जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री श्री फारुक अब्दुल्ला के पाक अधिकृत कश्मीर के बारे में दिये गये बयानो के बाद कश्मीर का सवाल फिर चर्चा में है। कुछ दिनों पहले उन्होंने यह बयान दिया था कि पी.ओ.के जो कि पाकिस्तान अधिकृत है और इससे लड़ना अब भारत को संभव नही है। इसी विचार को उन्होंने पुनः दोहराया है, उन्होंने पत्रकारों से कहा कि पाकिस्तान पी.ओ.के को जम्मू कश्मीर का हिस्सा बनाने की इजाजत नही देगा। पाकिस्तान कोई कमजोर मुल्क नही है। उन्होंने भारत सरकार की ओर इशारा करते हुये कहा कि पी.ओ.के कोई इनके बाप का नही है हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि पी.ओ.के पाकिस्तान का है और जम्मू कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है।
उनका यह कथन कोई अभी पहली बार आया हो ऐसा नही है मुझे याद है जब वे श्री वाजपेयी सरकार में केन्द्र के मंत्री थे तब भी उन्होंने म.प्र.के छिन्दवाड़ा जिले के एक कार्यक्रम के दौरान कहा था कि पी.ओ.के को विभाजन रेखा माना जाना चाहिये याने पी.ओ.के को पाकिस्तान को दे देना चाहिये और जम्मू कश्मीर भारत का रहे। उनका यह बयान तब भी आंवछित और भारत की सर्वसम्मति नीति के खिलाफ था, क्योंकि 1993 में भारत की संसद ने सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित किया था जिसमें कहा था कि समूचा जम्मू कश्मीर पी.ओ.के सहित भारत का अभिन्न अंग है। इस प्रस्ताव पर बतौर सांसद फारुक अब्दुल्ला की पार्टी की भी सहमति थी और भाजपा की भी थी। उसके बाद अचानक उनके मन में यह कल्पना कैसे पैदा हुई यह कहना कठिन है। हालांकि तब प्रधानमंत्री श्री वाजपेयी जी ने न उनके खिलाफ कोई टिप्पणी की थी न मंत्रिमंडल से हटाया था। अपने स्वभाव व राजनैतिक आवश्यकतानुसार मामला रफा-दफा कर दिया। यद्यपि कांग्रेस उस समय विपक्ष में थी परन्तु कांग्रेस ने भी इस गलत बयानी को मुद्दा नही बनाया।
दरअसल पिछले करीब-करीब चार दषकों से फारुक अब्दुल्ला की पार्टी कांग्रेस, भाजपा दोनो की समय-समय पर सहयोगी पार्टी रही है।जब कांग्रेस सरकार आई तो उसके साथ रहे और इसके पहले जब भाजपा की अल्पमत वाली मिली जुली सरकार आई उसमें भी फारुख साहब मंत्री पद पर रहे। इसलिये इन दोनो पार्टियो से उन्होंने कभी उनके साथ स्थाई संबध विच्छेद नही किये। फारुक अब्दुल्ला का परिवार भी समय व आवश्यकतानुसार उलट-पलट करता रहा। परन्तु इस बार 2014 संसदीय चुनाव के बाद राजनैतिक स्थिति में भारी बदलाव हुआ, भाजपा को संसद में स्पष्ट बहुमत प्राप्त हो गया और जम्मू कश्मीर चुनाव के बाद भाजपा और महबूबा मुफ्ती की पार्टी का गठजोड़ सत्ता में आ गया। फारुक साहब की नेशनल कांफ्रेस को उम्मीद थी कि भाजपा और महबूबा मुफ्ती का गठजोड़ ज्यादा दिन नही चल सकेगा।