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बकौल वैश्विक-रिपोर्ट भारत का प्रजातंत्र दरक रहा है… उमेश त्रिवेदी

उमेश त्रिवेदी

नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद जब पहली बार संसद की देहरी पर माथा टेका था, तो लगा था कि देश का प्रजातंत्र नई ऊचाइयां हासिल करेगा, लेकिन विडम्बना यह है कि उन्हीं के कार्यकाल में भारतीय प्रजातंत्र सबसे ज्यादा गिरावट के दौर से गुजर रहा है। अंतर्राष्ट्रीय इकोनॉमिक इंटेलीजेंस यूनिट की ताजा रिपोर्ट भारत में डेमोक्रेसी की बदहाली और बदनसीबी का खुलासा कर रही है। रिपोर्ट उस तबके की धारणाओं की पुष्टि करती है, जो मानता है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के राज्याश्रय में प्रजातांत्रिक-कसौटियों को तोड़ने-मरोड़ने का सुनियोजित राजनीतिक-उपक्रम जारी है। आरोपों के पक्ष-विपक्ष में देश की विचारशीलता दो हिस्सों में विभाजित है। प्रजातंत्र में विचलन को औजार से नापना संभव नहीं है। राजनीतिक घटनाएँ ही प्रजातंत्र के इंडेक्स की ऊंच-नीच को निर्धारित करती हैं। ब्रिटेन के मीडिया संस्थान ’द इकोनॉमिस्ट’ समूह की ’इकोनॉमिक इंटेलीजेंस यूनिट’ की रिपोर्ट ने भारतीय प्रजातंत्र में  अवमूल्यन पर होने वाली बहस को तीखा कर दिया है। रिपोर्ट पिछले सप्ताह जारी हुई है।

मोदी-सरकार के मुरीदों को रिपोर्ट पसंद नहीं आएगी। इसमें सख्ती से लिखा है कि रूढ़िवादी धार्मिक विचारधाराओं के उभार और धार्मिक-उन्माद से बढ़ते तनाव के कारण ’वैश्‍विक लोकतंत्र सूचकांक’ में दस सीढ़ी  नीचे खिसक कर भारत 42वें पायदान पर आ गया है। 165 राष्ट्रों की स्क्रीनिंग में पिछले साल भारत 32 वीं पायदान पर था। प्रजातंत्र का इंडेक्स पांच पैमानों के आधार पर बना है। पहला पैमाना चुनावी-प्रक्रिया और बहुलतावाद है। दूसरा नागरिक स्वतंत्रता, तीसरा सरकार की कार्यप्रणाली, चौथा राजनीतिक भागीदारी और पांचवां राजनीतिक संस्कृति को पैमाना मानकर 165 देशों के प्रजातंत्र को खंगाला गया है। इंडेक्स में भारत को दोषपूर्ण लोकतांत्रिक देशों में शामिल किया गया है। चुनावी प्रक्रियाओं और बहुलतावाद के मामले में भारत का रिकार्ड काफी अच्छा है, लेकिन अन्य चार पैमानों पर काफी बुरे प्रदर्शन के कारण भारत का औसत गिर गया है।

रिपोर्ट सोचने के लिए बाध्य करती है कि प्रजातांत्रिक अवधारणाओं की धुरी पर ’राष्ट्रवाद’ के नाम पर नागरिक-व्यवहार कैसा होना चाहिए? सवालों की राहों में सियासत के अनगिन बैरियर खड़े हैं। भारत ’राष्ट्रवाद’ और प्रजातंत्र के बीच एक अजीबोगरीब टकराव और तनाव के दौर से गुजर रहा है। अनबुझी कट्टरता  ने राष्ट्रवाद के प्रेरक तत्वों को हिन्दुत्व से बांध कर अराजक बना दिया है। कट्टरता की कड़कती बिजलियों से दहशतजदा माहौल ने प्रजातंत्र के उस गहरे नीले खुले और खूबसूरत आकाश को निगल लिया है, जहां उदारता पंख फैलाकर आसमान में स्वच्छंद उड़ती दिखती थी। भारतीय प्रजातंत्र समन्वय, संतुलन और सहिष्णुता का उदात्त प्रतीक है। इसके प्रतिमान कमजोर होने लगे हैं। राष्ट्रवाद राजनीति का ओछा औजार बन गया है, जो भयादोहन के काम आता है।

