
इन दिनों तीन सवाल हर जगह पूछे जा रहे हैं। एक, क्या अगले लोकसभा चुनाव के बाद नरेंद्र मोदी फिर प्रधानमंत्री बन पाएंगे? दो, क्या समूचा विपक्ष एकजुट हो पाएगा? तीन, क्या विपक्षी गठबंधन राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने को तैयार होगा?
इन सवालों के जवाब तलाशना आसान भी है और आसान नहीं भी है। इसलिए कि शक़्ल अभी आकार ले रही है और जब चीज़ें प्रक्रिया के गर्भ में होती हैं तो सूरत बनने-बिगड़ने में एक लमहा भी बहुत होता है। भारत जैसे भावना-प्रधान देश में राजनीति की दिशा ज़मीनी तथ्यों से तय होती ही नहीं है। ऐसा होता तो चार साल पहले भारतीय जनता पार्टी फर्राटे भरती दिल्ली पहुंचती ही नहीं।
बड़ी बात यह है कि बीस नहीं, तो कम-से-कम दस साल तो निश्चित ही, राज करने आए मोदी अपने पांचवे बरस में ही इस सवाल का सामना करने लगे हैं कि अगली पारी उनकी होगी या किसी और की? वे ही नहीं, जो भाजपा के अपने राज में भी किनारे हैं; वे भी, जो दरबार के भीतर हैं; खुले दिल से मान रहे हैं कि अगले चुनाव में अपने बूते स्पष्ट बहुमत जुटा लेने का ख़्वाब तो भाजपा को देखना ही नहीं चाहिए। भाजपा और संघ के बेहद आशावादी लोग भी अगले चुनाव में 220 सीटों से ज़्यादा की उम्मीद नहीं कर रहे हैं। संघ-कुनबे के यथार्थवादी-पुरोधा मानते हैं कि भाजपा को 175-180 सीटें मिलेंगी।
सो, माहौल यह है कि पांच साल पहले मरने-मारने पर उतारू, और चार साल पहले तक मोदी के बीस साल प्रधानमंत्री रहने पर सट्टा लगाने को तैयार, रुस्तम-ए-जहां भी अब मिमियां कर दो दलीलें दे रहे हैं। पहली कि मोदी के अलावा और है ही कौन? दूसरी कि सहयोगी दलों के साथ सरकार तो भाजपा ही बनाएगी, प्रधानमंत्री मोदी भले न बनें, बनेगा तो भाजपा का ही। मैं मानता हूं कि भाजपा के भीतर मोदी के स्थानापन्न के ये कयास भी अपने में बड़ी अहमियत रखते हैं।
आपको याद होगा कि चंद बरस पहले तक स्थानापन्नों की इस सूची में सुषमा स्वराज, राजनाथ सिंह, अरुण जेटली, मनोहर पर्रिकर और नितिन गड़करी के नाम हुआ करते थे। उनकी संभावनाएं कितनी थीं, कितनी नहीं, अलग बात है। मगर अब सुषमा, जेटली और पर्रिकर की संभावनाओं को तो उनके स्वास्थ्य ने ही परे धकेल दिया है। गड़करी संभावनाओं की इस दौड़ में अब भी सबसे आगे हैं और राजनाथ सिंह की उम्मीदों पर भी पानी नहीं फिरा है। चर्चा में अभी ज़्यादा नहीं है, मगर एक नाम झरोखे से और झांकने लगा है–देवेंद्र फड़नवीस। मैं आपको उन्हें सचमुच बेहद गंभीरता से लेने की सलाह देता हूं।
जम्मू-कश्मीर में कलाबाज़ी दिखाने के बाद यह अंदाज़ भी गहरा हो गया है कि लोकसभा के चुनाव अगले साल मई में नहीं, इसी साल दिसंबर में हो जाएंगे। महबूबा मुफ़्ती की गुपचुप तैयारी जून के आख़ीर में भाजपा से नाता तोड़ने की थी। लेकिन वे गच्चा खा गईं। उन्हें मालूम होना चाहिए था कि मोदी के राज में मोदी की आंख से भला कुछ छिपा रह सकता है? भनक मिलते ही मोदी ने पहले दांव खेल दिया। कहते हैं कि आने वाले दिनों में घटनाओं का मंचन होते ही आम चुनाव का ऐलान भी हो जाएगा। मोदी-मंडली का मानना है कि कश्मीर-केंद्रित चुनाव भाजपा को फिर स्पष्ट बहुमत के आंकड़े तक पहुंचा देगा।
तो क्या विपक्ष इस बीच एकजुट हो पाएगा? एकजुटता की इच्छा एक बात हैं और ललचाने-डराने वाली आवाज़ों को अनसुना करना दूसरी बात। इसलिए विपक्षी एकजुटता का रास्ता बहुत समतल नहीं है। जीवन-मरण का प्रश्न न होता तो विपक्ष के सारे दल अपनी-अपनी ढपली पर अपने-अपने राग ही बजाते। उनमें से कई अब भी अपना ही राग अलाप रहे हैं। मगर मुझे लगता है कि उधर स्वतंत्रता-दिवस पर हमारे प्रधानमंत्री लालकिले से अपना भाषण दे रहे होंगे और इधर विपक्षी एकजुटता का छाता पूरी तरह तन चुका होगा। मोदी-विरोधी मंच पर चेहरों की तादाद बढ़ती जा रही है। शरद पवार, मायावती, अखिलेश यादव, लालू प्रसाद, देवेगौड़ा, करुणानिधि, चंद्राबाबू नायडू, ममता बनर्जी–सब साथ हैं ही। तमाम किंतु-परंतु के बावजूद वाम दल, अरविंद केजरीवाल, नवीन पटनायक और के. चंद्रशेखर राव भी मौक़े की नज़ाकत समझ गए हैं। और-तो-और, शिवसेना तक भाजपा को कभी की नामंजूर कर चुकी है। अब महबूबा मुफ़्ती और उमर अब्दुल्ला भी एक दस्तरख़ान पर नहीं बैठेंगे तो क्या करेंगे?