परन्तु दोनो की सत्ता आकांक्षा की व्यवहारिक सोच ने गठजोड़ कायम रखा और महबूबा मुफ्ती ने जिनके ऊपर भाजपा आंतकवादियों का समर्थक होने का आरोप लगाती रही थी ने अपनी रणनीति को बदला तथा पत्थरबाजो के खिलाफ खुलकर बयान दिया और लाइन भी ली। अलगाववादी संगठन और व्यक्तियो के आर्थिक स्रोत की जांच और कार्यवाही से भी श्रीनगर के इलाके में अलगाववादी कमजोर हुये और चुनावी सभाओं के दृष्टि कोण से महबूबा भाजपा गठजोड़ बहुत पीछे नजर नही आ रहा। जाहिर है कि, फारुख साहब का पुनः सत्ता वापसी का सपना कुछ धूमल जैसा हो रहा है और मरता क्या न करता की तर्ज पर वे अलगाववादियो के खुल कर समर्थक बन रहे है। ये यह भी भूल गये कि, उनके पिता स्व.शेख अब्दुल्ला की सहमति से तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरु ने जो जनमत संग्रह का प्रस्ताव स्वीकृत किया था उसमें पी.ओ.के का इलाका भी शामिल था, याने पी.ओ.के को पाकिस्तान का नही माना था।
फारुख साहब के जबाव में भाजपा ने मुख्तार अब्बास नकवी को आगे किया और उन्होंने भी फारुख की तर्ज पर बयान दिया कि पी.ओ.के उनके बाप का नही है याने पाकिस्तान का नही है। भाषाई शालीनता को तोड़ने के लिये दोनो पक्ष जबावदार है। मुख्तार अब्बास नकवी चाहते तो कुछ समझदारी पूर्ण और संतुलित ढंग से बयान देकर भारत का पक्ष रख सकते थे परन्तु दोनो तरफ लाचारियां है। फारुक अब्दुल्ला को सत्ता वापस पाना है और नकबी को कुर्सी बचाना। इसी बीच में एक फिल्मी हीरो श्री ऋृषि कपूर का भी बयान आया और उन्होने कहा कि मैं मरने से पहले पाकिस्तान जाना चाहता हॅू और पी.ओ.के पाकिस्तान का हिस्सा है। उन्होंने कहा कि मैं 65 वर्ष का हो चुका हॅू और वहां जाकर अपने बच्चो को उनकी जड़ दिखाना चाहता हॅू। हांलाकि ऋृषि कपूर को अगर बच्चो को लेकर वहां जाना है तो वे पाक सरकार से बीजा मांगते और बतौर फिल्मी हीरो उन्हे बीजा मिल भी जाता। क्योंकि फिल्मी हीरो हीरोईन और कुछ विशिष्ठ पत्रकारो के लिये तो पाकिस्तान में या भारत में कभी कोई मुसीबत नही रही। जब हमारे देश के पत्रकार घोषित आतंकवादी और अलगाववादी अजहर मसूद का साक्षात्कार लेने की अनुमति पा सकते है, तो ऋृषि कपूर को भी इसमे कोई कठिनाई नही होगी, कठिनाई तो उन लोगो को होती है जो वैचारिक ईमानदारी से भारत पाक के बीच के विवाद को समाप्त करना चाहते है। क्योंकि विवाद को जिंदा रखना पाक और भारत दोनो के हुकुमरानो के लिये तकलीफ देय है अगर इस विवाद का निर्णायक हल हो जाये तो दोनो देशों की जनता मजबूत होगी और साम्रदायिक कट्टरता की राजनीति कमजोर होगी। शायद यही कारण है कि भाजपा ने नकबी साहब के माध्यम से जिस भाषा का इस्तेमाल फारुख साहब के लिये कराया वैसा ऋृषि कपूर को नही कराया। यह शायद इसलिये भी की ऋृषि कपूर के बयान से सत्ताधारियो को देश में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिये और भारत की सीमाओं के लिये चिंतित होकर वोट का आधार बढ़ने की संभावना नजर आ रही है।
