
कर्नाटक में सरकार बनाने के लिए कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी ने जनता दल (सेक्युलर) से समझौता करके खुद को राजनीति की उन मनमौजी मौजों याने लहरों के हवाले कर दिया है, जिनका बहाव और स्वभाव स्थानीय पछुआ हवाएं निर्धारित करती हैं। कांग्रेस की पुरवैया हवाओं की वहां कोई औकात नहीं है। जैसे यह कहना मुश्किल है कि गंगा की मौज में यमुना की धाराओं का व्यवहार क्या होगा, वैसे ही यह समझना भी कठिन है कि राहुल गांधी की कांग्रेस के साथ बंगाल में ममता बैनर्जी की तृणमूल कांग्रेस अथवा आंध्र में चंद्राबाबू नायडू की तेलगू देशम पार्टी की हवाएं क्या व्यवहार करेगी ? राजनीति की बेमुरव्वत हवाओं में बेरुखी का अंदेशा बंगाल अथवा आंध्र के तटीय इलाकों तक सीमित नहीं है। यह चुनौती बिहार, उत्तर प्रदेश, उड़ीसा, केरल, तमिलनाडु जैसे राज्यों में भी है, जहां मौजूद राजनीतिक समन्दर में पैर जमाने के लिए कांग्रेस के राजनीतिक-जहाज के लंगर छोटे हैं। मौसमी नदियों में तैराकी के बाद गठबंधन की ‘स्वेज-नहर’ पार करने की चुनौती राहुल के लिए आसान नहीं है।
भाजपा के खिलाफ गठबंधन की पहल प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की आक्रामक राजनीति का जवाब है। कर्नाटक में कांग्रेस और जनता दल (सेक्युलर) का तालमेल देश की राजनीति में ‘फेडरल पोलिटिक्स’ के नए अध्याय का शंखनाद है। कर्नाटक के नतीजों ने दिखा दिया है कि चुनाव में त्रिकोणात्मक मुकाबले भाजपा के लिए लाभदायक सौदा है। नतीजों के बाद इसीलिए ममता बैनर्जी ने डांटने के अंदाज में जनता दल (सेक्युलर) से चुनावी-तालमेल नहीं करने पर कांग्रेस को आड़े हाथों लिया था। क्षेत्रीय दल चाहते है कि गठबंधन राजनीतिक वर्चस्व और ‘वोट-शेयर’ के आधार पर होना चाहिए। कांग्रेस की दृष्टि से यह फार्मूला खतरनाक है। उन सभी राज्यों में कांग्रेस की हालत पतली है, जहां समाजवादी, जनता दल या तेलुगुदेशम जैसी पार्टियों का वर्चस्व है। बंगाल (295) में से कांग्रेस के पास मात्र 44 सीटें हैं। उसी प्रकार उड़ीसा (147) में 14, आंध्र (175) में 22, बिहार (243) में 27, उत्तर प्रदेश (404) में 7, महाराष्ट्र (289) में 42 सीटें ही कांग्रेस के पास हैं।
कर्नाटक में कांग्रेस-जीडीएस के इस गठबंधन ने क्षेत्रीय दलों की राजनीति में नई हलचल पैदा की है। कर्नाटक सरकार के गठन में भाजपा के खिलाफ मायावती, अखिलेश यादव, ममता बैनर्जी, चंद्राबाबू नायडू अथवा के. चंद्रशेखर राव जैसे नेताओं की एकजुटता ने भाजपा को चिंता में डाल दिया है। गौरतलब यह है कि इस मसले पर राहुल ने कांग्रेस के नफे-नुकसान को एक तरफ ऱख दिया है। यह ‘पोलिटिकल-ब्लण्डर’ है, क्योंकि इस देशव्यापी राजनीतिक गठबंधन के बेसिक्स ही तय नहीं हुए हैं।
राहुल के लिए यह कठिन परीक्षा है। भाजपा यह धारणा बनाने में कामयाब रही है कि राहुल खतरों के बड़े खिलाड़ी नहीं हैं। खुद उनकी कांग्रेस में, जिसकी राजनीतिक लहरों की तासीर इंटरनेशनल स्वीमिंग पूल के ठहरे पानी की खूबसूरत लहरों जैसी है, उनके पदारोहण का सफर काफी लंबा रहा है। वो काफी पहले पार्टी की कमान संभाल सकते थे, यूपीए की दोनों सरकारों में मंत्री भी बन सकते थे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। राहुल ने कभी यह खुलासा नहीं किया कि वो सरकार में क्यों शरीक नहीं हुए अथवा कांग्रेस की कमान संभालने से क्यों हिचकिचाते रहे? कुछ लोगों की नजर में राहुल का यह व्यवहार उन आरोपों को खारिज करता है कि पद-लोलुपता उनके डीएनए में है, जबकि भाजपा और उसका सोशल मीडिया इस हिचक को उनके ‘पप्पुपने’ का सबब मानता है।
2004 में राजनीति में पदार्पण करने वाले राहुल गांधी अभी तक कांग्रेस के राजघाट के किनारे बंधुआ लहरों में तैराकी करते रहे हैं। सही अर्थों में राहुल गांधी ने पहली मर्तबा राजनीति की असली तूफानी लहरों की चुनौती को स्वीकार किया है। राजनीति के महासागर में कूदने का फैसला उनका अपना है, और इसलिए खुद की हिफाजत भी उनको खुद ही करना पड़ेगी। कर्नाटक में कुमार स्वामी को मुख्यमंत्री बनाने के ताबड़तोड़ फैसले ने जिस प्रकार भाजपा की रणनीति को धराशायी किया है, वह गौरतलब है। इससे राजनीति के तेवर बदले हैं, भाजपा की चुनौतियां बढ़ी हैं। विपक्षी एकता के आधार बने हैं। सवाल यह है कि गठबंधन की राजनीति के गहरे समन्दर में कांग्रेस का यह छोटे लंगर वाला जहाज कहां और कैसे खड़ा होगा, यह देखना दिलचस्प होगा,क्योंकि दूसरे जहाज के कप्तान राजनीति के चतुर खिलाड़ी हैं।
सम्प्रति-लेखक श्री उमेश त्रिवेदी भोपाल एवं इन्दौर से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के प्रधान सम्पादक है।यह आलेख सुबह सवेरे के प्रधान सम्पादक है।यह आलेख सुबह सवेरे के 22 मई के अंक में प्रकाशित हुआ है।
CG News | Chhattisgarh News Hindi News Updates from Chattisgarh for India