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दो दलीय ध्रुवीकरण को क्या चुनौती दे पायेगा दलों का दलदल – अरुण पटेल

अरूण पटेल

मध्यप्रदेश में जो चुनावी परिदृश्य फिलहाल नजर आ रहा है उसमें दलों का दलदल कुछ इस कदर बनता जा रहा है कि बहुजन समाज पार्टी, गोंडवाना गणतंत्र पार्टी, सपाक्स, आम आदमी पार्टी ने फिलहाल प्रदेश के सभी 230 विधानसभा क्षेत्रों में अलग-अलग चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया है। वहीं दूसरी ओर आदिवासी युवा संगठन जयस ने 80 सीटों पर उम्मीदवार उतारने का ऐलान किया है। देखने वाली बात यही होगी कि जिस ढंग से जातिवाद या विभिन्न वर्गों और समुदायों पर अपना एकाधिकार समझने वाले नवगठित दल चुनावी समर में उतरने वाले हैं उसके कारण क्या मध्यप्रदेश की राजनीति में भी बिहार और उत्तरप्रदेश की तर्ज पर जातिगत दलदल की राजनीति की नई धारा कोई रंग दिखा पायेगी। वैसे इस बात की संभावना बहुत कम है कि दशकों से चले आ रहे कांग्रेस और भाजपा के बीच के दो दलीय ध्रुवीकरण को दलों का यह दलदल कोई चुनौती दे पायेगा। इस बात की ही अधिक संभावना है कि दलों का दलदल केवल कांग्रेस और भाजपा में से किसी एक को तो सत्ता के सिंहासन तक पहुंचा देगा लेकिन सरकार के गठन की चाबी इनमें से किसी के हाथ लगने वाली नहीं है। चुनाव में इन दलों की भूमिका केवल वोट कटवा से अधिक रहने वाली नहीं है। यह तो चुनाव नतीजों से ही पता चलेगा कि भाजपा के चौथी बार सरकार बनाने के सपने या कांग्रेस ने डेढ़ दशक बाद सत्ता में आने के जो सप्तरंगी सपने संजोये हैं उनमें से किसके सपने साकार होने की आधारभूमि तैयार करने में बसपा, गोंगपा, सपा, सपाक्स, आम आदमी पार्टी और जयस की कितनी भूमिका होगी। यानी ये दल किसका खेल बिगाड़ते हैं यही दिलचस्पी का विषय होगा।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भाजपा कार्यकर्ताओं के भोपाल में हुए महाकुंभ में कहा था कि विपक्षी दलों द्वारा जितना ज्यादा राजनीति में कीचड़ उछाला जायेगा उतने ही अच्छे से कमल खिलेगा। ऐसे में लाख टके के इस सवाल का उत्तर चुनाव नतीजों से ही मिल पायेगा कि दलों का जो दलदल चुनावी समर में बनने वाला है उसमें चौथी बार मोदी की आशा के अनुकूल मध्यप्रदेश में कमल की चुनावी फसल लहलहा पायेगी या नहीं तथा अमित शाह ने 200 प्लस का जो नारा दिया है क्या विपक्षी मतों का बिखराव उनके इस आशावाद के इर्द-गिर्द आ पायेगा। वैसे मायावती के पूरी सीटों पर चुनाव लड़ने के ऐलान से कांग्रेस कुछ चिंतित तो है लेकिन उसे अभी भी इस बात का पक्का भरोसा है कि इस बार बदलाव की बयार है और इसमें चाहे वह अकेले लड़े या गठबंधन में लड़े मध्यप्रदेश में सरकार उसी की बनेगी। हालांकि कांग्रेस इस बात की पूरी कोशिश कर रही है कि गोंडवाना गणतंत्र पार्टी और समाजवादी पार्टी के साथ ही जयस से किसी न किसी प्रकार का तालमेल हो जाये ताकि भाजपा को वह कड़ी चुनौती देते हुए चुनावी नतीजों को अपने पक्ष में कर सके। कांग्रेस नेताओं के इस आशावाद को समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने बुआ जी की तर्ज पर कांग्रेस को धीरे से जोर का झटका यह कहते हुए दे दिया है कि प्रदेश में वह बसपा और गोंडवाना गणतंत्र पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़ेगी।

