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जीएसटी और नोटबंदी की परेशानियों पर मौत की मुहर – उमेश त्रिवेदी

उमेश त्रिवेदी

भारतीय जनता पार्टी और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भले ही इस बात पर खुश हों कि गुजरात और हिमाचल के चुनाव में नोटबंदी और जीएसटी का मुद्दा उनके लिए प्राणघातक साबित नहीं हुआ, लेकिन मंझले और छोटे काम-धंधे करने वाले व्यापारियों के लिए ये कानून अभी भी पहले जैसे ही प्राणलेवा बने हुए हैं। उत्तराखंड में कैबिनेट मंत्री के सामने नोटबंदी और जीएसटी के विरोध में जहर खाकर जान देने वाले ट्रांसपोर्ट व्यवसायी की मौत ने इन कानूनों की काली हकीकत को एक बार फिर उजागर कर दिया है। गुजरात और हिमाचल में भाजपा की जीत को नोटबंदी और जीएसटी कानून पर जनता की सहमति और मुहर मानना महज एक राजनीतिक-गलतफहमी है। इसके दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं।

शनिवार को देहरादून में जीएसटी और नोटबंदी से परेशान एक ट्रांसपोर्ट व्यवसायी प्रकाश पांडे ने उत्तराखंड के कृषि मंत्री सुबोध उनियाल के जनता-दरबार में यह कहते हुए जहर खा लिया था कि इन कानूनों की वजह से उसका काम-धंधा चौपट हो गया है। मेरे जैसे सैकड़ों लोग इससे परेशान हैं। पिछले पांच-छह महीनों से कोई सुनवाई नहीं हो रही है। जनता दरबार भाजपा कार्यालय में ही लगा था। हल्द्वानी के रहने वाले प्रकाश पांडे ने खनन और दूसरे कारोबार के लिए बैंक से कर्ज लेकर ट्रक खरीदे थे। कृषि मंत्री को प्रेषित अपनी चिट्ठी में पांडे ने लिखा था कि वो भारी कर्ज में डूबे हुए हैं, क्योंकि जीएसटी और नोटबंदी ने उनके काम-धंधे को निगल लिया है। उन्होंने मंत्री को यह बताया कि उन्होंने जहर खा लिया है। प्रकाश पांडे की मौत को महज एक घटना मानकर छोड़ देना संभव नहीं है, क्योंकि इसके सिरे आम लोगों की उन व्यावहारिक कठिनाइयों से जुड़े हुए हैं,जिन्हें लोग भुगत रहे हैं।

नोटबंदी और जीएसटी के माध्यम से देश के आर्थिक-इतिहास में नाम दर्ज कराने को आतुर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इस मसले पर पहले भी कान धरने को तैयार नहीं थे। उत्तर प्रदेश, गुजरात और हिमाचल प्रदेश में चुनाव जीतने के बाद भाजपा नेतृत्व की हालत नीम चढ़े करेले जैसी हो गई है।वो मानते हैं कि चुनाव के नतीजे उनके राजनीतिक और आर्थिक एजेण्डे पर जनता की मुहर हैं। जीएसटी के मामले में चुनाव के दरम्यान गुजरात के व्यापारियों के प्रतिरोध के कारण भाजपा-नेतृत्व के माथे पर उभरी चिंता की लकीरों को चुनाव परिणामों ने धो दिया है। सरकार सुनवाई और रहनुमाई के मूड में नहीं है। हल्द्वानी के प्रकाश पांडे को उत्तराखंड के कृषिमंत्री सुबोध उनियाल ने कांग्रेस का एजेंट बताकर खारिज करने का प्रयास किया था और दिल्ली में मोदी-सरकार इसे कांग्रेस की राजनीतिक-बाजीगरी कह रही है।

सफलता के गुरूर में मगरूर सरकार अपने ही आंकड़ों की आकाशवाणी सुनने को तैयार नहीं है।मोदी-सरकार कांग्रेस के पूर्व वित्तमंत्री पी. चिदम्बरम की भले ही नहीं सुने लेकिन अपने केन्द्रीय सांख्यिकी कार्यालय के आंकड़ों को तो स्वीकार करें। इन आंकड़ों के मुताबिक 2017-18 में जीडीपी की विकास दर 6.5 फीसदी रहेगी। पिछले साल विकास-दर 7.1 फीसदी थी। सरकार इस फिसलन को कबूल करने को तैयार नहीं है। पी. चिदम्बरम भविष्य में गहरी आर्थिक मंदी की आशंकाओं से चिंतित हैं। उनके मुताबिक निवेश की तस्वीर निराशाजनक है। आर्थिक गतिविधियों और विकास-दर में गिरावट के मायने लाखों नौकरियों का नुकसान है। खेती-किसानी की कमर टूट चुकी है और ग्रामीणों के बीच निराशा का माहौल है।

बहरहाल, नोटबंदी और जीएसटी जैसे मसलों पर बहस करते-करते देश थक चुका है। तय है कि विभिन्न प्रदेशों के विधानसभा चुनाव में जबरदस्त सफलताएं हासिल करने के बाद मोदी-सरकार भी इन पर कान धरने वाली नहीं है। वैसे भी प्रधानमंत्री मोदी की आर्थिक-परिकल्पनाओं में अरबों के साम्राज्य के स्वामी अंबानी-अडानी या एनआरआई के हित ही रचते-बसते और संवरते हैं। ह्ल्व्दानी के प्रकाश पांडे की मौत से उनके अर्थ-तंत्र का दिल नहीं पसीजता है। 8 नवम्बर 2016 के दिन नोटबंदी लागू होने के बाद बेरोजगारी का दावानल दहक उठा था। इसकी त्रासद कथाओं में एक महीने के भीतर 10 दिसम्बर 2016 को झारखंड के डुमरी निमियाघाट में भूख से परेशान एक देहाती महिला शबीजान ने अपने दो बच्चों को कुँए में ढकेल दिया था, क्योंकि नोटबंदी के कारण उसका पति बेरोजगार हो गया था। नोटबंदी के मंगलाचरण में डुमरी निमियाघाट की बेबस मां शबीजान की बेबसी पर किसी का दिल नहीं पसीजा था, उसी प्रकार जीएसटी के हवन-कुंड में हल्व्दानी के प्रकाश पांडे की आहुति से पथरीली संवेदनाएं पिघलने वाली नहीं हैं। हकीकत यह है कि नोटबंदी और जीएसटी की कोख से भूख और बेरोजगारी पैदा होने लगी है।

 

सम्प्रति – लेखक श्री उमेश त्रिवेदी भोपाल एनं इन्दौर से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के प्रधान संपादक है। यह आलेख सुबह सवेरे के 10 जनवरी के अंक में प्रकाशित हुआ है।वरिष्ठ पत्रकार श्री त्रिवेदी दैनिक नई दुनिया के समूह सम्पादक भी रह चुके है।