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मृत्यु का दर्शन क्या हो ?- रघु ठाकुर

रघु ठाकुर

गत 03 जुलाई 21 की रात 11 बजे मुझे एक डा.मित्र ने सूचना दी की डा.एच.एन. भूरिया ने भोपाल में अपने घर में फाँसी लगाकर आत्महत्या कर ली है।उन्हें यह जानकारी कहीं से मिली थी कि डा.भूरिया कुछ दिनों पहले कोविड से पीड़ित हुये थे। यद्यपि वे उससे स्वस्थ्य हो चुके थे। इसके अलावा भी उन्हें हृदय रोग व अन्य कई शारीरिक परेशानियां थी परन्तु वे स्वस्थ दिखते भी थे और स्वस्थ थे भी।

डा.भूरिया की मृत्यु वह भी आत्महत्या मुझे व्यक्तिगत रूप से पीड़ादायक तो है ही परन्तु आश्चर्यजनक भी है।एक हँसमुख, सक्रिय, मिलनसार और सहयोगी चिकित्सक ने आखिर आत्महत्या का रास्ता क्यों चुना? यह कौन सी निराशा या अवसाद था जिसके कारण उन्होंने ऐसा कदम उठाया? पिछले दिनों कोरोना के विशेषतः दूसरे चरण में बहुत लोगों की मृत्यु हुई है। इनमें से एक बड़ा हिस्सा उन लोगों की मौत का है जो अस्पतालों में भर्ती थे। अच्छा इलाज चल रहा था परन्तु आसपास के पलंग पर भर्ती बीमारों की मृत्यु से घबरा कर वे साहस छोड़ बैठे और मौत के शिकार हो गये। अतः यह प्रश्न भी उठता है कि आखिर ये लोग इतने भयभीत क्यों हुये कि अपनी ही जान दे बैठे?

हमारा भारतीय दर्शन लगभग सभी धर्म इंसान को मृत्यु के भय से मुक्त कराते है और मृत्यु को एक प्रकार से मुक्ति मानते है। हिन्दू धार्मिक ग्रंथ शरीर को नश्वर बताते है, और आत्मा को अमर बताते है। यानि शरीर की मृत्यु के बाद आत्मा को अमर बताते है। तात्पर्य मृत्यु के बाद व्यक्ति की आत्मा उसके पुराने कार्यों के आधार पर किसी नये चोले में जिसे ईश्वर तय करते है, उस योनि में प्रवेश कर जाती है। जैन दर्शन भी मृत्यु को देह परिवर्तन मानता है, इस्लाम भी इंसान की मौत को अस्थाई मानता है क्योंकि करबला के दिन वह अल्लाह के सामने पुनः तलब किया जाता है। तुलसीदास ने तो रामायण में लिखा है कि ‘‘हानि लाभ जीव मरण जस अपजस विधि हाथ’’ फिर भी व्यक्ति जब भयभीत होकर जीवन त्यागता है तो वह मृत्यु कहीं न कहीं व्यक्ति के अपने मोह के कारण होती है। इंसान कितना ही जोर से चिल्लाये की मौत तो एक दिन आनी है वह निश्चित है उसे कोई रोक नहीं सकता जीवन और मृत्यु इंसान के हाथ में नहीं है परन्तु यह सब केवल मौखिक और दिखावे के जुमले है। कहीं न कहीं अन्तर मन में व्यक्ति इतना मोह ग्रस्त है कि अगर उसका बस चले तो वह अपने आप को अमर घोषित कर दे।

