
रविवार को बाड़मेर की चुनावी रैली में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का यह बड़बोलापन हतप्रभ करने वाला है कि ”पाकिस्तान के न्यूक्लियर पावर होने की धमक दिखाने वाला पाकिस्तान यह समझ ले कि हमारे पास जो न्यूक्लियर बम है, वह दीवाली के लिए रखा है क्या? हमने पाकिस्तान की सारी हेकड़ी निकाल दी है, उसे कटोरा लेकर घूमने को मजबूर कर दिया है”। बाड़मेर की रैली में न्यूक्लियर बटन का दबदबा दिखाने वाले मोदी ने गुजरात के पाटण की सभा में देशवासियों को कल्पनाओं की उड़ान भरने का नया सामान दिया कि ”एयर-स्ट्राइक के बाद पाकिस्तान दूसरे दिन ही पायलट अभिनंदन को नही लौटाता तो वह दिन उसके लिए कतल की रात होती”।
मोदी को सुनकर देश की तकदीर पर कोफ्त होने लगती है। यह भारत की बदनसीबी ही है कि मोदी आजादी के आंदोलन के वक्त अवतरित क्यों नहीं हुए, अथवा आजादी की रात उनके हाथों में देश की बागडोर क्यों नहीं थी अथवा 1962 में चीन-युध्द के समय देश की रक्षा के सूत्र उनके हाथों में क्यों नहीं थे अथवा 1965 में पाकिस्तान को परास्त करने के बाद ताशकंद समझौते के वक्त वो मौजूद क्यों नहीं थे अथवा 1971 में बांग्लांदेश के समय वो प्रधानमंत्री क्यों नहीं हुए…? बाड़मेर में उन्होंने पूर्ववर्ती घटनाओं का जिक्र नहीं किया, लेकिन यह जरूर कहा कि 1971 की लड़ाई में पाकिस्तान का बड़ा हिस्सा और 90 हजार सैनिक भारत के कब्जे में थे। दुनिया के दबाव में हमने अपनी जमीन भी लौटा दी, सैनिकों को भी वापस कर दिया और जम्मू-कश्मीर समस्या को सुलझाने का एक अवसर गंवा दिया।
उपरोक्त थीसिस का विस्तार करें तो मोदी के विलम्बित राजनीतिक अवतार ही देश की समस्याओं का सबब हैं। यदि मोदी पहले आ जाते तो संभव है देश पचास-सौ साल पहले ही आजाद हो जाता… 15 अगस्त 1947 दिन वो होते तो पाकिस्तान अस्तित्व में नहीं आता…1962 में चीन हमला करने का दुस्साहस नहीं करता…1965 में पाकिस्तान को मटियामेट कर देते… बांग्लांदेश के बदले आजाद कश्मीर छीन लेते… आदि-आदि…। आजादी के पहले और आजादी के बाद, इतिहास का समीक्षात्मक निष्कर्ष यही है कि उपरोक्त काल-खंडों में मोदी के नहीं होने से भारत इन दुर्गतियों को प्राप्त हुआ है।
वैसे ईश्वर ने देश के ऐतिहासिक क्षणों में एक सशक्त (?) भूमिका का निर्वाह करने से मोदी को भले ही वंचित कर दिया हो, लेकिन उनके जोशो-खरोश को देख कर लगता है कि देश के आत्म-सम्मान के लिए वो कुछ भी कर गुजरने को तैयार हैं। इसीलिए वो 2015 में दिसम्बर के अंतिम सप्ताह में काबुल से लौटते हुए बिन बुलाए सारे प्रोटोकॉल को दरकिनार करते हुए पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के जन्मदिन पर केक खाने पहुंच गए थे। दो घंटे के प्रवास से अभिभूत मोदी ने लौटते हुए नवाज शरीफ से कहा था कि ‘अब यहां आना-जाना लगा रहेगा’।आने-जाने के इसी क्रम में जनवरी 2016 में पठानकोट स्थित सैन्य-ठिकानों पर आतंकी-हमला हुआ था। इसके बाद मोदी ने पहली मर्तबा दुश्मन देश की जांच एजेऩ्सियों को भी एयरबेस पर जांच-पड़ताल की इजाजत देकर अपने आने-जाने के वादे को निभाया था।
मोदी कह चुके हैं कि परमाणु बम दीवाली की आतिशबाजी के लिए नहीं हैं। इस धमक से पाक अधिकृत कश्मीर का मसला तो सुलझाया ही जा सकता है। क्या मोदी ऐसी ऐतिहासिक भूमिका को दरगुजर करना चाहेंगे, जबकि एटम बम की चाबी उनके हाथों में है?
देश के चुनावों में एटम-बम, मिसाइल और तोपों का जिक्र पहली बार हो रहा है। देश की आंतरिक राजनीति में एटम बम का जिक्र निरंकुश, मदांध और निष्ठुर मानसिकता को दर्शाता है, क्योंकि नागासाकी और हिरोशिमा की कहानियां अभी भी लोगों का खून जमा देती हैं। इंटरनेशनल पोलिटिक्स में सभी देश जानते है कि किस देश की चादर कितनी लंबी है। जाहिर है कि मोदी के भाषणों से पाकिस्तान डरने वाला नहीं है।फिर मोदी यह दांत किसे दिखा रहे हैं? मोदी की भाव-भंगिमाओं से पता चलता है कि वो लोकसभा का चुनाव नहीं, बल्कि कोई युध्द लड़ रहे हैं और इस युध्द में वो अपने ही देशवासियों को ललकार रहे हैं। उनसे असहमत देशवासियों को धमकी दे रहे हैं अथवा उन्हें वोट नहीं करने वालों को गरिया रहे हैं, अथवा जिन लोगों ने 2014 में उनके खिलाफ मतदान किया था उन्हें व कोस रहे हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि मोदी ने 2019 के लोकसभा चुनाव को आतंकवाद के खिलाफ छद्म-युध्द में तब्दील कर दिया है। इस छाया-युध्द में देश के वो 70 प्रतिशत मतदाता निशाने पर हैं, जिन्होंने 2014 में मोदी को वोट नहीं दिया था। मोदी का यह एटीट्यूड लोकतंत्र के लिए शुभ-संदेश नहीं है।
सम्प्रति- लेखक श्री उमेश त्रिवेदी भोपाल एनं इन्दौर से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के प्रधान संपादक है। यह आलेख सुबह सवेरे के 24 अप्रैल के अंक में प्रकाशित हुआ है।वरिष्ठ पत्रकार श्री त्रिवेदी दैनिक नई दुनिया के समूह सम्पादक भी रह चुके है।
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