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उत्तर-पूर्व में भाजपा की विजय राजनीति में दूसरा ‘टर्निंग-पॉइंट’ – उमेश त्रिवेदी

उमेश त्रिवेदी

उत्तर-पूर्व के तीन राज्यों नागालैंड, मेघालय और त्रिपुरा में भाजपा की जीत भारतीय राजनीति में दूसरा टर्निंग-पॉइंट है, जिसने देश की वैचारिक-राजनीति को उस चौराहे पर खड़ा कर दिया है, जहां अमीरी-गरीबी, धर्म-संप्रदाय और मानवीय सरोकारों से जुड़े वैचारिक-अभियानों को अपनी दिशाएं सुनिश्चित करने के लिए अपने राजनीतिक-कम्पास को ‘रि-केलीब्रेट’ करना होगा। राजनीति में पहला टर्निंग-पॉइंट उप्र विधान सभा चुनाव  में भाजपा की जीत थी। इसमें भाजपा ने घोषित रूप से किसी भी मुसलमान को टिकट नहीं देने के बावजूद भारी बहुमत हासिल किया था। भाजपा ने चालीस-पचास साल पुराने इस मिथ को तोड़ दिया था कि तुष्टिकरण की राजनीति अपरिहार्य है, जिसके बिना सत्ता तक पहुंचना संभव नहीं है। इसके बाद सेक्युलर राजनीति के मुहावरे और मायने बदलने लगे हैं। अब उत्तर-पूर्व के नतीजे असर दिखाने लगे हैं। इनका पहला तात्कालिक असर यह है कि उप्र में लोकसभा उपचुनाव में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी एक-दूसरे का हाथ थामकर चुनाव लड़ रहे हैं। लगता है कि दीगर दलों के राजनीतिक-ध्रुवीकरण और एकीकरण में भाजपा की यह जीत उत्प्रेरक (केटेलिटिक-एजेंट) का काम करेगी।

भाजपा की इस जीत का असली शिल्पकार आरएसएस है। स्वयंसेवकों की मेहनत और काम भाजपा की जीत के शिल्पी हैं। नागालैंड या मेघालय में भी वो जीते हैं, लेकिन उनके लिए साठ विधानसभा सीटों वाले छोटे से राज्य त्रिपुरा की विजय के मायने ज्यादा बड़े हैं। खुशी महज इसलिए नहीं है कि उनकी झोली में त्रिपुरा याने एक और राज्य आ गया है। खुशी का सबब यह है कि त्रिपुरा में भाजपा ने मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का पच्चीस साल पुराना किला ढहा दिया है। भाजपा इस जीत में लेफ्ट की विचार-धारा का पराभव देखती है। लेफ्ट की नास्तिक-राजनीति से संघ और भाजपा की नाइत्तफाकी शाश्वत है, जिसे वो हिन्दू-पुनरुत्थानवाद के नए राष्ट्रवादी-अवतार की राह में सबसे बड़ा बाधक मानते रहे हैं। उत्तर-पूर्वी राज्यों में ईसाई मिशनरियों व्दारा आदिवासियों के धर्म-परिवर्तन और मुसलमानों की घुसपैठ के खिलाफ आरएसएस वर्षों से सक्रिय है। संघ मानता है कि इन समस्याओं के कारण उत्तर-पूर्व की डेमोग्राफी का संतुलन ही गड़बड़ाने लगा है, जो देश की सुरक्षा की दृष्टि से भी घातक है। लेफ्ट के वर्चस्व के कारण इन प्रवृत्तियों को काफी बढ़ावा मिल रहा था।

फिलहाल देश का राजनीतिक एजेण्डा भाजपा तय कर रही है। उप्र के चुनाव के नतीजों ने जिस प्रकार मुसलमानों को हाशिये पर ढकेला है, उसी प्रकार उत्तर-पूर्व में भाजपा की जीत ने वैचारिक राजनीति में लेफ्ट के ‘स्पेस’ पर सवाल खड़े कर दिए हैं कि देश में लेफ्ट के लिए गुंजाइश बची भी है अथवा नहीं बची है? या देश का एकमात्र भविष्य केशरिया लहर ही है? 22 राज्यों में भाजपा अथवा एनडीए की सरकारों के विस्तार के बाद राजनीतिक-नक्शे पर केशरिया रंग की चमक और फैलाव दीगर पार्टियों के लिए चिंता का विषय है। संगठन और विचार के स्तर पर भाजपा कांग्रेस की हमेशा खिल्ली उड़ाती रही है, लेकिन काडर-बेस वैचारिक संगठन के रूप में सीपीएम को उसने हमेशा चुनौती माना है। त्रिपुरा की जीत को वह केशरिया-राजनीति की स्वीकार्यता के रूप में प्रदर्शित कर रही है।

विजय के इन क्षणों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की यह टिप्पणी गौरतलब है कि ”सूरज डूबता है तो वो ‘लाल’ होता है और उगता है तो ‘केशिरया’ होता है।” उत्तर-पूर्व के तीन राज्यों में भाजपा की विजय-पताका फहराने के बाद शनिवार, 3 मार्च को दिल्ली के आलीशान भाजपा कार्यालय में विजय-रैली को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने यह टिप्पणी की थी। मोदी के शब्दों में गर्वोक्तियों की पिचकारियां भी हैं और वक्रोक्तियों की चिंगारियां भी हैं। इस अंदाजे-बयां को कार्यकर्ताओं की तालियां हासिल करने तक सीमित रखना ही राजनीतिक-दृष्टि से मुनासिब होगा, क्योंकि इस गर्वोक्ति और वक्रोक्ति का दर्शन खुद पर कटाक्ष करता है। शब्द भविष्य की दीवारों से टकरा कर खुद की ओर भी लौटते हैं। सूरज के उगने और डूबने की ‘फ्रीक्वेंसी’ सुनिश्चित है। हर सुबह की एक सांझ होती है। उगने वाला सूरज पूरे समय केशरिया नहीं रहता है। उसके रंग बदलते हैं। खुद मोदी ने कहा है कि डूबते वक्त सूरज लाल होता है। मोदी के इस कथन को नीरज की यह कविता खूबी के साथ अभिव्यक्ति करती है कि ‘काल का पहिया घूमे भैया, लाख जतन इंसान करे, ले के चले बरात कभी तो कभी बिना सामान चले… राम-कृष्ण-हरि…।’ यदि मोदी मानते हैं कि यह जीत लेफ्ट का वैचारिक अंत है, तो वो कुछ ज्यादा ही आशावान लगते हैं…शाश्वत सत्य यह भी है कि विचार और प्रति-विचार हमेशा समानान्तर चलते हैं। प्रति-विचार के बिना कोई भी विचार अस्तित्व में कैसे रहेगा…?

 

सम्प्रति- लेखक श्री उमेश त्रिवेदी भोपाल एनं इन्दौर से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के प्रधान संपादक है। यह आलेख सुबह सवेरे के 05 मार्च के अंक में प्रकाशित हुआ है।वरिष्ठ पत्रकार श्री त्रिवेदी दैनिक नई दुनिया के समूह सम्पादक भी रह चुके है।