औरंगाबाद में बदनापुर और करमाड़ के बीच शुक्रवार को तड़के एक मालगाड़ी की चपेट में आने वाले 16 प्रवासी मजदूरों की मौत की यह कहानी कोरोना की चपेट में कहीं सिसक-सिसक कर दम नहीं तोड़ दे… क्योंकि यह हादसा उऩ तमाम मंसूबो पर पानी फेर सकता है, जो न्यू-इंडिया के आसमान पर सितारे टांकने के लिए बेताब हैं…यह उस विचार को नंगा करता है, जिसके वजूद में बांटने की फितरत काम करती है… देश में सोच-समझने की जमीन पर नफरत और खून-खराबे की खतरनाक खरपतवार उग आई है, जिसके कांटे पैरों को लहूलुहान कर रहे हैं…।
इस हादसे के बाद यह सवाल छप्पन इंच का सीना तान कर खड़ा हो गया है कि हमारे नीति-नियंताओं के सोच-विचार के दायरे में देश के सौ करोड़ लोगों की मुफलिसी और भुखमरी के सवाल सुर्ख होंगे अथवा नहीं… देश मे सोचने- समझने का कोई नया सिलसिला शुरू होगा अथवा नहीं… रेलवे ट्रैक पर मजदूरों की लाशों के साथ बिखरी सूखी रोटियां, जो उन्होंने खाने के लिए अपने पास रखीं थी, उऩकी आंखों को नम करेंगी अथवा नहीं…। भूखे और थके-हारे परदेसी मजदूरों की घर-वापसी की राहों का इस तरह मौत की घाटियों में एकाएक खो जाना दिलो-दिमाग को सुन्न सा कर देता है…। यह हादसा मजदूरों के उस सच की बानगी है, जिसे न्यू-इंडिया और उसके नियंता नकारते हैं। भारत को विश्व गुरू बनाने को तत्पर सत्ताधीश जमीनी-हकीकतों से कोसों दूर हैं। पचास करोड़ रोजनदार मजदूरों की भूख और मुफलिसी जिस्म में लहू की तरह देश की रग-रग में बह रही है। आईटीयूसी विश्व अधिकार सूचकांक की रिपोर्ट के मुताबिक भारत दुनिया के उन पहले दस मुल्को में शरीक है, जहां मजदूरों को सबसे बुरे हालात का सामना करना पड़ रहा है। सामान्य दिनों में मजदूर हाशिए पर सिमटा रहता है। लेकिन कोरोना संकट ने विरोधाभासी परिस्थितियों को नंगा कर दिया है। देश के 1000 ’सुपर-रिच’ और ’रिच’ परिवारों व्दारा अर्जित 50 लाख करोड़ के स्वर्ण मंडित कैनवास में पचास करोड़ नंगे-फटेहाल गरीबों की स्याह उपस्थिति ने केन्द्र सरकार की नीतियों का सच उजागर कर दिया है।
प्रवासी और दिहाड़ी मजदूरों के पलायन ने भूख के वास्तविक आकार को सामने खड़ा कर दिया है। । सरकार दो-चार दिन भी देश की भूख से निपटने में सक्षम प्रतीत नही हो रही है। गरीबी के निदान के लिए मानवता से भरपूर सामाजिक सरोकार जरूरी है…। लेकिन राजनीति और मीडिया के गलियारों में घटना के बाद पसरा सामाजिक पथरीलापन और परम्परागत तकनीकी औपचारिकताओं का सिलसिला वितृष्णा पैदा करता है। सरकार में ऊपर से नीचे तक, यह सबको पता है कि कौन क्या कहेगा और कौन क्या करेगा? लेकिन इससे ज्यादा त्रासद समाज में पनपती वो मनोवृत्तियां हैं, जो लाखो-करोड़ों लोगों की मुफलिसी और मजबूरियों पर सवाल उठाती है, कटाक्ष करती हैं।
राजनीति में पक्ष-विपक्ष का अपना मिजाज होता है। लोकतंत्र राजनीति की उदार आचार-संहिता का अनुपालन करता है। लोकतंत्र में सत्ता के कार्यकलापों पर सवालिया निशान खड़े करना विपक्ष की जिम्मेदारी है । लेकिन वर्तमान दौर में, सरकार की शह पर, सोशल मीडिया पर गरीबी और भूख के सवालों की छीछालेदर समाज के खोखलेपन और पथरीलेपन को उजागर करती है। प्रवासी श्रमिकों के सिलसिले में कांग्रेस नेताओं के ट्वीट के जवाब में भाजपा की ट्रोल-सेना के कटाक्ष और उपहास समाज की संवेदनाओं में घुल रहे पथरीलेपन को रेखांकित करते हैं। ट्रोल सेना का सवाल भीतर तक हिला देता है कि प्राण गंवाने वाले सोलह मजदूर पटरियों पर सोने क्यों चले गए? किसी मनुष्य के भीतर उगने वाला यह राक्षसी सवाल समाज के हिंसक-विचलन का प्रतीक है। इस घटना के बाद जमीन से आसमान तक पसरे सन्नाटे में प्रसिद्ध कवि अवतार सिंह पाश की कविता की कुछ पंक्तियां वक्त के मुकाबले लोगों को खड़ा करती हैं- सबसे खतरनाक वो आंख होती है, जिसकी नजर दुनिया को मोहब्बत से चूमना भूल जाती है…जो एक घटिया दोहराव क्रम में खो जाती है…सबसे खतरनाक होता है वो गीत जो मरसिया की तरह पढ़ा जाता है, आतंकित लोगों के दरवाजे पर गंडी की तरह अकड़ता है…।
पाश की पंक्तियां सरकारी-नेताओं की मरसिया पढ़ने जैसी औपचारिकताओं की ओर इशारा करती हैं। अनुगूंज होती है कि ’हम बड़ी बेशर्मी के साथ शर्मसार हैं’। पाश की कविता के साथ रेल की पटरियों पर बिखरी रोटियां मर्म को कुरेदने लगती हैं… राष्ट्रकवि माखनलाल चतुर्वेदी की प्रसिध्द कविता है ’पुष्प की अभिलाषा’। इसमें फूल कवि से कहता है कि उसे उन राहो पर चढ़ाया जाएं, जिनपर शहीद चलते हैं… लगता है कि ’पुष्प की अभिलाषा’ की तरह ’एक रोटी की चाह’ भी परिस्थितियों का आभास दे रही है- पटरियों पर बिखरी रोटियां भी कह रही हैं… मुझे बटोर लेना राष्ट्र-भक्तों…उस पथ पर देना फेंक…घर-आंगन की चाहत में जिस पथ पर चले भूखे श्रमिक अनेक…। देश के कथित (?) राष्ट्र-भक्त के लिए यह बड़ी चुनौती है…।
सम्प्रति-लेखक श्री उमेश त्रिवेदी भोपाल एवं इन्दौर से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के प्रधान संपादक है।यह आलेख सुबह सवेरे के 09 मई के अंक में प्रकाशित हुआ है।वरिष्ठ पत्रकार श्री त्रिवेदी दैनिक नई दुनिया के समूह संपादक भी रह चुके है।