जयस के प्रमुख डॉ. हीरासिंह अलावा का कहना है कि वे अपने दमखम से 80 सीटों पर उम्मीदवार उतारेंगे, न तो कांग्रेस से गठबंधन करेंगे और न ही भाजपा के सामने सरेंडर करेंगे। इससे लगभग 47 आदिवासियों के लिए आरक्षित सीटों पर दिलचस्प मुकाबला हो सकता है बशर्ते कि वे अपनी घोषणा पर अमल करें। वैसे अभी भी अंदरखाने कांग्रेस से जयस के तार जुड़े हुए हैं और उसका क्या नतीजा निकलता है यह एक सप्ताह में पता चल जायेगा। लगभग 30 से अधिक ऐसी सामान्य सीटें हैं जहां जीत-हार का फैसला आदिवासी मतदाता करते हैं इसलिए इस दल की उपस्थिति से भाजपा व कांग्रेस को कितना नफा-नुकसान होता है यह मतगणना से ही पता चल सकेगा। वैसे जयस ‘अबकी बार आदिवासी सरकार’ के भावनात्मक नारे के साथ चुनावी समर में उतरेगी, लेकिन वह जितनी सीटों पर लड़ने की बात कह रही है उतनी सीटों से प्रदेश में कोई सरकार नहीं बन सकती। नवगठित सपाक्स के प्रमुख हीरालाल त्रिवेदी ने 230 सीटों पर चुनाव लड़ने की बात कही है तो वहीं गोंगपा के राष्ट्रीय संयोजक गुलजार सिंह मरकाम ने भी अपनी फेसबुक पोस्ट में सभी सीटों पर लड़ने की बात कही। आम आदमी पार्टी तो काफी पहले से ही सभी सीटों पर चुनाव लड़ने की घोषणा कर चुकी है और मतदान केन्द्र तक उसने अपना संगठनात्मक ढांचा तो खड़ा कर ही लिया, साथ ही एक कदम आगे बढ़ते हुए उसने आलोक अग्रवाल को मुख्यमंत्री का चेहरा भी घोषित कर दिया।

जहां तक मायावती का सवाल है उन्होंने भी प्रदेश में कांगेस से समझौता न होने का ठीकरा दिग्विजय सिंह के सिर फोड़ दिया है। हकीकत तो यह है कि दिग्विजय सिंह तो बहाना हैं, मायावती को गठबंधन करना ही नहीं था। जिस ढंग से उन्होंने 50 सीटों की मांग की और कुछ ऐसी सीटों पर अड़ गयीं जहां वर्तमान में कांग्रेस के विधायक हैं। दिग्विजय सिंह इस सारी प्रक्रिया में कहीं नहीं थे और न ही उनके जिम्मे यह काम था। तालमेल की बात प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ और चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष ज्योतिरादित्य सिंधिया कर रहे थे। यदि एक बार यह मान लिया जाए कि गठबंधन दिग्विजय सिंह के कारण नहीं हुआ तो मायावती यह भी बता दें कि छत्तीसगढ़ में किस कांग्रेस के नेता ने गठबंधन नहीं होने दिया और उन्होंने अजीत जोगी से समझौता कर लिया। मायावती ने जितनी सीट छत्तीसगढ़ में कांग्रेस से चाही थीं उससे दुगुने से अधिक अजीत जोगी की पार्टी ने उन्हें दे दीं। मध्यप्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ का यह कहना सही है कि बसपा को 50 सीटें देने का अर्थ इसमें से 30 सीटों पर भाजपा की जीत सुनिश्चित करना होता। मायावती का दिग्विजय सिंह पर दलित विरोधी और भाजपा-आरएसएस का एजेंट होने का आरोप उस खीज का ही नतीजा है जिसमें मायावती के लिए सीबीआई को लेकर जो बात कही गयी थी, वे उससे अपने आपको आहत महसूस कर रही थीं।  ईडी व अन्य जांच एजेंसियों से डरे होने की दिग्विजय की बात ने शायद उन्हें गहरे तक मर्माहत कर दिया था। जहां तक दिग्विजय का सवाल है ये दोनों ही आरोप उनके ऊपर कोई नहीं लगा सकता बल्कि उनके लिए तो कांग्रेस के कुछ नेता भी आपसी चर्चा में कहते रहे हैं कि उनके दलित प्रेम और दलित एजेंडे के कारण ही कांग्रेस को काफी खामियाजा भुगतना पड़ा था। जहां तक मायावती के दूसरे आरोप का सवाल है वह भी किसी के गले उतरने वाला नहीं है क्योंकि दिग्विजय सिंह पूरे देश में भगवा ब्रिगेड के निशाने पर हमेशा रहते आये हैं।

