उत्तर प्रदेश की 18वीं विधानसभा के गठन के लिए चुनाव की तारीखों की घोषणा हो चुकी हैं। इनमें पाँच अवसरों 1967,1977,1989 और 1991और 1993 की विधानसभाएं अलग-अलग कारणों से अपना पांच वर्ष का कार्यकाल नहीं पूरा कर सकीं थीं, जिसके परिणामस्वरूप 1969,1980,1989,1991 और 1996 में प्रदेश में मध्यावधि चुनाव हुए थे। आजादी के पहले का समय जोड़ा जाए तो प्रदेश विधानमंडल की यात्रा अब 135 वर्ष पूरी कर रही है। हालांकि 1887 में इसकी शुरुआत के समय इसका और प्रदेश दोनो का ही नाम भिन्न था।
प्रदेश का नाम ही नही उसके विधानमंडल का स्वरूप भी समय के साथ बदलता रहा। इंडियन काउंसिल एक्ट 1861 के अंतर्गत नार्थ वेस्टर्न प्रॉविंस एंड अवध के लिए पहली बार 1887 में लेजिस्लेटिव काउंसिल गठित की गई। नौ सदस्यीय काउंसिल में नामित चार भारतीय सदस्य राजा प्रताब नारायण सिंह, सर सैय्यद अहमद खान , राय बहादुर दुर्गा प्रसाद और पंडित अजुध्या प्रसाद सम्मिलित थे। एक्ट में 1892 के संशोधन के उपरांत भारतीय सदस्यों की संख्या 15 हो गई। 1909 में मार्ले- मिण्टों सुधारों के तहत यह संख्या 50 हो गई लेकिन भारतीयों की प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष निर्वाचन की मांग स्वीकार नही की गई। गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1915 के अधीन राज्यों के विधान मण्डलों के गठन में मूलभूत परिवर्तन आया। इस अधिनियम में निर्वाचन का प्रावधान किया गया और सदस्य संख्या 116 कर दी गई। 1919 के संशोधन बाद यह संख्या 123 हो गई।
गठन के लगभग 45 वर्षों बाद तक लेजिस्लेटिव काउंसिल का अपना कोई भवन नही था। इन वर्षों में काउंसिल की कुल 154 बैठकें चार नगरों के 11 भवनों में हुईं। 27 जनवरी 1920 को लखनऊ के गवर्नमेंट हाउस में एक बैठक में काउंसिल के लिए लखनऊ में ही स्थायी भवन के निर्माण का निर्णय लिया गया। 1921 में काउंसिल का पहला चुनाव हुआ। चूंकि गवर्नर ,मंत्रियों और सचिवों आदि को लखनऊ में ही रहना था, इसलिए गवर्नर ने इलाहाबाद की जगह मुख्यालय लखनऊ कर दिया। 1935 तक इलाहाबाद से सभी प्रमुख कार्यालय लखनऊ स्थानांतरित हो गए और राज्य की राजधानी लखनऊ बना दी गई। यह भवन जिसमें वर्तमान विधानभवन है, की आधारशिला 15 दिसम्बर 1922 को तत्कालीन गवर्नर हरकोर्ट बटलर ने रखी। इस भव्य भवन का निर्माण कलकत्ता की मार्टिन एंड कम्पनी द्वारा कराया गया। निर्माण हेतु 21 लाख रुपया स्वीकृत हुआ था। आर्किटेक्ट थे सर सिवनोन जैकब और हीरा सिंह। निर्माण में छह वर्ष का समय लगा। 21 फरवरी 1928 को नए भवन का उद्घाटन हुआ। 27 फरवरी 1928 को इसमें पहली बैठक हुई। काउंसिल की बैठकों के लिए अलग चैंबर का प्रस्ताव जुलाई 1935 में हुआ। इसका निर्माण मेसर्स फोर्ड एंड मैकडॉनल्ड को सौंपा गया। मुख्य आर्किटेक्ट ए.एम.मार्टीमर द्वारा पी.डब्लू.डी.