बहरहाल मैं इस राजनैतिक पक्ष से हटकर कुछ अंतरराष्ट्रीय हालात को भी देख रहा हूं जो अचानक पैदा हुई बयानवाजी के कारण हो सकते है। अमेरिका और भारत में श्री डोनाल्ड ट्रम्प और श्री मोदी के बीच कितना भी दोस्ताना संबन्ध क्यों न हो परन्तु अमेरिका पाकिस्तान को मित्र सूची से शायद ही कभी स्थाई रुप से हटाये। क्योकि एशिया के राजनैनिक संतुलन के लिये उसे भारत की आवश्यकता है परन्तु उतनी ही आवश्यकता पाकिस्तान की भी है। अफगानिस्तान के आंतकवादी संगठनो के हमले के लिये भी उसे पाक की आवश्यकता है और चीन और पाक के बीच के सम्बधो में कुछ दरार की संभावना बनी रहे, इसकी आवश्यकता है। इसलिये अमेरिका यदा कदा पाकिस्तान को आंतकवाद केन्द्र बनाने से रोकने का शाब्दिक और कठोरवाणी का उपदेश देता रहा है और दूसरी तरफ आर्थिक सामरिक सहयोग भी करता रहता है। अमेरिका अपनी विदेश नीति के हितो के आधार पर ही अपनी रणनीति तैयार करता है और यह स्वभाविक भी है। इसलिये अमेरिका भारत और पाक के बीच जम्मू कश्मीर का हल निकालने के लिये न्याय या सिद्वान्त के साथ खड़ा नही होगा। अमेरिका के विदेश नीति के विमर्श में पी.ओ.के और जम्मू कश्मीर को बांटना भी एक हल है और अपने इस रणनीतिक हल को किन्ही माध्यमो से प्रचारित कर देश की आम राय को जानना और बनाना भी उनकी विदेश नीति का एक हिस्सा है, और हो सकता है कि जिनके सम्बन्ध प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष उनके तंत्र से हो उनके माध्यम से वह यह तरीका आखिर तैयार करे।
पाक अधिकृत कश्मीर पाक सेना ने बलात छीना था अगर जम्मू कश्मीर के विलय के हल को आजादी के तत्काल बाद तत्कालीन शासको ने कर दिया होता तो शायद यह समस्या नही बनी रहती। तत्कालीन सरकार ने भी अगर अपनी वैश्विक छवि बनाने के लिये जनमत संग्रह का प्रस्ताव नही दिया होता तब भी शायद स्थिति भिन्न होती। भारत को यह सावधानी अपनाना होगी कि अगर एक बार वार्तालाप होने लगे तो कुछ वर्षो बाद वैधानिक हस्तानांतरण का सिंद्वान्त शुरु होगा, तो उसका अंत कहां है। चीन के कब्जे वाली जमीन फिर उसके बाद और विवादित भाग आखिर इसका अंत कहां होगा। यह प्रश्न केवल आज का और तत्कालिकता का नही है बल्कि भारत की सीमाओ की सुरक्षा, भारत के दीर्घकालिक हित, हिमालय के प्रति भारत की भूमिका आदि से जुड़ा हुआ है। इसे हमें दीर्घकालिक नीति के आधार पर ही सोचना होगा। फारुक अब्दुल्ला की सोच सत्ता परख और फौरी हो सकती है परन्तु भारत की सोच भारतीय होना चाहिये। इतना अवश्य ध्यान रखना होगा कि हम भाषा और शब्दो से अन्तरकलह और कठुता पैदा करने के बजाय शालीनता, संवाद के साथ समझ पैदा करने के प्रयास करें।भारतीय राजनीति में जो दल बदल और अदला बदली का दौर चल रहा है उसमें हो सकता है कि फिर कुछ दिन बाद ऐसा दिन आ जाये जब भाजपा नेशनल क्रान्फ्रेस सत्ता का बटंवारा करे और साथ साथ हो जाये, तब दोनो को अपनी भाषा पर पछतावा होगा और सफाई भी देनी होगी। फारुक भाई जम्मू कश्मीर की कुर्सी की लड़ाई लड़ रहे है और उनके जुमले वही तक सीमित है। यह बात अवश्य है कि उन्होंने कश्मीर का नायक बनने के लिये देश में अपने आप को खलनायक बना दिया है।
सम्प्रति- लेखक श्री रघु ठाकुर देश के जाने माने समाजवादी चिन्तक है।वह स्वं राममनोहर लोहिया के अनुयायी है और लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी के संस्थापक भी है।