और यह भी

भले ही कांग्रेस प्रदेश में महागठबंधन के प्रति आशान्वित रही हो लेकिन जिस प्रकार का मायावती का स्वभाव रहा उसको देखते हुए जो कुछ हुआ वह अनापेक्षित नहीं है। कई अवसर ऐसे आये हैं जब मायावती ने परोक्ष या अपरोक्ष रूप से भाजपा की मदद की है। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान में हाथी ने हाथ को झटका देकर कांग्रेस को यह कहने का मौका दे दिया है कि हाथी के दांत खाने के अलग और दिखाने के अलग होते हैं। यह सही है कि इससे जितना भी थोड़ा-बहुत फायदा होगा वह भाजपा को होगा, कांग्रेस को कुछ न कुछ नुकसान होगा। मायावती जितनी सीटें मांग रही थीं यदि कांग्रेस उतनी दे देती तो फिर भले ही उसे तात्कालिक रूप से कुछ फायदा हो जाता लेकिन भविष्य में उसकी हालत यहां भी उत्तरप्रदेश जैसी हो जाती। इसलिए कांग्रेस ने मायावती के सामने न झुक कर यह बताने की कोशिश की है कि वह अकेले भी चुनाव जीत सकती है। मायावती का प्रभाव उत्तरप्रदेश से लगे हुए इलाके में ही रहा है और किसी भी सूरत में डेढ़ दर्जन से अधिक सीटों पर उनका दावा अतार्किक था। 1990 में प्रदेश में दो सीटों के साथ बसपा ने अपना खाता खोला था और समय-समय पर संख्या कम-ज्यादा होती रही। बसपा का मत प्रतिशत 3.5 से लेकर 8.97 तक अलग-अलग चुनावों में रहा है। 2013 के चुनाव में उसे 6.29 प्रतिशत मत मिले थे। पिछले विधानसभा चुनाव में उन्होंने जो चार सीटें जीतीं उनमें से अनुसूचित जाति वर्ग की केवल एक सीट थी और तीन सामान्य वर्ग की थीं। उत्तरप्रदेश की तरह पूरे मध्यप्रदेश में दलित मतों पर ही मायावती का एकाधिकार नहीं है बल्कि यहां अलग-अलग इलाकों में बसपा, कांग्रेस और भाजपा को दलित वोट मिलते रहे हैं। कहीं ऐसा न हो कि अधिक सीटों पर लड़ने की मायावती की चाहत के चलते उनकी पार्टी चौबेजी से छब्बेजी बनने के चक्कर में दुबेजी बनकर ना रह जाये।

 

सम्प्रति-लेखक श्री अरूण पटेल अमृत संदेश रायपुर के कार्यकारी सम्पादक एवं भोपाल के दैनिक सुबह सबेरे के प्रबन्ध सम्पादक है।