इन घटनाओं ने मुझे सोचने को विवश किया कि आखिर मृत्यु क्या है? और मृत्यु का दर्शन क्या हो? वीर रस के गायक वाचक कहते हैं कि ‘‘कायर हर क्षण मरता है और वीर एक दिन’’। एक अर्थ में यह सही भी लगता है कि कायर कमजोर व्यक्ति हर क्षण अपमान सहता है अपने विचारों की बलि देता है। दब्बू बन कर जीता है और ऐसा जीवन भी मृत्यु के समान है। इसका निष्कर्ष यही है कि निर्भयता जीवन है और भयभीत होना मृत्यु है। परन्तु क्या वास्तव में जीवन या मृत्यु कि व्याख्या इतने ही तक सीमित है। मुझे लगता है कि जीवन-मृत्यु की परिभाषा कुछ और गहरी होना चाहिये। क्या केवल सांसों के चलते रहना शरीर का चलते रहना, खाना पीना और सो जाना पेट भरने के लिये कुछ रोजगार करना जश्न मनाना और उत्सव प्रेमी बने रहना यही मात्र जीवन है। मैं समझता हूं कि जीवन की सार्थकता और जीवन का अर्थ यह है कि व्यक्ति अपने लिये, यानि अपने खुद के लिये, परिवार के लिये कितने समय काम करता है और समाज के लिये या परमार्श के लिये कितना समय देता है। स्वार्थ मृत्यु है और परमार्श जीवन है।

वैसे भी अगर हम लोग एक जीवन के कालखण्ड का गणितीय विश्लेषण करें तो हम स्वतः चौक जायेंगे। व्यक्ति के जन्म के बाद लगभग 1-5 वर्ष में वह माता-पिता या अन्यों के सहारे अपने खुद को बनाने के लिये जिंदा रहता है। यह इंसान के शरीर के निर्माण का कार्यकाल है। 5 वर्ष से लेकर औसतन 20 वर्ष तक वह अपने आप को शिक्षित करने के लिये आर्थिक चुनौतियों का सामना करने के लिये रोजगार या अपनी चयनित विधा के लिये तैयार करता है। यह भी उसकी निजी आवश्यकता है। उसके बाद के लगभग 40 वर्ष अपवाद छोड़े तो वह नौकरी, धंधे, रोजगार आदि में प्रमुख तौर पर लगता है। अगर प्रतिदिन के आधार पर आंकलन करें तो व्यक्ति के जीवन के प्रतिदिन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये उसके 12 घण्टे निकल जाते है। सोना खाना-पीना और अन्य दैनिक कार्य में समय जाता है यानि एक व्यक्ति 70 वर्ष तक जीता है तो उसके 20 वर्ष उसके व्यक्ति के निर्माण की प्रक्रिया में कम से कम चले जाते है। शेष 50 वर्षों में से प्रतिदिन 12 घण्टे की दर से यानि 25 वर्ष उसके जीवन के प्रतिदिन की क्रियाओं में चले जाते है। अमूमन 60 वर्ष के बाद जो बीमारियां व्यक्ति को घेरती है उनके ईलाज-दवा-ईलाज के प्रभाव में औसतन 4 से 6 घण्टे निकल जाते है। अगर इसकी गणना की जाय तो 60 के बाद के 10 वर्षों में से करीब-करीब ढाई से तीन वर्ष बीमारियों के इलाज आदि पर खर्च हो जाते है। यानि न्यूनतम 20 वर्ष व्यक्ति निर्माण की प्रक्रिया में, 35 वर्ष प्रतिदिन की क्रियाओं में, और ढाई तीन वर्ष बीमारियों के सामान्य ईलाज में चला जाता है। मैं इसका यह अर्थ निकालता हूं कि अपने जीवन के 70 वर्ष में से 50 वर्ष हम केवल अपने लिये जीते है और इसे जीवन नहीं मानना चाहिये।

पेट के लिये या रोजगार के लिये शेष 20 वर्षों में से 10 घण्टे रोज के हिसाब से निकाले तो यह समय भी लगभग 4-5 वर्ष हो जाता है, यानि एक व्यक्ति सामान्य तौर पर मुश्किल से 10 वर्ष जिंदा रहता है, शेष को तो मृत जैसा ही मानना चाहिये। अगर उस वक्त को भी हम राग रंग और उत्सवों में बिता देते हैं तो यह मानना चाहिये कि हम पैदा होकर मर गये या फिर मृत रूप में जिंदा रहे।

