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संघ के कार्यक्रम में प्रणव दा की शिरकत के दूरगामी नतीजे – उमेश त्रिवेदी

उमेश त्रिवेदी

देश की राजनीति में, खासतौर से कांग्रेस के हलकों में, इस सवाल का जवाब हमेशा सवाल बना रहेगा कि अपनी जिंदगी के साठ वर्षों तक कांग्रेस की ओर से आरएसएस और भाजपा विरोधी पोलिटिक्स करने वाले पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी को नागपुर में आयोजित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यक्रम में जाना चाहिए था अथवा नहीं जाना चाहिए था? इतिहास के पन्नों में या देश के राजनीतिक बहीखाते में कांग्रेस, भाजपा अथवा संघ को होने वाले नफे-नुकसान के निष्कर्ष समुन्दर की लहरों की तरह उछाल मारते हुए, किनारों से टकराते हुए रेत की लकीरों पर राजनीति की फेनिल आकृतियां गढ़ते रहेंगे, जिसका कोई ठोस आकार अथवा स्वरूप कभी भी सामने नहीं आ पाएगा।

प्रणव मुखर्जी 7 जून 2018 के दिन आरएसएस के न्योते पर नागपुर में आयोजित संघ के सालाना प्रशिक्षण वर्ग के दीक्षान्त समारोह को संबोधित करने गए थे। विवेचना के पहले आयोजन का स्वरूप समझना जरूरी है। आरएसएस हर साल गर्मियों में देश भर में ट्रेनिंग कैंप का आयोजन करता है। आखिरी साल के कैंप को तृतीय वर्ष संघ शिक्षा वर्ग के नाम से संबोधित किया जाता है। यह आयोजन हर साल संघ के मुख्यालय नागपुर में होता है। इस कैंप में वही स्वयंसेवक भाग ले सकते हैं, जो पहले या दूसरे साल के कैंप में भाग ले चुके होते हैं। तृतीय वर्ष संघ शिक्षा वर्ग में सफल स्वयंसेवक, संघ के पूर्णकालिक प्रचारक के तौर पर काम करने के काबिल हो जाते हैं।

प्रणव दा को अपने संबोधन में संघ के आदर्शों से पूरी तरह प्रशिक्षित इन्हीं स्वयंसेवकों को दीक्षित करना था। दीक्षान्त समारोह की शाब्दिक विवेचना के मायने यह हैं कि इसे संबोधित करने वाला व्यक्ति अपने उद्बोधन में उन छात्रों को दीक्षा देता है, जो अपना प्रशिक्षण पूरा करके जीवन के व्यावहारिक-धरातल पर पदार्पण करते हैं। नागपुर में आयोजित संघ के इस दीक्षान्त-समारोह को इस श्रेणी में रखना संभव नहीं है। दीक्षान्त समारोह का सबब संघ के करीब 800 से ज्यादा प्रशिक्षार्थियों को देश की उस राजनीतिक बिरादरी को आरएसएस के वर्चस्व और अधिमान्यता से दीक्षित करने का था, जो लोकतंत्र के नाम पर अनेक सवालों पर आरएसएस को कठघरे में खड़ा करती रही है।

संघ का इस कार्यक्रम में प्रणव मुखर्जी को बुलाना, पूर्व राष्ट्रपति का दीक्षान्त समारोह में जाना, उनका लोकतांत्रिक विषयों पर बात करना एक जबरदस्त पोलिटिकल गेम-प्लान था, जो सदाशयता, सहृदयता, सहिष्णुता, सहभागिता और संवैधानिकता के डेमोक्रेटिक कायदों और आचार-संहिता के नाम पर खेला गया। संघ का कोई भी काम अल्पकालीन या एजेण्डा-विहीन नहीं होता है। संघ की कार्य-शैली में भूतकाल का अनुभव, वर्तमान की जरूरतें और भविष्य की संभावनाओं को ध्यान में रख कर आगे बढ़ने की परम्परा और पद्धति है। इस परिप्रेक्ष्य में दीक्षान्त-समारोह के आयोजन का उद्देश्य महज देश में गुम होते जा रहे लोकतांत्रिक संवादों की पुनर्स्थापना तक सीमित रखना, उन सवालों के साथ अन्याय होगा, जो लोगों के जहन में उभर रहे हैं।

ये सवाल देश में मोदी-सरकार के गठन के बाद गहरे हुए हैं। संघ के कार्यक्रम में प्रणव मुखर्जी की शिरकत ने उस सवाल को ताजा कर दिया है कि धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे पर संघ के साथ संवाद करना बेमानी है? हिन्दुत्व अथवा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, अल्पसंख्यकों के मसलों से जुड़े सवाल भी राजनीतिक-वातावरण को उद्वेलित करते रहते हैं। दिल्ली में मोदी-सरकार के गठन के बाद आरएसएस आत्मविश्‍वास से लबरेज है। उसे लग रहा है कि जनता उसके पक्ष में खड़ी होकर इन सवालों का जवाब दे रही है। लेकिन राजनीतिक दृष्टि से यह कहानी अभी अधूरी है।

आरएसएस देश के राष्ट्रीय फलक पर प्रभावी तरीके से हावी कांग्रेस को गुमनामी के उन अंधेरों कोनों में ढकेलना चाहता है, जहां से उसकी वापसी संभव नहीं है। कांग्रेस के खिलाफ राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को परवाज देने की गरज से संघ और भाजपा का नेतृत्व, कांग्रेस के सिद्धांतों के आधार पर कांग्रेस के नेताओं के द्वारा ही कांग्रेस की राजनीति में खलल पैदा करने की सुनियोजित रणनीति पर काम कर रहा है। संघ के कार्यक्रम में प्रणव मुखर्जी की शिरकत उसी रणनीति का मास्टर-स्ट्रोक है।

 

सम्प्रति-लेखक श्री उमेश त्रिवेदी भोपाल एवं इन्दौर से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के प्रधान सम्पादक है।यह आलेख सुबह सवेरे के प्रधान सम्पादक है।यह आलेख सुबह सवेरे के 11 जून के अंक में प्रकाशित हुआ है।