
सुप्रीम कोर्ट ने सत्रह जुलाई को केन्द्र सरकार को सख्त लहजे में हिदायतें दी थीं कि कथित गोरक्षकों और भीड़ व्दारा होने वाली हिंसा को रोकने की जिम्मेदारी सरकार की है। मॉब-लिंचिंग से निपटने के लिए उसे सख्त कानून बनाना चाहिए। मोदी-सरकार कोर्ट की ऐसी समझाइशों को सहजता से नहीं ले पाती है। कोर्ट के फैसले पर प्रारम्भिक-प्रतिक्रिया में सरकार ने यह जताने और समझाने की कोशिश की कि मॉब-लिंचिंग रोकने के लिए भारत में पर्याप्त कानून मौजूद हैं। इसके लिए अलग से कानून बनाने की जरूरत नहीं है। सवाल यह है कि देश में मॉब-लिंचिंग रोकने के लिए पर्याप्त कानून हैं तो पिछले पिछले एक माह में घटित मॉब-लिंचिंग की 28 घटनाओं के पीछे कौन सी ताकतें काम कर रही हैं?
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद असहज और नाखुश मोदी-सरकार ने मॉब-लिंचिंग के खिलाफ कानून बनाने के लिए वरिष्ठ मंत्रियों के एक समूह का गठन किया है, उसमें उस समुदाय याने मुस्लिम-समाज का कोई प्रतिनिधित्व नहीं है,जो मॉब-लिंचिंग का सबसे बड़ा शिकार है। मंत्रियों के समूह की अध्यक्षता गृहमंत्री राजनाथ सिंह करेंगे। रोड-ट्रांसपोर्ट मिनिस्टर नितिन गडकरी, कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद और थावरचंद गेहलोत इसके सदस्य हैं। मंत्रियों का समूह एक महीने में अपनी रिपोर्ट सरकार के सामने पेश करेगा। सरकार की नीति और नीयत पर सवाल उठने लगे हैं कि मंत्रियों के इस समूह में अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी अथवा विभागीय सचिव को रखने की जरूरत क्यों नही समझी गई? गौरक्षा के नाम पर मुस्लिम-समाज के लोग मॉब-लिचिंग के ज्यादा शिकार हो रहे हैं।
बहरहाल, मंत्रियों के समूह में मुस्लिम-प्रतिनिधित्व की अनुपस्थिति सरकार की अंगभीरता की ओर इशारा करती है। अपने 45 पेज के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने मॉब-लिंचिंग को लेकर जो चिंताएं व्यक्त की थीं, केन्द्र-सरकार उतनी गंभीर नजर नहीं आ रही है। इस सवाल का जवाब तलाशने की कोशिशें भी नहीं हो रही हैं कि मॉब-लिंचिंग की अमानवीय और पैशाचिक प्रवृत्तियों के विस्तार के पीछे कौन सा मनोविज्ञान काम कर रहा है? भीड़ के दो चेहरे होते हैं। एक चेहरा वह अराजक भीड़ है, जिसका जुनून ज्वार-भाटे के समान समाज के किनारों से टकराता है और तबाही मचाकर लौट जाता है। दूसरा चेहरा, वह प्रायोजित भीड़ है, जिसे सरकार का संरक्षण होता है और उसके भीतर अभयदान का भाव संचालित और संचरित होता रहता है। भीड़ का यह चेहरा ही समाज के लिए सबसे बड़ा खतरा है। यह प्रायोजित भीड़ मॉब लिंचिंग के नाम पर लगातार उन घटनाओं को अंजाम देती रहती है, जो उस सरकार के हितों के लिए जरूरी होते हैं। कमजोर सरकारों के दौर में अक्सर भीड़-तंत्र का मनोविज्ञान निरंकुश और आतातयी होता है। अथवा लोगों को लगता है कि उन्हें न्याय नहीं मिल सकेगा। मोदी-सरकार के साथ यह थ्योरी काम नहीं करती है, क्योंकि मोदी-सरकार अपने बलबूते पर खड़ी सरकार है, जिसकी रीति-नीति और सिध्दांतों को प्रभावित करना संभव नहीं है। यहां यह मुद्दा विचारणीय है कि मजबूत सरकार के इस दौर में भी भीड़ लगातार हत्याएं क्यों और कैसे कर पा रही है?
मॉब-लिंचिंग की घटनाओं को भाजपा नेताओं के उन बयानों की पृष्ठभूमि में पढ़ा और समझा जाना चाहिए, जो गौ-संरक्षण के नाम पर अक्सर सामने आते रहते हैं। मॉब-लिंचिंग पर रोकथाम के सरकारी-उपायों के साथ संगठन के नेताओं की नसीहतों का विरोधाभास कहता है कि कानूनी-उपायों से यह मामला सुलझने वाला नहीं है। केन्द्र-सरकार के मंत्रियों के समूह के गठन के साथ ही आरएसएस के नेता इंद्रेश कुमार के इस बयान ने विवादों को सुर्ख कर दिया है कि यदि लोग बीफ खाना छोड़ दें, तो मॉब-लिंचिंग जैसी घटनाएं रुक सकती हैं। भाजपा के पूर्व सांसद और बजरंग दल के संस्थापक विनय कटियार ने मॉब-लिंचिंग पर विवादित बयान देते हुए यह सुनिश्चित कर दिया है कि जब तक गौ-हत्या होगी, मॉब-लिंचिंग जरूर होगी। इसी बीच राजस्थान सरकार के मंत्री जसवंत यादव ने बयान दिया है कि मुस्लिमों को हिन्दुओं की भावनाओं का ध्यान रखना चाहिए। वो गाय की तस्करी करने से बाज आएं। मोदी-सरकार के कैबिनेट-मंत्री अर्जुनराम मेघवाल ने चौंकाने वाली थ्योरी ईजाद की है कि जैसे-जैसे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता बढ़ती जाएगी, मॉब-लिंचिंग की घटनाएं बढ़ती जाएंगी। भाजपा सांसद मीनाक्षी लेखी ने संसद में यह बयान दिया की आर्थिक-गैरबराबरी के कारण मॉब-लिंचिंग की घटनाएं हो रही हैं।
सबसे दिलचस्प बयान 13000 करोड़ के पीएनबी घोटाले के आरोपी नीरव मोदी के मामा मेहुल चौकसी का है, जिसने अदालत से कहा है कि वो जांच में सहयोग करने के लिए भारत आ सकता है, लेकिन उसे इस बात का खतरा है कि वो यहां मॉब-लिंचिंग का शिकार हो सकता है। मेहुल चौकसी वह शख्स है, जिसे प्रधानमंत्री निवास पर आयोजित एक कार्यक्रम में बड़ी संख्या में मौजूद दर्शकों के बीच प्रधानमंत्री मोदी ने उसके प्रथम नाम से संबोधित किया था। जो अपने आप में सम्मान की बात है। हालात को समझा जा सकता है कि प्रधानमंत्री की वाकफियत वाले लोग ही खुद को सुरक्षित महसूस नहीं कर रहे हैं।
सम्प्रति- लेखक श्री उमेश त्रिवेदी भोपाल एनं इन्दौर से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के प्रधान संपादक है। यह आलेख सुबह सवेरे के 25 जुलाई के अंक में प्रकाशित हुआ है।वरिष्ठ पत्रकार श्री त्रिवेदी दैनिक नई दुनिया के समूह सम्पादक भी रह चुके है।
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