आजकल उत्सव बहुत धर्मिता ज्यादा बड़ी है। जहां एक तरफ व्यक्ति भोग विलासी, लालची और आत्म केन्द्रित बना है वहीं दूसरी तरफ बाजार ने व्यक्ति को मानसिक रूप से इतना जकड़ लिया है, कि वह बाजार के उत्पादको का खरीददार या उपभोगता जैसा बनकर रह गया है। अमूमन लोग अपनी वर्ष गांठ पर उत्सव मनाते है, यानि 70 वर्ष के जीवन से 60-65 दिन केवल अपने जन्मदिन मनाने के नाम पर बर्बाद करते है। लोग भूल जाते है कि जिस जन्मदिन की खुशियां मना रहे है वह वस्तुतः आपके जीवन को एक वर्ष कम करने का दिन है। यानि आप अपनी मृत्यु की ओर एक कदम बढ़ाने पर खुशियां मनाते है। फिर यह परंपरा अकेले खुद को नहीं बल्कि पूरे परिवार और समूचे मित्र मण्डल की होती है यानि एक व्यक्ति जो खुद का जन्मदिन का जश्न मनाता है, उसे साल में कम से कम 30-40 परिजनों या मित्रों के जन्मदिन भी मनाना पड़ेंगे। यानी कार्य के 10 वर्षों में से हमने 5 वर्ष जन्मदिन के आयोजनों में गंवा दिये इसी प्रकार शादी विवाह – तेरहवीं आदि के लगने वाले समय की गणना करे तो 5-7 वर्ष का कालखण्ड इन पर भी चला जायेगा। यह कटु तो है पर क्या यह सत्य नहीं है कि क्या हम केवल स्वयं के लिये जीकर अपने जीवन की निरर्थकता सिद्ध करते है। क्या हम केवल औपचारिक मृत्यु के लिये ही जिंदा नहीं है।

जब हम किसी अन्याय या गलत काम के सामने मूक दर्शक बन जाते है तो क्या यह भी मृत्यु नहीं है? जीवन और मृत्यु का फर्क व्यक्ति के बोलने और चुप्पी में है। नींद को अल्पमृत्यु जैसा माना जाता है क्योंकि नींद में व्यक्ति बोलता नहीं है। मृत्यु के बाद इंसान का शरीर कुछ समय तक सुरक्षित रह जाता है, परन्तु उसे मृत मानकर जलाया जाता है, क्योंकि वह बोलता नहीं है। जीवन और मृत्यु का फर्क एक अर्थ में यह भी है कि इंसान अपने सामने की घटनाओं पर मुखर हो, अन्याय के खिलाफ मुखर हो परमार्थ के लिये जिये। अगर वह यह नहीं करता है, तो उसे मृत जैसा ही माना जाना चाहिये।

मौत के दो प्रकार है – एक जिंदा मौत दूसरी मरण मौत। आज के समय त्रासदी यह है कि अधिकांश लोग जिंदा मुर्दा है और मैं समझता हूं कि मुर्दा जिंदा मुर्दा से बेहतर है। मुर्दा अनाज नहीं खाता, मुर्दा पानी नहीं पीता, मुर्दा समाज से भी कुछ नहीं लेता, मुर्दा अन्याय भी नहीं देखता। इस सदी का यक्ष प्रश्न यही है कि हम इंसान बनना चाहते है या जिंदा मुर्दा? मेरे ख्याल से इस एक प्रश्न में ही जीवन मृत्यु का जीवन समाहित है। अगर व्यक्ति जीवन मृत्यु के इस दर्शन को समझ लेगा तो भय अवसाद की मौतें स्वतः समाप्त हो जायेंगी।

सम्प्रति- लेखक श्री रघु ठाकुर देश के जाने माने समाजवादी चिन्तक है।प्रख्यात समाजवादी नेता स्वं राम मनोहर लोहिया के अनुयायी श्री ठाकुर लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी के संस्थापक भी है।