उत्तर प्रदेश में गोरखपुर और फूलपुर के साथ बिहार के अररिया लोकसभा उपचुनाव में समाजवादी पार्टी या राष्ट्रीय जनता दल की जीत से ज्यादा गहरे मायने भाजपा की हार में छिपे हैं। अगले कई दिनों तक यह मीमांसा चलने वाली है। विभिन्न टीवी स्क्रीनों पर इन मीमांसाओं के पहले दौर का सबसे दिलचस्प पहलू यह है कि भाजपा के प्रवक्ताओं समेत ज्यादातर एंकर इस हार की जिम्मेदारी फिक्स करने के मामले में भ्रमित नजर आ रहे हैं। वैसे भाजपा की समुचित भाव-भंगिमाओं से पता चलता है कि हार से उसे जबरदस्त सदमा लगा है। भाजपा के पास इन सवालों का कोई तार्किक, विश्वसनीय और निश्चयात्मक जवाब नहीं है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के संसदीय क्षेत्र गोरखपुर और उप मुख्यमंत्री मौर्य के संसदीय क्षेत्र फूलपुर में भाजपा के हारने का सबब क्या है? इन नेताओं के लिए अपनी ही खाली की हुई सीटों को नहीं बचा पाना सामान्य घटना नहीं है। उप-चुनावों में सामान्यतौर पर लोग सरकार की नुमाईंदगी पर मोहर लगाते हैं। उप्र में अभी भी योगी-सरकार को चार साल तक शासन करना है। इसके बावजूद मतदाताओं के द्वारा सत्तारूढ़ दल को अंगूठा दिखाना चौंकाने वाला है।
भाजपा इन खतरों को कितना पढ़ पा रही है, यह कहना मुश्किल है, क्योंकि भाजपा के नेता इन उप-चुनावों को 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए खतरा नहीं मान रहे हैं। भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष का यह तर्क उनके गर्वीलेपन और आत्म मुग्धता को रेखांकित करता है कि उप चुनाव और आम चुनाव में वोट करने वाले लोगों की मनोदशाएं अलग होती हैं। यहां भले ही मतदाताओं ने भाजपा को हरा दिया हो, लेकिन 2019 के आम चुनाव में लोग प्रधानमंत्री मोदी के नाम पर वोट डालेंगे। भाजपा के इन तर्कों का खोखलापना इस तथ्य से साफ हो जाता है कि सभी पार्टियां तीनों चुनावों को 2019 का सेमी-फायनल मानकर जोर आजमाईश कर रही थीं। भाजपा ने मंत्रियों की पूरी फौज को यहां उतार दिया था। ताकि इन सीटों पर उसका कब्जा बरकरार रहे। भाजपा इन सीटों को बचाने में नाकामयाब रही है।
लोकसभा के तीनों उप-चुनावों में भाजपा की हार ने त्रिपुरा में भाजपा की जीत के जश्न को फीका कर दिया है। भाजपा के इन मुगालतों को भी झटका लगा है कि वो त्रिपुरा की जीत को कर्नाटक के चुनाव में भी भुना सकेगी। इस हार से भाजपा के चेहरे पर जो खराश लगी है, उसका दर्द कर्नाटक के विधानसभा चुनाव अभियान में छलकेगा। उप्र और बिहार के उपचुनावों में विपक्षी एकता ने चुनाव में जीत का स्वाद चख लिया है। भाजपा की समझ में भी आ गया है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की आत्म-मुग्ध राजनीतिक कार्य-शैली भारी पड़ सकती है। ये नतीजे आत्ममुग्धता के आकाश में उड़ रहे भाजपा के जेट-विमानों को इमरजैंसी-लेण्डिंग का संकेत दे रहे हैं कि हवाओं का रुख ठीक नही है। वह अपनी उड़ानों को रि-शेड्युल करे।
उप्र में सपा और बसपा के गठबंधन ने 2019 के महागठबंधन की इबारत लिखी है। ये चुनाव भाजपा के खिलाफ विपक्षी-एकता की प्रक्रिया में उत्प्रेरक का काम करने वाले हैं। नतीजों के आकलन से प्रथमद्दष्टया यह बात तो सामने आ ही गई है कि अब भाजपा को अपनी रणनीति में 360 डिग्री बदलाव करना पड़ेगा। चुनाव हारने के बाद भी भाजपा का बड़बोलापन कम नहीं हुआ है। जबकि, 2014 के आंकड़ों के विश्लेषण में खतरों के संकेत साफ दिख रहे हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी 42.63 फीसदी वोटों के साथ 71 सीटों पर विजयी रही थी। समाजवादी पार्टी को 22.35 वोटों के साथ 5 सीटें मिली थीं, जबकि 19.77 प्रतिशत मतों के बावजूद बसपा की झोली खाली ही रही थी। कांग्रेस ने 7.55 फीसदी वोटों के साथ 2 सीटों पर कब्जा जमाया था। अब जबकि, सपा और बसपा का गठबंधन जमीन पर कारगर दिख रहा है, तो राजनीति का सम्मिश्रण 2019 में भाजपा को पीछे ढकेल सकता है। सपा और बसपा के वोटों का जोड़ 42.12 फीसदी होता है। इस वोट-प्रतिशत के साथ गठबंधन के हिस्से में 41 सीटें आती हैं। कांग्रेस के 7.55 वोटों के साथ यह आंकड़ा 49.67 फीसदी हो जाता है, जो गठबंधन की उम्मीदों को 56 सीटों तक पहुंचाता लगता है। आंकड़ों का यह गणित भाजपा की सीटों को 24 तक समेट रहा है। वैसे कहा जाता है कि राजनीति की गणनाएं अंकगणित की गुणाभाग को झुठलाती रहती हैं। यहां दो और दो चार के बजाय पांच भी हो सकते हैं। बहरहाल यह हार भाजपा के लिए चेतावनी है कि वो आत्म-मुग्धता के आकाश से उतर कर जमीन की हकीकत महसूस करने का काम शुरू करे…।
सम्प्रति- लेखक श्री उमेश त्रिवेदी भोपाल एनं इन्दौर से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के प्रधान संपादक है। यह आलेख सुबह सवेरे के 15 मार्च के अंक में प्रकाशित हुआ है।वरिष्ठ पत्रकार श्री त्रिवेदी दैनिक नई दुनिया के समूह सम्पादक भी रह चुके है।