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मोदी-राहुल के ‘हाय-हैलो’ में सिमटा लोकतंत्र का राष्ट्रीय विमर्श ! – उमेश त्रिवेदी

उमेश त्रिवेदी

भारत के संसदीय लोकतंत्र के लिए कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी का यह कथन काले तमगे के समान है कि पिछले चार वर्षों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनके बीच महज दो-चार शब्दों मे सिमटे औपचारिक संवादों के अलावा कभी कोई बातचीत या परामर्श नहीं हुआ। लोकतंत्र की बुनियाद ही संवाद, सवाल और समन्वय पर टिकी है, जबकि मोदी की राजनीतिक तासीर पर मोनोलॉग हावी है। कर्नाटक विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के प्रचार के दरम्यान राहुल गांधी ने यह खुलासा किया प्रधानमंत्री के रूप में मोदीजी के साथ उनका संवाद कभी भी औपचारिकताओं की देहरी लांघ कर गंभीर राष्ट्रीय विमर्श की शक्ल अख्तियार नहीं कर सका। वैसे राहुल गांधी को इस बात का मलाल नहीं है कि मोदी उनसे बात क्यों नहीं करते हैं।

इस कथन के जरिए राहुल इस बात का खुलासा करना चाहते हैं कि मोदी की राजनीतिक प्रवृत्तियों में निरंकुशता और तानाशाही हावी है। लोकतांत्रिक परम्पराओं की जिरह में राहुल के कटाक्ष को गंभीरता से लिया जाना चाहिए। राहुल ने व्यापारियों की एक बैठक में कहा कि लोकसभा की बैठकों के दौरान यदि भूले-चूके आमना-सामना हो जाए तो दोनों के बीच नमस्कार अथवा हाय-हैलो के अलावा कोई संवाद नहीं होता है। मोदी के बारे में इस कठोर सच्चाई के खुलासे से अंदाज लगाया जा सकता है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की संसद क्यों लंगड़ा रही है? मौजूदा बजट-सत्र के दूसरे दौर में मोदी-सरकार के खिलाफ प्रस्तुत अविश्वास प्रस्ताव पर जारी गतिरोध के कारण 19 दिनों से संसद का कामकाज ठप्प पड़ा है। राज्यसभा में हंगामे का सिलसिला जारी है।

समझ से परे है कि लोकसभा में बहुमत होने के बावजूद मोदी-सरकार अविश्वास मत का सामना करने से क्यों कतरा रही है? संसद में विश्वास-मत पर संवाद से मुंह चुराने का कोई लॉजिक भाजपा के पास नहीं है। राहुल के इस तर्क को खारिज करना संभव नहीं है कि उनकी पार्टी भारत के 20 प्रतिशत वोटों का प्रतिनिधित्व करती है, फिर भी मोदी राष्ट्रहित के मुद्दों पर उनसे संवाद करने में परहेज क्यों करते हैं? इसके विपरीत मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री के रूप में जब कोई बड़ा फैसला लेते थे, तो भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी को हमेशा विश्वास में लेने की कोशिश करते थे। कांग्रेस भाजपा के प्रतिनिधि के नाते आडवाणी की राजनीतिक हैसियत और अनुभव का सम्मान करती थी।

बकौल राहुल, मोदी संवैधानिक संस्थाओं को दरकिनार करके काम करते हैं। सिस्टम से इनपुट लेने में उनका विश्वास नहीं है। वन-मेन शो के तहत वे सारे फैसले अकेले लेते हैं। अन्य विपक्षी नेताओं के साथ भी यही सलूक करते हैं। लोकतंत्र के लिए जरूरी उदारता मोदी-सरकार के व्यवहार में कभी भी दिखाई नहीं पड़ी है। संसदीय सौहार्द भारतीय लोकतंत्र की विशिष्टता रही है। मोदी इसके अपवाद हैं। वो चाहते तो लोकसभा में कांग्रेस को मान्यता प्राप्त विपक्षी दल का दर्जा दे सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। उनकी अनुदारता अभी भी कायम है। राज्यसभा के उप सभापति पीजे कुरियन कुछ ही महीनों में रिटायर होने वाले हैं। उपसभापति के पद पर कांग्रेस का पिछले 41 सालों से कब्जा है। मोदी कुरियन के रिटायर होने के बाद उप सभापति का पद शिवसेना को देना चाहते हैं। शिवसेना की नामंजूरी की दशा में यह पद भाजपा खुद अपने पास रखेगी।

प्रधानमंत्री के नाते मोदी को यह विचार करना चाहिए कि विपक्ष के साथ उनके रिश्ते लगातार क्यों बिगड़ रहे हैं। पक्ष-विपक्ष में कटुता और शत्रुता की यह मिसाल भारत में पहले कभी भी देखने में नहीं आई है। लोकसभा के भीतर या बाहर, अपने भाषणों में मोदी कई मर्तबा प्रधानमंत्री कम, विपक्षी नेता ज्यादा नजर आते हैं। संसद में पक्ष-विपक्ष में तकरार सामान्य परम्परा है, लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी या मनमोहन सिंह के समय टकराहट के इन दिनों जैसे दृश्या देखने को नहीं मिलते थे। पिछले शीतकालीन सत्र में भी मोदी ने नोटबंदी पर बहस नहीं होने दी थी। उस समय लालकृष्ण आडवाणी जैसे नेता ने लोकतंत्र की दुहाई देते हुए विपक्ष से तालमेल करने की पहल की थी, लेकिन पार्टी ने उन्हें बातचीत करने से रोक दिया था। बातचीत के लिए स्टैण्ड लेने पर राहुल गांधी ने आडवाणी को बधाई भी दी थी। आडवाणी ने उस वक्त कहा था कि नोटबंदी पर चर्चा नहीं हुई तो संसद हार जाएगी, लेकिन आजकल भाजपा में वही होता है जो मोदी चाहते हैं। इन दिनों भी संसद हार रही है और आगे भी हारती रहेगी…।

 

सम्प्रति- लेखक श्री उमेश त्रिवेदी भोपाल एनं इन्दौर से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के प्रधान संपादक है। यह आलेख सुबह सवेरे के 05 अप्रैल के अंक में प्रकाशित हुआ है।वरिष्ठ पत्रकार श्री त्रिवेदी दैनिक नई दुनिया के समूह सम्पादक भी रह चुके है।