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राजघाट पर उपवास से पहले बंगाली मार्केट में छोले भटूरे का ‘राजभोग’ – उमेश त्रिवेदी

उमेश त्रिवेदी

महात्मा गांधी के नाम पर राजनीति के छल-प्रपंच देश की राजनीतिक आचार-संहिता का हिस्सा बन चुके हैं। कोई भी पार्टी इसमें पीछे नहीं है। गांधी के नाम पर होने वाली इन घटनाओं को लोग राजनीतिक हादसा मानकर अनदेखा भी करने लगे हैं। लेकिन जब साबरमती आश्रम, राजघाट या सेवा-ग्राम जैसे पवित्र स्थलों पर भी राजनेता हुक्का गुड़गुड़ाने लगते हैं, तब समझना मुश्किल होता है कि राजनीतिक-प्रदूषण का अंजाम क्या होगा…? गांधी के इन तीन मर्म-स्थलों को राजनीतिक घटियापन से दूर रखना चाहिए, लेकिन दलितों पर होने वाले अत्याचार के विरोध में उपवास के नाम पर दिल्ली प्रदेश कांग्रेस कमेटी के नेताओ ने राजघाट पर जो अधर्म किया, वो हैरत में डालने वाला है।

राहुल ने ऐलान किया था कि 9 अप्रैल को दलित-अत्याचार के खिलाफ देश भर में कांग्रेसजन एक दिन का उपवास रखेंगे। राजघाट पर दिल्ली प्रदेश कांग्रेस के इस उपवास में राहुल गांधी भी हिस्सा लेने वाले थे। उपवास करने वाले प्रमुख चेहरों में अशोक गहलोत, शीला दीक्षित के अलावा दिल्ली प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष अजय माकन, हारून यूसुफ और अरविंदर सिंह लवली जैसे नेता शरीक थे। उपवास सुबह दस बजे से शुरू होने वाला था। लाइव टेलीकास्ट के अनुसार व्यवस्था के सूत्र वैसे ही बिखरे हुए थे, लेकिन राहुल की राजनीतिक पहल की हवा उस वक्त निकल गई, जब भाजपा ने सोशल मीडिया पर अजय माकन, अरविंदर सिंह लवली जैसे नेताओं का एक चित्र जारी कर दिया, जिसमें उपवास के पहले इन नेताओं को एक रेस्टॉरेंट में छोले-भटूरे खाते हुए दिखाया गया है। माकन और लवली ने सफाई दी है कि उपवास सांकेतिक रूप से सबेरे 10 बजे से शाम 4 बजे तक चलने वाला था। भाजपा ने सबेरे 8 बजे का फोटो जारी किया है।

अजय माकन और लवली की सफाई उनके वैचारिक खोखलेपन को उजागर करती है कि वो सत्याग्रहों में इस्तेमाल होने वाले गांधीवादी ‘टूल्स’ के ‘बेसिक्स’ भी नहीं समझते हैं।हिन्दुओं में उपवास की कालावधि सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक मानी जाती है। कालावधि के अलावा बाकी अनुशासन स्वैच्छिक होते हैं। कुछ लोग निराहार उपवास करते हैं, तो कुछ फलाहार या एकाहार के अनुशासन मानते हैं। दो-चार घंटों के उपवास की धारणा समाज में प्रचलित नहीं है।गुजरात के बाद कर्नाटक चुनाव में सॉफ्ट-हिन्दुत्व का आचमन दर्शाता है कि कांग्रेस भाजपा की जवाबी राजनीति के तोड़ ढूंढ रही है। कर्नाटक में वंदे-मातरम के राष्ट्रगान के साथ कांग्रेस के चुनाव-अभियान का आगाज भी कहता है कि कांग्रेस हिन्दू-मानस की अपेक्षाओं के अनुरूप बदलाव के लिए तैयार है। उपवास जैसे गांधीवादी अहिंसक हथियारों का इस्तेमाल भी इसी पहल का हिस्सा है।

भारत की राजनीति में महात्मा गांधी या उनके विचारों का राजनीतिक-व्यापार कार्पोरेट-घरानों के नृशंस व्यावसायिक हथकंडों की हदों को भी काफी पीछे छोड़ चुका है। गांधी-विचार में अन्तर्निहित राजनीतिक पवित्रता और परिपक्वता के आध्यात्मिक पहलुओं को समझना और उस पर अमल करना बिल्कुल आसान नहीं है। वैसे भी राजनीति में सच्चे गांधीवादी अथवा उनकी नीतियों और आदर्शों को जिंदगी की फिलॉसफी में ढालकर जीने वाले नेता दुर्लभ होते जा रहे हैं। सार्वजनिक जीवन में उन्हें चिन्हित करना अब मुश्किल काम हो चला है। छद्म गांधीवादी सच्चे और सार्थक गांधी-विचार को घेर कर बैठ गए हैं। सत्याग्रह के लिए जरूरी सत्यनिष्ठा, अहिंसा, निर्भयता, नैतिकता और आत्म-बल हम शायद ही हासिल कर पाते हैं, इसीलिए हमारे अनशन, घेराव, धरने, गिरफ्तारियां और भूख-हड़ताल अपना असर खोते जा रहे हैं।

पिछले समय एक टीवी कार्यक्रम में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने महात्मा गांधी को ‘चतुर बनिया’ के विशेषण से नवाजा था। लोगों को गांधी को ‘चतुर बनिया’ संबोधित करना पसंद नहीं आया था। बहरहाल, अमित शाह व्दारा गांधी को ‘चतुर बनिया’ कहना सवालों की राजनीतिक मीमांसा का हिस्सा था, लेकिन राजघाट पर छोले-भटूरे खाकर उपवास करने के कांग्रेसी-उपक्रम को विचारशीलता की किस श्रेणी में रखा जाएगा ? भारत में गांधीवाद की दुर्लभ राजनीतिक नस्ल भी दुर्लभ हो चली है। राजघाट के इस एपीसोड से पता चलता है कि अजय माकन जैसे जो नेता गांधी विचार को पिरो कर कांग्रेस की फिलॉसफी को हर दिन मीडिया के सामने अभिव्यक्त करते हैं, वो कितने खोखले हैं ?  गांधी के नाम पर यह विचार-शून्यता और व्यवहार-शून्यता कांग्रेस के लिए घातक है। राहुल गांधी को कांग्रेस के साहबजादे नेताओं को समझाना होगा कि गांधी के मर्म, धर्म और कर्म को समझने के लिए खेत-खलिहानों की ओर मुखातिब होना होगा। अन्यथा वो छोले-भटूरे खाकर उपवास करते रहेंगे और तोड़ते रहेंगे। गांठ बांध लें, दिल्ली के लुटियंस की गलियों में गांधी को समझना मुश्किल है…।

 

सम्प्रति- लेखक श्री उमेश त्रिवेदी भोपाल एनं इन्दौर से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के प्रधान संपादक है। यह आलेख सुबह सवेरे के 10 अप्रैल के अंक में प्रकाशित हुआ है।वरिष्ठ पत्रकार श्री त्रिवेदी दैनिक नई दुनिया के समूह सम्पादक भी रह चुके है।