्वीटर पर चिदम्बरम का लोगों से यह पूछना भी क्रूर मजाक है कि ‘क्या मैं ‘आउट-डेटेड’ हो चुका हूं?’ यह सवाल देश के सिस्टम को एड्रेस करता है।सवाल पूछने वाले ‘चिदम्बरम’ पूर्व वित्तमंत्री से ज्यादा उस ‘सिस्टम’ के प्रतीक हैं जो सवा सौ करोड़ लोगों की भाग्य-लिपि लिखता है।’ सिस्टम’ के रूप में ‘चिदम्बरम’ की यह अनभिज्ञता सत्ता-प्रतिष्ठानों की वह त्रासद अज्ञानता है, जिसके बोझ तले देश का भाग्य रिसता और सिसकता रहता है।चिदम्बरम के सवाल का जवाब यह है कि आम लोगों के सरोकारों से कोसों दूर सभी राजनेताओं को ‘आउट-डेटेड’ हो जाना चाहिए।उन्हें यह हक भी हासिल नहीं है कि अपनी तथाकथित अनभिज्ञता और अज्ञानता से वो महंगाई के नाम पर आम जनता का मखौल उड़ाएं…।

राजनेताओं का जैसे गरीबी से कोई वास्ता नहीं होता है, वैसे ही महंगाई से भी उनके सरोकार शून्य होते हैं। इसीलिए जब चिदम्बरम जैसे नेता चेन्नई एयरपोर्ट पर एक कप चाय-कॉफी के दामों पर हैरानी व्यक्त करते हैं, तो उनकी इस हैरानी पर हैरानी होती है कि हमारे देश के कर्णधार जमीनी सच्चाइयों से कितनी दूर हैं? उनका आश्चर्य व्यक्त करना सिध्द करता है कि वो उस ऊंट के समान हैं, जो हमेशा मैदानों में ही मुंह मारता रहता है। उसके सामने पहाड़ की ऊंचाइयां नापने की नौबत कभी नहीं आई।

चिदम्बरम की यह घटना यूपीए-2 के अंतिम दिनों के एक प्रसंग की याद को ताजा कर रही है। यह प्रसंग जहन में इसलिए उभर रहा है कि चिदम्बरम के समान कई राजनेता सत्ता के गलियारों में गरीबी, बेरोजगारी या महंगाई के नाम पर नए-नए शगूफे छेड़ते रहते हैं। यूपीए-सरकार के आखिरी दौर याने जुलाई 2013 में लोकसभा में योजना आयोग व्दारा निर्धारित गरीबी-रेखा के विभिन्न पैमानों पर चर्चा हो रही थी।गरीबी-मुफलिसी पर इस संसदीय बहस में कांग्रेस के कतिपय नेताओं ने एक दिलचस्प तर्क सामने रखा था कि भारत भूख की दर्दनाक स्थितियों से उबर चुका है, क्योंकि देश के कई नगरो में गरीबों को पांच रुपयों में भरपेट भोजन मिल जाता है।

तीस करोड़ गरीबों की बदनसीबी को अक्षरों और आंकड़ों के माध्यम से अर्थ व्यवस्था की सुर्खियों में परिभाषित करने वाली ‘गरीबी-रेखा’ से राजनीतिक रोमांस करने वाले नेताओं के फसाने चाय-पकोड़ों की शक्ल में खबरों की दुनिया में ट्रोल होते रहते हैं। जिस गरीबी और महंगाई को देखकर हमारे नेता चौंकने का अभिनय करते हैं, वो देश में कभी भी लापता नहीं रही है। वो सबको पता है, सब उसे देख रहे हैं, भोग रहे हैं, उसे आजमाने के लिए कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं है। मुट्ठी भर अनाज और आधी रोटी की लड़ाई हमारे इर्ग-गिर्द रोज घटती रहती है। इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में भी कुछ अधिक चीथड़ों और ज्यादा आंसुओं के साथ नागार्जुन की उस कविता में व्यक्त गरीबी ज्यों की त्यों मौजूद है जो उन्होंने अस्सी के दशक में लिखी थी… ‘कई दिनों तक चूल्हा रोया…चक्की रही उदास…कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उसके पास… दाने आए घर के भीतर कई दिनों के बाद…धुंआ उठा आंगन के ऊपर कई दिनों के बाद…चमक उठी घर भर की आंखें कई दिनों के बाद… कौए ने खुजलाई पांखें कई दिनों के बाद…। ‘

चिदम्बरम साहब, चौंकिए मत…गरीबी-महंगाई ज्यों की त्यों मौजूद है, अगर कुछ बदला है, तो सिर्फ मुहावरे बदले हैं, राजनीति के तौर-तरीके बदले हैं, बेईमानी के अंदाज बदले हैं, पहले इंदिरा गांधी जो कहती थी, आज नरेन्द्र मोदी थोड़ी हेराफेरी के साथ वही कह रहे हैं…।

 

सम्प्रति- लेखक श्री उमेश त्रिवेदी भोपाल एनं इन्दौर से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के प्रधान संपादक है। यह आलेख सुबह सवेरे के 27 मार्च के अंक में प्रकाशित हुआ है।वरिष्ठ पत्रकार श्री त्रिवेदी दैनिक नई दुनिया के समूह सम्पादक भी रह चुके है।