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भूपेश को चुनौती बाहर से नहीं भीतर से – दिवाकर मुक्तिबोध

दिवाकर मुक्तिबोध

इसी 17 को भूपेश बघेल सरकार के छ: माह पूरे हो गए। स्वाभाविक था वह बीते महीनों का हिसाब -किताब जनता के सामने रखती। वह रखा। सरकार के मंत्रियों ने राज्य के अलग-अलग स्थानों पर मीडिया से मुख़ातिब होते हुए सरकार के कामकाज का ब्योरा पेश किया। यह कोई रोमांचकारी नवीनतम लेखा-जोखा नहीं था जिससे प्रदेश की जनता अनभिज्ञ हो। उसके सारे काम आँखों के सामने हैं।जब सरकार के दिन पूरे होने को होते हैं , कार्यकाल समाप्ति के निकट होता है तो जनता को याद दिलाना जरूरी होता है कि उसने बीते सालों में उनके लिए क्या कुछ नहीँ किया । बघेल सरकार की अभी यह स्थिति नहीं है। उसके छ:महीनों में से तीन तो लोकसभा चुनाव व उसकी तैयारियों मे निकल गए और बचे हुए तीन महीनों में उसने जो काम किए हैं , वे यह उम्मीद “जगाते हैं कि यह सरकार काम करने वाली सरकार है, बेवजह ढिंढोरा पिटने वाली नहीं। इसलिए उसके कामकाज का समग्र आकलन करने के लिए कुछ इंतज़ार करना चाहिए , पाँच साल न सही, ढाई साल ही सही। तब नतीजे खुद-ब-खुद बोलने लग जाएँगे।

बीते दिसंबर में विधान सभा चुनाव में बंपर जीत के तुरन्त बाद जैसा कि मतदाताओं से कहा गया था , कांग्रेस सरकार ने चुनावी जन-पत्र में से कुछ महत्वपूर्ण संकल्पों पर अमल शुरू कर दिया।जनता का भरोसा कायम रखने के लिए यह जरूरी भी था। इनमें प्रमुख था ऋणग्रस्त किसानों से किया गया क़र्ज़ माफ़ी का वायदा। सहकारी संस्थाओं के क़र्ज़ के बोझ तले दबे सीमांत, लघु व मध्यम श्रेणी के किसानों का ऋण माफ़ होना , उनके बैक खातों में पैसे आना राहत भरा क़दम था। एक निर्धारित स्थिति में बिजली बिल के आधे होने से शहरी उपभोक्ताओं से किया गया वायदा भी पूरा हुआ। धान का समर्थन मूल्य बढ़ाने के साथ ही सरकार ने एक-एक कर और भी वायदे पूरे किए। प्रदेश कांग्रेस के एक पदाधिकारी के अनुसार छ: महीने में ही सरकार ने जन-पत्र में उल्लेखित आधे वायदे पूरे कर दिए हैं। जाहिर है , सरकार के पास अभी काफी वक़्त है। इसलिए अधिकांश समय रहते पूरे भी हो जाएँगे।पर जो शेष बचेंगे उनमें सबसे जटिल छत्तीसगढ में पूर्ण शराबबंदी का है। सरकार इस सवाल पर फँसी हुई है। और संभव है आख़िर तक फँसी रहे क्योंकि मामला भारी भरकम राजस्व की प्राप्ति का है।

