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गुजरात की जीत में मोदी के लिए छिपी भावी चुनौतियां – उमेश त्रिवेदी

उमेश त्रिवेदी

गुजरात विधानसभा चुनाव के नतीजों में कुछ भी अप्रत्याशित नही है, सिवाय इसके कि कांग्रेस अपनी हार के बियाबान में उम्मीदों की बांसुरी बजा सकती है, जबकि भाजपा राजनीतिक-तराने गा सकती है कि अनिश्चय की लहरों  से जूझने के बावजूद आखिरकार उसे साबरमती का किनारा मिल ही गया। गुजरात के नतीजो की खासियत यह है कि परिणामो के बाद भाजपा और  कांग्रेस, दोनो अपनी पीठ थपथपा सकते हैं।

देश की राजनीतिक फिर खुशामद की चाशनी में नहाने लगी है। भाजपा की पल्टन मोदी के माथे पर ताज ऱखने पर उतारू है, जबकि कांग्रेसियों ने  राहुल गांधी की टोपी संभालने का ठेका ले लिया है,जबकि न तो गुजरात में  भाजपा की जीत बेदाग है, और ना ही कांग्रेस की हार त्रुटिविहीन है। चुनाव में न तो पूरी तरह मोदी-मेजिक का माया-जाल प्रभावी रहा, ना ही राहुल गांधी की राजनीतिक जादुगरी पूरी तरह असर दिखा सकी।

गुजरात और हिमाचल में जश्न के इस दौर में यह कहना भाजपा-कार्यकर्ताओं को रास नही आएगा कि चांद की तरह भाजपा की यह जीत भी बेदाग नही है। यदि इसे वो सुनेंगे तो सुधरेंगे और अनसुना करेंगे तो एरोगेंस की चहार दीवारी में बंधे रहेंगे। चांद की लुभावनी रोशनी की तरह भाजपा की जीत की चमक के पीछे क्ई अंधेरे मौजूद हैं। भाजपा की चुनावी-राहों में खड़े इन राजनीतिक-अंधेरों की इबारत को पढ़ना जरूरी है।

राहुल ने गुजरात में भाजपा की जीत के आंकड़ों को दो अंको में समेट कर चुनौती की जो बुनियाद रखी है, उसे कमतर आंकना राजनीतिक-समझदारी नही होगी। भाजपा ने जिस तरीके से और जिस आकार में गुजरात का चुनाव जीता है, वह गौरवान्वित करने वाला नही हैं। यह तथ्य किसी से छिपा नही है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने कंधे पर भाजपा की पालकी को अपने कंधे पर ऱख कर साबरमती नदी के पार उतारा है। मोदी के माथे पर पालकी के बोझ से खिंची पसीनों की लकीरों का हिसाब-किताब राजनीतिक-बट्टेखाते में डालना भाजपा की बड़ी राजनीतिक भूल होगी। सवाल यह है कि जितनी शिद्दत से मोदी ने गुजरात का चुनाव लड़ा, क्या भविष्य में वो वैसा कर पाएंगे? फिर उस वक्त उनके हाथों में क्या वो औजार होगे, जो गुजरात के चुनाव में उन्हे नैसर्गिक रूप से हांसिल थे? उनके पास खुद को दांव पर लगाने के लिए गुजरात, गुजराती और गुजराती अस्मिता का खजाना नही होगा।

गुजरात में हार-जीत के फासले को कम करके कांग्रेस यह मिथ तोड़ने में सफल रही है कि मोदी अपराजेयी राजनीतिक-योध्दा हैं। गुजरात में भाजपा मुद्दों की बदौलत कम, अपनी संगठनात्म कौशल और संगठन की मजबूती के कारण ज्यादा जीती है। बहुमत के आंकड़े से सात ज्यादा याने 99 सीटें हांसिल करने के बाद भाजपा के लिए चैन की नींद सोना मुश्किल होगा। गुजरात के चुनाव के बाद विपक्षी दलों की समझ में आ गया है कि भाजपा से मुकाबले के लिए एकजाई प्रतिपक्षी राजनीति जरूरी है। बिहार में नीतीश-लालू और कांग्रेस के महागठबंध के मुकाबले भाजपा को शिकस्त मिली थी। उप्र में विपक्ष का बिखराव भाजपा के लिए कारगर सिध्द हुआ था। गुजरात में भी भाजपा के माथे पर पसीना महज इसलिए महसूस हुआ था कि चुनाव दो पार्टियों के बीच सिमट गया था। राहुल का नया अवतार भी राजनीतिक- समीकरणो को बदलने मे मददगार होगा।

नतीजे कांग्रेस और भाजपा दोनो को आत्म-मंथन को लिए मजबूर करने वाले हैं।राहुल की समझना चाहिए कि गुजरात में हार का मुख्य कारण कांग्रेस का कमजोर संगठन भी है , जो आम जनता के आक्रोश को वोटो में तब्दील करने में असफल रहा । शहरी इलाकों में संगठन के कमजोरढांचे के कारण कांग्रेस को पराजय झेलना पड़ी। राजनीतिक-सूझबूझ और अनिर्णय की स्थितियां भी कांग्रेस पर भारी पड़ीं। राहुल को ऩए सिरे से टीम को गठित करके शहरी और ग्रामीण मतदाताओं के बीच जमीनी-स्तर पर काम करना होगा।

मोदी ने भले ही गुजरात का किला जीत लिया हो, लेकिन कांग्रेस को कोस कर और धर्म-जाति की राजनीति के नाम पर वो कब तक जीत हांसिल करते रहेंगे। उन्हे यह भी समझना होगा कि ग्रामीण अंचलो में भाजपा की राजनीति अलोकप्रिय हो रही है और युवको के सपने टूटने लगे हैं। मोद को इस खतरे को भी भांपना होगा कि कंही वो भी इंदिरा गांधी की तरह ‘मोदी इज भाजपा’ और ‘भाजपा इज मोदी’  नहीं बन जाएं। यह लार्जन इमेज मोदी और भाजपा के लिए नुकसानदेह साबित हो सकती है। क्योंकि मोदी के आसपास भी मोह-भंग की स्थितिया बनने लगी हैं।

 

सम्प्रति– लेखक श्री उमेश त्रिवेदी भोपाल एनं इन्दौर से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के प्रधान संपादक है। यह आलेख सुबह सवेरे के आज 19 दिसम्बर के अंक में प्रकाशित हुआ है।वरिष्ठ पत्रकार श्री त्रिवेदी दैनिक नई दुनिया के समूह सम्पादक भी रह चुके है।