इकोनॉमिस्ट समूह की ’वैश्‍विक प्रजातांत्रिक सूचकांक’ रिपोर्ट पिछले साल के तथ्यों पर आधारित है, लेकिन हालिया स्थानीय घटनाएं भी रिपोर्ट के ’ऑब्जर्वेशन्स’ की पुष्टि करती हैं। एक बानगी हिन्दी फिल्म पद्मावती है, इसने सत्ता के स्वार्थों को नंगा किया है। करणी-सेना पद्मावती के खिलाफ आंदोलन कर रही है। पद्मावती इस मायने में गौरतलब है कि इससे जुड़ा आंदोलन राज्य-सरकारों के सहयोग से लोकतंत्र के सभी पहलुओं का मखौल उड़ा रहा है। भाजपा और उसकी चार राज्य-सरकारें, राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात और हरियाणा करणी सेना की असंवैधानिक और अनुचित मांगों के साथ खड़ी हैं। वोटों की राजनीति के वशीभूत भाजपा की राज्य-सरकारों द्वारा सुप्रीम कोर्ट का अवमूल्यन और सरकार द्वारा नियुक्त सेंसर बोर्ड की अनदेखी हैरान करने वाली है। सरकार का दायित्व है कि वो सुप्रीम कोर्ट, सेंसर बोर्ड जैसी संस्थाओं के निर्णयों और जान-माल की हिफाजत को सुनिश्‍चित करे। करणी-सेना के आगे घुटने टेक कर केन्द्र सरकार सहित चारों राज्य-सरकारों ने संवैधानिक-दायित्वों की घोर अवहेलना की है। सरकार की कर्तव्य-विमुखता और दायित्वहीनता का ऐसा दूसरा उदाहरण मौजूद नहीं है।

पद्मावती-प्रसंग में सरकार के साथ देश की सामाजिक और साहित्यिक-बिरादरी की भूमिका भी लजाने वाली है। प्रसिद्ध कवि-लेखक प्रसून जोशी महज इसलिए जयपुर-लिटरेरी फेस्टिवल में शिरकत नहीं कर सके कि करणी सेना ने उन्हें जयपुर-फेस्टिवल में भाग नहीं लेने देने की धमकी दी थी। प्रसून जोशी ने सेंसर बोर्ड के प्रमुख के नाते पद्मावत फिल्म को प्रदर्शन की अनुमति दी थी। साहित्यिक, सृजन और अभिव्यक्ति की दुनिया में निरंकुश दबंगई जताती है कि सरकारों की रीढ़ कितनी कमजोर है? प्रजातांत्रिक और सामाजिक मूल्यों की हिफाजत में कितनी लापरवाह हैं?

हरियाणा के महेन्द्रगढ़ में सेण्ट्रल युनिवर्सिटी ऑफ हरियाणा में अध्ययनरत दो कश्मीरी छात्रों की अकारण पिटाई बढ़ती धर्मांधता की ओर इशारा करती है। छात्रों का कहना है कि हमारी दाढ़ी और टोपी देखकर लोगों ने  हमला किया। देश में फिरकापरस्ती की कहानी किसकी शह पर कौन लिख रहा है?  उप्र के कासगंज में ताजे दंगों के विस्फोट की कहानी भी संवेदनशील है। ’द इकोनॉमिस्ट’ की रिपोर्ट ने फिरकापरस्ती को प्रजातंत्र के लिए सबसे घातक मुद्दा निरूपित किया है। घटनाओं से जुड़ा मीडिया-कवरेज भी डेमोक्रेसी में गिरावट के निष्कर्षों को पुष्ट करता है। रिपोर्ट के मुताबिक हिन्दुस्तानी मीडिया अंशत: ही आजाद है। भारत में पत्रकारों को सरकार, सेना तथा चरमपंथी समूहों से खतरा है। इस जोखिम ने मीडिया की कार्यशैली को प्रभावित किया है। प्रजातंत्र के लिए ये अच्छे संकेत नहीं हैं।

 

सम्प्रति – लेखक श्री उमेश त्रिवेदी भोपाल एनं इन्दौर से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के प्रधान संपादक है। यह आलेख सुबह सवेरे के 05 फरवरी के अंक में प्रकाशित हुआ है।वरिष्ठ पत्रकार श्री त्रिवेदी दैनिक नई दुनिया के समूह सम्पादक भी रह चुके है।