दरअसल कांग्रेस के घोषणा -पत्र में शराब बंदी एक ऐसा मुद्दा था जो राज्य की करीब 95 लाख महिला मतदाताओं से संबंधित था। यानी शराब बंदी वोटों की राजनीति से प्रेरित थी। राज्य में शराब की दुकानें व भट्ठियाँ बंद करने तथा अवैध वितरण के ख़िलाफ़ ग्रामीण महिलाएँ वर्षों से लामबंद रही हैं। उन्होंने गाँव-गाँव में आंदोलन खडे किए तथा परिवारों की बर्बादी रोकने राज्य शासन से कई बार फ़रियाद की। लेकिन इसका कोई परिणाम नहीं निकला। यह एक ऐसा विषय था जिसमें होम करते हाथ जलने जैसी बात थी लिहाजा रमन सरकार इससे दूर ही रही। पर कांग्रेस ने इसे हवा दी व इस मुद्दे को लपक लिया जबकि वह बेहतर जानती थी कि बिना वैकल्पिक व्यवस्था के आय के इस महा स्रोत को रोकना आर्थिक दृष्टि से घाटे का सौदा है। पर विधान सभा चुनाव नज़दीक थे और जब रमन सरकार ने खुद शराब बेचने का फ़ैसला किया तब भूपेश बघेल को कड़ा एतराज़ जताने का मौक़ा मिल गया। उन्होंने रमन सरकार के फैसले की तीखी आलोचना की तथा शराब-नीति पर सवाल खडे किए। और तो और उन्होंने आरएसएस प्रमुख को पत्र भी लिखा। अपने घोषणा पत्र में प्रदेश कांग्रेस ने ऋण माफ़ी व धान का समर्थन मूल्य 2500 रूपए करने के साथ-साथ शराब-बंदी को एक प्रमुख संकल्प के रूप में शामिल कर लिया। इसका महिला मतदाताओं पर कितना असर पड़ा यह इस बात से जाहिर है कि चुनाव में कांग्रेस ने 90 में से 68 सीटें जीतीं। लेकिन अब कांग्रेस सत्ता में हैं। प्रदेश की आर्थिक दशा ऐसी नहीं है कि उनकी सरकार यह क़दम उठा सके। खुद मुख्यमंत्री बघेल ने संकेत दिया है कि पहले प्रदेश में दूध की नदियाँ बहनी चाहिए फिर शराब की बिक्री बंद होगी।यानी यह मामला टलता रहेगा हालाँकि सरकार ने इस पर विचार करने विधायक सत्यनारायण शर्मा की अध्यक्षता में एक कमेटी ज़रूर गठित कर दी है।

भूपेश बघेल पहली बार मुख्यमंत्री बने है। छ्त्तीसगढ़ व मध्यप्रदेशके दिनों में वे राज्य के मन्त्री रह चुके हैं अत: उन्हें राज-काज का ख़ासा अनुभव है पर एक ऐसे राज्य की कमान संभालना जहाँ 15 वर्षों तक भाजपा का शासन रहा हो और बेलगाम नौकरशाही का काफी हद तक भगवाकरण हो चुका हो, बहुत चुनौती भरा , कष्ट साध्य व तलवार की धार पर चलने जैसा है। इसलिए बीते छ:महीनों में ऐसे अनेक प्रसंग उपस्थित हुए हैं जिसमें अव्यावहारिकता झलकी , कार्य शैली की आलोचना हुई, और सरकार को बैकफ़ुट पर आना पड़ा तथा फ़ैसले बदलने पड़े। इसकी शुरूआत विवादित आईपीएस कल्लूरी की ईओडब्ल्यू में नई पदस्थापना से हुई। कुछ अरसे बाद थोक में हुए तबादले सरकार की मंशा के अनुरूप भले ही रहे हों पर उनमें पारदर्शिता का अभाव रहा व सामंजस्य का भी। मिसाल के तौर कुछ जिला कलेक्टरों को उनकी नई पदस्थापना के बाद हफ़्ते दो हफ़्ते में ही नया आदेश थमा दिया गया। राजधानी रायपुर में नई नई पदस्थ हुई एसपी पन्द्रह दिन भी नहीं रह पाईं। उन्हें अन्यत्र भेज दिया गया। ऐसी कुछ घटनाओं से जाहिर है कि सरकार व नौकरशाही के बीच विश्वास का संकट रहा। दरअसल सरकार की अभी भी दुविधा यह है कि वह प्रशासनिक दृष्टि से किस अफसर पर भरोसा करे , किस पर नहीं। हालाँकि इस बात की दुहाई दी जाती है कि नौकरशाही का कोई राजनीतिक धर्म नहीं होता । शासन किसी भी पार्टी का हो, वह निर्लिप्त रहती है। पर वास्तव में ऐसा होता कहाँ है? भाजपा का पन्द्रह वर्षों का शासन देख चुकी अफ़सरशाही को साधना, उसे विश्वास में लेकर उसके साथ तालमेल बैठाना बघेल सरकार के लिए चुनौती भरा है।

मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के साथ एक अच्छी बात यह है कि वास्तविकता का आभास होते ही वे तुरंत एक्शन में आ जाते हैं। आंदोलनों के पीछे जो भी ताकते हों, चाहे जैसी राजनीतिक मंशा हो , वे समाधान निकालने की कोशिश करते हैं। अभी हाल ही में बस्तर के बैलाडिला लौह अयस्क क्षेत्र की डिपाजिट नंबर 13 की नंदीराज पहाड़ी में उत्खनन व सर्वेक्षण का ठेका अड़ानी की कंपनी को दिए जाने के ख़िलाफ़ आदिवासियों ने अपने देवताओं की इस पहाड़ी को बचाने आंदोलन शुरू कर दिया था। मुख्यमंत्री के संज्ञान में यह बात आते ही उन्होंने काम बंद करवाने , पेड़ों की कटाई रोकने व फ़र्ज़ी ग्राम सभा मामले की जाँच के आदेश दिए। एक हफ़्ते के भीतर आंदोलन ख़त्म हो गया। एक और मामले को देखें। चंद रोज़ पूर्व सोशल मीडिया में बिजली कटौती पर डोंगरगढ के माँगीलाल अग्रवाल ने सरकार की कड़े शब्दों में आलोचना की।हद तो तब हुई जब पुलिस ने उसके ख़िलाफ़ राजद्रोह की धारा 124(ए) लगाते हुए एफ़आइआर दर्ज किया। इस धारा में गिरफ़्तारी का राज्य में यह दूसरा मामला है। इसके पूर्व वर्ष 2010 में माओवाद समर्थक व प्रख्यात मानवतावादी डाक्टर विनायक सेन को गिरफ़्तार किया गया था। बहरहाल मांगीलाल प्रकरण की ख़बर मिलते ही मुख्यमंत्री ने अफ़सरों पर गहरी नाराज़गी जाहिर की व राजद्रोह की धारा हटाने का आदेश दिया। इस मामले की भी जाँच चल रही है। सवाल है यह अति उत्साह में की गई पुलिस कार्रवाई थी या सरकार की छवि धूमिल करने की ? अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के पक्षधर मुख्यमंत्री ने त्वरित कार्रवाई तो की पर सवाल है ऐसा हो क्यों रहा है ? सरकार बदल गई लेकिन नौकरशाही बदलने तैयार क्यों नहीं है जबकि निर्वाचित सरकार के लोककल्याणकारी कार्यक्रमों को लागू करने की महती ज़िम्मेदारी उस पर है।

जाहिर है, मुख्यमंत्री को चुनौतियाँ बाहर से नहीं भीतर से है। उनके पास विश्वासपात्रों की कोई ऐसी टीम नहीं है जो नौकरशाही की नब्ज पहचानती हो तथा उस पर उँगली रखने का सामर्थ्य रखती हो। छ: माह के कामकाज का असर इसलिए नहीं दिख पा रहा है क्योंकि उसका लाभ समान रूप से लोगों तक नहीं पहुँच पा रहा है जबकि चुनावी वायदों के अलावा बहुतेरी ऐसी योजनाएँ बनी है जो लोक कल्याण की दृष्टि से बहुत बेहतर हैं। हाल ही में घोषित एक योजना के तहत आदिवासी अंचलों में कुपोषण के शिकार लोगों के लिए पोषण आहार की व्यवस्था रहेगी और साथ ही साप्ताहिक हाट-बाज़ारों में मोबाइल चिकित्सा की सुविधा भी उपलब्ध रहेगी।वंचित लोगों के स्वास्थ्य की दृष्टि से यह योजना जरूरी व उपयोगी है बशर्ते इसकी सतत मानिटरिंग हो। क्या सरकार इसे सुनिश्चित कर सकती है ? इसी तरह ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने नरवा , गरूवा ,घुरवा व बाड़ी अभिनव योजना है। कुछ- कुछ पूर्व राष्ट्रपति स्वर्गीय एपीजे अब्दुल कलाम के उस स्वप्निल योजना की तरह जिसमें अलग-अलग क्षेत्रों में गाँवों का संकुल बनाकर वहाँ शहरों जैसी सुविधाएँ उपलब्ध कराने की बात थी।फ़ंड की व्यवस्था के बावजूद यूपीए सरकार की यह योजना परवान नहीं चढ़ सकी। नरवा-गरूवा का कंसेप्ट भी ऐसा ही है। गाँवों को स्वावलंबी बनाना। बचे साढ़े चार साल में बघेल सरकार ने यदि इस पर ढंग से अमल किया तो राजनीतिक स्तर पर कांग्रेस को जो फ़ायदा होना है , वह तो होगा ही ,महत्वपूर्ण यह है कि ग्रामीण छत्तीसगढ की तस्वीर बदल जाएगी। घोर आर्थिक संकट से जूझ रही कांग्रेस सरकार के खाते में क्या यह यश आएगा ?

 

सम्प्रति-लेखक श्री दिवाकर मुक्तिबोध छत्तीसगढ़ के प्रतिष्ठित पत्रकार है।श्री मुक्तिबोध कई प्रमुख समाचार पत्रो के सम्पादक रह चुके है।