कांग्रेस, ज़ाहिर है कि, इस गठजोड़ का सबसे अहम हिस्सा है। गई-बीती हालत में उसे अपने बूते सवा सौ सीटें मिलने के आसार हैं। हालात बेहतर हो गए तो वह डेढ़ सौ सीटों का आंकड़ा छूने लगेगी। सियासी एकजुटता में दिलों का मेलजोल भी ठीक-ठाक रहा तो विपक्षी गठबंधन तीन सौ सीटों के नज़दीक पहुंचने की कूवत रखता है। शर्त एक ही है कि सब अपने दिल बड़े रखें।
अब रही बात राहुल गांधी के प्रधानमंत्री बनने की। भाजपा-संघ के डिस्को में आजकल एक ही गीत बज रहा है कि विपक्षी दिग्गज राहुल को अपना नेता मानेंगे नहीं और ऐसे में ‘मेरा कोई विकल्प नहीं’ की धुन पर नाचते मोदी फिर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर जा बैठेंगे। उनकी आस, उन्हें मुबारक! मुझे तो दिख रहा है कि भाजपा अगर सबसे बड़ा राजनीतिक दल बन कर उभर भी आई तो मोदी प्रधानमंत्री नहीं बन पाएंगे। ऐसे में उनका वैकल्पिक विपक्षी चेहरा कौन-सा है, इसकी कोई अहमियत ही नहीं है।
अगले लोकसभा चुनाव में सबसे बड़ा विपक्षी दल तो कांग्रेस ही रहेगी। मुझे नहीं लगता कि ऐसे में राहुल को सरकार का मुखिया बनाने में किसी को कोई ऐतराज़ होगा। ठीक है कि वे प्रशासनिक अनुभव के लिहाज़ से थोड़े कमज़ोर होंगे, लेकिन ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि वे शरद पवार, मायावती और चंद्राबाबू नायडू जैसे अनुभवी उप-प्रधानमंत्रियों के सहयोग से अपनी सरकार चलाएं? कांग्रेस के पास अपने खुद के भी ऐसे-ऐसे चेहरे हैं, जिनके तजु़र्बे के सामने आज भी भाजपा की शिखर-शक़्लें पानी भरती हैं। इसलिए गुजरात और उड़ीसा के चंद नौकरशाहों की बदौलत किसी-न-किसी तरह अपनी गाड़ी हांकने वाले प्रधानमंत्री मोदी से तो वे राहुल गांधी लाख दर्ज़ा बेहतर साबित होंगे, जिनकी सरकार भारतीय राजनीति के सबसे आला-दिमाग़ों के साए तले चल रही हो।
आप ही बताइए, क्या बेहतर है? निराकार गृहमंत्री, निराकार वित्त मंत्री, निराकार रक्षा मंत्री और निराकार विदेश मंत्री समेत अपनी निराकार मंत्रिपरिषद की छाती पर चढ़ कर तांडव में मशगूल एक प्रधानमंत्री या एक मज़बूत और साकार मंत्रिपरिषद के बीच समन्वय की ताल से ताल मिलाता समावेशी प्रधानमंत्री? पिछले चार साल में भारत की शासन व्यवस्था ने संवेदनाओं को निचोड़ कर खूंटी पर टांग दिया है। देशवासी आज ‘शासित’ नहीं, ‘अधीनस्थ’ हैं। भारत को लोकतंत्र के नाम पर सैन्य-गर्व से ग्रस्त किसी राजनीतिक-सेनानी की नहीं, भ्रातृ-धर्म के उत्तरदायित्व-बोध का अहसास रखने वाले एक सियासी-समन्वयक की ज़रूरत है। मुल्क़ की अनुभवी आंखों ने सब देखा है। देखा है कि राजनीति के वे हरे-भरे खेत सूख कर जंगल कैसे हो गए, जिनमें चार-पांच साल पहले तक ख़ुशनुमा मौसम आ कर अपना डेरा डाला करते थे। इसलिए अब देश इंतज़ार कर रहा है कि विपक्ष की विपरीत दिशाओं में बहती धाराएं एक हों। ऐसा हुआ तो उसकी सूनामी में भाजपा का बहना न नरेंद्र मोदी बचा पाएंगे, न मोहन भागवत।
सम्प्रति लेखक पंकज शर्मा न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।
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