
21वीं सदी में खुशनुमा जिंदगी के नाम पर दौड़ते भारत की कहानी में हर दिन दिल दहलाने वाले कारनामे जुड़ रहे हैं। घटनाओं का डरावना पहलू यह है कि खुद सरकारें राजनीतिक-दुष्कर्मों को लीड कर रही हैं। सरकारों के कारनामे समाज में भ्रष्टाचार को संगठित करने के साथ-साथ अपराधों की राजनीति को संगठित और सम्मानित कर रहे है। अपराधों और अपराधियों की सामूहिक राजनीति के माथे पर नियम कायदों की रक्तरंजित रोली से ताजा राजतिलक हरियाणा की भाजपा-सरकार ने किया है। रविवार 11 फरवरी को हरियाणा- सरकार ने फरवरी 2016 में जाट-आंदोलन के दौरान दर्ज हिंसा के 70 मामलों में 822 आरोपियों के प्रकरण वापस लेने का निर्णय लिया है। जाट-आंदोलन में महिलाओं के साथ बलात्कार की चर्चाओं के बीच 30 से ज्यादा लोगों की जानें गई थीं। अनुमान है कि उन हिंसक घटनाओं में 30 हजार करोड़ रुपए की चल-अचल सम्पत्ति का नुकसान हुआ। अभी तक हरियाणा की खट्टर-सरकार 223 प्रकरणों में 2017 अपराधियों के खिलाफ मुकदमे वापस ले चुकी है।
जानकारों का कहना है कि खट्टर-सरकार ने यह कदम भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की रैली में संभावित व्यवधान रोकने की गरज से उठाए हैं। अमित शाह 15 फरवरी को हरियाणा पहुंचने वाले हैं। सवाल यह है कि जाटों के विरुद्ध दर्ज मामले वापस लेने के पहले खट्टर सरकार ने उन परिवारों के साथ न्याय की क्या व्यवस्था की, जिनके परिजनों की जान गई है। सैकड़ों लोगों का कारोबार जाट-आंदोलनकारियों ने आग के हवाले कर दिया था। जाटों के हिंसक आंदोलन को राजनीतिक-मान्यता देने का यह उपक्रम भाजपा की चुनावी रणनीति का हिस्सा है, जो चार प्रदेशों के विधानसभा चुनाव से जुड़ा है।
हरियाणा सरकार का फैसला राजनीतिक-सौदेबाजी और वोटों की हवस की तस्दीक करता है। भाजपा सरकार की यह वोट-प्रवृत्ति राजस्थान की करणी सेना की याद को भी ताजा करती है कि पद्मावती के विरोध में उसने कितना हिंसक रुख अख्तियार कर लिया था। जाटों की तरह राजपूतों के संगठन भी सामाजिक तानेबाने में दबंगई करने के लिए जाने जाते हैं। मोदी-सरकार राजनीति की इन दबंग प्रजातियों के सामने महज गुजरात चुनाव की खातिर खामोशी ओढ़े रही। उसकी चार राज्य-सरकारें करणी-सेना के साथ खड़ी रहीं।
राजनीतिक लाभ के लिए सेनाओं के नाम पर दबंग जातियों की निर्ममता की कहानियां किसी से छिपी नहीं हैं। हरियाणा की खाप-पंचायतों के सामने सरकार की राजनीतिक-निरीहता भी वोटों की सौदेबाजी का नायाब नमूना है। नक्सलवादी आंदोलन इसकी दूसरी मिसाल है। समाज के नाम पर जातियों की यह हिंसक और अप्रजातांत्रिक एकजुटता लोकतंत्र की मूल भावनाओं और कानून के साथ सीधा खिलवाड़ है। दबंग जातियां यह मानने लगी हैं कि सामाजिक अस्मिता और अधिकारों के नाम पर किए गए अपराधों में उनका बाल-बांका भी नहीं होने वाला है।
चुनौतियों के बीच प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में ‘इंडिया फर्स्ट’ का अवतार माहौल को डरावना बना रहा है। ‘ईज ऑफ डूइंग बिजनेस’ का गौरव-गान गाने वाली भाजपा-सरकार भूल गई है कि आम लोगों की जिंदगी में सुकून और रहनुमाई के लिए कानून का प्रभावी क्रियान्वयन जरूरी है।
वक्तु के हर दौर में दुनिया के बारे में लोगों का सोच और अदाजे-बयां अलग-अलग होता है… अल्लामा इकबाल ने जब ‘हिन्दुस्तान को सारे जहां से अच्छा’ बताया था, तब आजादी की जंग पूरे परवान पर थी। साठ के दशक में गरीबी-मुफलिसी के खिलाफ जंग के दौरान पूंजीवाद के हिंडोलों पर सवार ‘महलों, तख्तों और ताजों की यह दुनिया’ लेफ्टिस्ट रुझान रखने वाले सुप्रसिद्ध शायर साहिर लुधियानवी को ‘इन्सां के दुश्मन समाजों की दुनिया’ लगती थी। साहिर की नजर में दुनिया का नाकारापन और बेगानापन इन शब्दों में झलकता है कि…’दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है…?’
गरीबी-मुफलिसी को लेकर जज्बातों में इस बेगानेपन और खलबली के बावजूद मुल्क को लेकर लोगों के खयालात में एक जैसा खिंचाव था, जो ‘डाल-डाल पर सोने की चिड़ियों के बसेरे’ वाले इस देश में उत्तर-दक्षिण से लेकर पूरब-पश्चिम तक लोगों को बांधे रखता था। इस नाकारापन और बेगानेपन में हताशा नहीं, बल्कि प्यार-खुशहाली हासिल करने वाली बगावत की बू थी। इंसानी हकों को हासिल करने के लिए यह वैचारिक बगावत समाज और सरकार के नुमाइंदों को तहे-दिल से कबूल थी। सब इसकी कद्र करते थे, एक-दूसरे का साथ देते थे। उस वक्त मुल्क खुद से नहीं लड़ता था, ना ही उन आततायियों से डरता था, जो समाज में जहर उगलते थे। जायज हकों की नकबजनी रोकने के लिए सियासत के पहरुओं में मन-भेद नजर नहीं आते थे। लोगों के बीच आपसी रंजिशों के लिए गुंजाइशें न्यूनतम थीं। राजनीति के संरक्षण में समाज की आड़ में सामूहिक-हिंसा और लूटपाट के ये दृश्यत लोकतंत्र को हताशा की ओर ढकेल रहे हैं। साहिर ने ‘प्यासा’ में अपनी नज्म में दुनिया को जिस तरह से चुनौती दी थी, उसकी भावनाएं भोथरी होती जा रही हैं, क्योंकि अब जज्बातों की दुनिया बदल गई है। देश के सामने नया खतरा मौजूद है, क्योंकि लोकतंत्र का डीएनए बदल रहा है। नए संदर्भों में साहिर की नज्म को कुछ यूं पढ़ना चाहिए– ‘ये जाटों, ये खापों, खूनी लड़ाकों की दुनिया, ये इंसा के दुश्मन समाजों की दुनिया…।’ ‘यह लोकतंत्र अगर मिल भी जाए तो क्या है…?’
सम्प्रति- लेखक श्री उमेश त्रिवेदी भोपाल एनं इन्दौर से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के प्रधान संपादक है। यह आलेख सुबह सवेरे के 14 फरवरी के अंक में प्रकाशित हुआ है।वरिष्ठ पत्रकार श्री त्रिवेदी दैनिक नई दुनिया के समूह सम्पादक भी रह चुके है।
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