की देखरेख में एक्सटेंशन भवन का निर्माण कराया गया। गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 के 1 अप्रैल 1937 से प्रभावी होने के बाद सभी राज्यों की लेजिस्लेटिव काउंसिल का नाम बदलकर असेम्बली हो गया। अन्य राज्यों के साथ यूनाइटेड प्रॉविंस विधानमंडल को भी द्विसदनीय कर दिया गया। असेम्बली की सदस्य संख्या 228 और काउंसिल की संख्या 60 निर्धारित की गई। स्वाधीन भारत का संविधान लागू होने के बाद राज्यों की असेम्बली को विधानसभा और काउंसिल को विधान परिषद का नाम दिया गया। विधानसभा के लिए 431 और विधान परिषद के सदस्यों की संख्या 72 निश्चित की गई, जो 1958 के संशोधन पश्चात 108 हो गई। 1966 के संशोधन के जरिये विधानसभा की सदस्य संख्या 426 हुई। 2000 में उत्तराखंड गठन के बाद यह संख्या घटकर 404 और परिषद की सदस्य संख्या 100 की गई।
सर नवाब मुहम्मद सईद खाँ(नवाब छतारी) प्रदेश के पहले प्रीमियर (मुख्यमंत्री) हुए। 1937 में बुलंदशहर पश्चिमी से नेशनल एग्रीकल्चरिस्ट पार्टी के टिकट पर निर्वाचित नवाब का प्रीमियर का कार्यकाल 3 अप्रेल 1937 से 16 जुलाई 1937 था। राज्य के दूसरे प्रीमियर पंडित गोविंद बल्लभ पंत ने प्रदेश का तीन बार नेतृत्व किया। प्रथम बार 17 जुलाई 1937 से 2 नवम्बर 1939 तक, दूसरी बार 1 अप्रेल 1946 से 20 मई 1952 और तीसरी बार 20 मई 1952 से 27 दिसम्बर 1954 तक। 29 जुलाई 1937 को असेम्बली की पहली बैठक हुई। राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन अध्यक्ष और अब्दुल हकीम उपाध्यक्ष चुने गए। अध्यक्ष चुने जाने के बाद टंडन जी को अपने दल से इस्तीफा दे देना चाहिए था लेकिन देश की तत्कालीन परिस्थितियों को देखते हुए उन्होंने ऐसा नही किया। अध्यक्ष के रूप में अपनी निष्पक्षता के आश्वासन में उन्होंने सदन को आश्वस्त दिया कि यदि विपक्ष के कुछ लोग उन पर अविश्वास की एक चिट भी भेज देंगे तो तुरंत वह पद त्याग देंगे। इस समय तक सदन की भाषा अंग्रेजी थी। कतिपय सदस्यों ने इस बात पर बल दिया कि केवल उन्ही सदस्यों को हिंदुस्तानी में बोलने की अनुमति दी जाए जो अंग्रेजी में नही बोल सकते हैं। 3 अगस्त 1937 को सदन की भाषा विषयक नियमों की व्याख्या करते हुए अध्यक्ष टंडन जी ने व्यवस्था दी कि यदि कोई माननीय सदस्य हिंदी में बोलना चाहें तो उन्हें आपत्ति नही है। इस व्यवस्था ने सदस्यों को हिंदी में बोलने की सुविधा दे दी। स्वतंत्रता के बाद असेम्बली की पहली बैठक 3 नवम्बर 1947 को हुई। अगले ही दिन 4 नवम्बर को सदन ने संकल्प पारित किया कि विधानसभा की सभी कार्यों तथा कार्यवाहियों में केवल हिंदी भाषा का प्रयोग किया जाए। 1950 में उत्तर प्रदेश भाषा अधिनियम पारित करके विधेयकों एवम अधिनियमों के लिए तथा 1951 में उत्तर प्रदेश राज्य भाषा अधिनियम के माध्यम से सरकारी काम-काज के लिए हिंदी भाषा को स्वीकार किया गया। 26 जनवरी 1950 को राष्ट्र ने अपना संविधान अंगीकार किया। इसके साथ ही राज्य का नाम यूनाइटेड प्रविन्सेज के स्थान पर उत्तर प्रदेश और लेजिस्लेटिव असेम्बली का नाम विधानसभा हुआ।
सम्प्रति- लेखक श्री राजखन्ना वरिष्ठ पत्रकार है।श्री खन्ना के आलेख देश के प्रतिष्ठित समाचार पत्रों,पत्रिकाओं में निरन्तर छपते रहते है।श्री खन्ना इतिहास की अहम घटनाओं पर काफी समय से लगातार लिख रहे है।