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वृद्ध जनों के साथ, कितना न्याय कर पा रहा है समाज ! –डा. राजाराम त्रिपाठी

(20 फरवरी-‘विश्व सामाजिक न्याय दिवस’ पर विशेष)

पिछले दिनों हमने एक खबर पढ़ी कि अपने युवावस्था में रजत फैट पर राज करने वाली देश की एक विख्यात अभिनेत्री अपने जीवन के अंतिम चरण में अपने कमरे में मृत पाई गई दुखद पहलू यह था कि उनकी मृत्यु का पता तब चला जब उनकी लाश बुरी तरह से सड़ गई और बदबू पू आस पड़ोस में फैल गई। अभिनेत्री काफी बूढी हो गई थी और अकेले रहती थी। ऐसी ही एक और दुखद खबर आई जिसमें एक वृद्ध दंपत्ति देश की राजधानी में दम तोड़ गए उनकी मृत्यु का पता भी पड़ोसियों को उनकी लाशें सड़ने की बदबू फैलने के बाद चला। दुखद पहलू यह था कि इस अभागे दंपति के दो सफल बच्चे थे जो पत्नी बच्चों के साथ विदेश में रहते हैं। अब ऐसी खबरें आए दिन आम होने लगी है। मौत एक कठोर सच्चाई है और बुढापा मौत के पहले का पड़ाव है। सुखद मौत की प्रत्याशा हर व्यक्ति को रहती है, और सुखद मौत के लिए सुखमय  बुढ़ापा जरूरी है।

  सनातन धर्म में जीवन के चार चरण बताए गए हैं:– ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। इसके अनुसार मनुष्य की आयु 100 वर्ष की मानते हुए  आधा जीवन जी लेने के बाद आध्यात्मिक उन्नति हेतु वानप्रस्थ प्रस्थान कर सन्यासी का जीवन जीते हुए मृत्यु पर्यन्त, जीवन/मरण आवागमन से मुक्ति हेतु मोक्ष के लक्ष्य प्राप्ति हेतु  तपस्या किया जाना चाहिए। पर अब न जंगल रहे, और ना ही मोक्ष की आशा।

प्राच्य वांग्मय में वृद्ध व वृद्धावस्था की बड़ी महिमा गाई गई है, यहां तक कहा गया है कि,

वृद्ध ही ईश्वर रूप, वृद्ध ही घर में भगवान हैं।

जिस घर हो वृद्ध-सम्मान, वह घर तीर्थ समान है।

और यह भी कहा गया है कि

“श्रोतव्यं खलु वृध्दानामिति शास्त्रनिदर्शनम् ।”

अर्थात वृद्धों की बात सुननी चाहिए ऐसा शास्त्रों का कथन है। परंतु क्या सचमुच समाज में वृद्धो की स्थिति आज सम्माननीय है?

वृद्धावस्था में होने वाले सफेद बालों पर मीठी चुटकी लेते हुए श्रंगार रस के रससिद्ध महाकवि केशव लिखते हैं:-

केशव’ केसन अस करी, जस अरिहू न करांहिं, चंद्रबदन मृगलोचनी, बाबा कहि कहि जांय ।

परन्तु असल समस्या बहुत गंभीर है। अपने जीवन भर की कमाई, अपने जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा अपने बच्चों के शिक्षा दीक्षा, देखभाल तथा उनके सुरक्षित भविष्य के लिए कुर्बान कर देने वाले माता-पिताओं को क्या बुढ़ापे में अपनी संतानों का प्रेम, सानिध्य तथा जरूरी देखभाल मिल पा रहा है?

 क्या वर्तमान समाज में वृद्ध सुविधा पूर्ण सम्मानित जीवन जी पा रहे हैं? ये वो सुलगते हुए सवाल हैं जो  अपने परिवार को तथा समाज को अपना सब कुछ अर्पित कर देने के उपरांत अपने लाचार शरीर के साथ अकेलापन झेलने को मजबूर वृद्ध जन अपनी संतानों से, अपने परिवार से, तथा हमारे समाज से पूछ रहे हैं।

  प्रेमचंद लिखा है कि बुढ़ापा प्रायः बचपन का पुनरागमन होता है। यहां यह विचारणीय तथ्य है की बचपन में छोटे बच्चों को खिलाने पिलाने तथा उसकी देखभाल करने हेतु माता-पिता, अभिभावक होते हैं किंतु वही माता-पिता, अभिभावक जब बूढ़े हो जाते हैं और उन्हें देखभाल तथा सहारे की जरुरत होती है तब उनकी संतानें अपना यह जरूरी कर्तव्य निभाने के बजाय  या तो उन्हें किसी वृद्धआश्रम में छोड़ आते हैं या फिर उन बेचारों को सिसक सिसक कर, एड़ियां रगड़कर मरने के लिए बेसहारा  छोड़ देते हैं।

   संयुक्त राष्ट्र संघ ने वर्ष 2023 की थीम वृद्ध व्यक्तियों के लिए मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा के वादों को पूरा करना रखा गया था, किंतु कारण चाहे जो भी रहे हों पर जमीनी हकीकत यही है कि आज-पर्यंत उस दिशा में कोई ठोस कार्य नहीं हो पाए हैं।

    इसी 20 फरवरी को हम ‘विश्व सामाजिक न्याय दिवस’ मनाने जा रहे हैं। विचारणीय प्रश्न है कि क्या हमारा समाज,  अपने वृद्ध व अशक्त जनों के साथ समुचित सामाजिक न्याय कर रहा है?

    हम अपने देश की अगर बात करें तो यहां वृद्ध जनों , वरिष्ठ नागरिकों के कल्याण हेतु अभी भी बहुत कुछ किया जाना शेष है। विडंबना है कि वृद्ध जनों को पूर्व में दी जाने वाली रेलवे यात्रा टिकट में रियायत को भी वर्तमान में बंद कर दिया गया है।  कुल मिलाकर वृद्ध जनों, वरिष्ठ नागरिकों के हितों की बातें तो बहुत होती हैं पर हकीकत तो यही है कि अपने बुढ़ापे को ढोते, मृत्यु की ओर अग्रसर बुजुर्गों के लिए वृद्ध जनों की सामाजिक सुरक्षा, सामाजिक कल्याण, समुचित देखभाल, चिकित्सा एवं भरण पोषण को सुनिश्चित करने की दिशा में ठोस कार्य के नाम पर आज तक कुछ भी खास नहीं किया है हमने।

    यह विषय वर्तमान में इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि हमारे देश सहित पूरे विश्व में वृद्धो की संख्या आश्चर्यजनक तेजी के साथ बढ़ रही है।आंकड़े गवाह हैं कि 2011-2021 के बीच भारत में बुजुर्गों की आबादी 35.5 फीसदी की दर से बढ़ी है ।आगे 2021 से 2031 के बीच ये दर 40 फीसदी से ज्यादा रहने का अनुमान है।  एक रिपोर्ट के मुताबिक, एक जुलाई 2022 तक देश में बुजुर्गों की आबादी 14.9 करोड़ थी और आबादी में बुजुर्गों की हिस्सेदारी 10.5%  थी। सन 2050 के आते तक बुजुर्गों की संख्या लगभग 35 करोड़ हो जाएगी अर्थात देश में हर सौ लोगों में 21 लोग बूढ़े होंगे। यानी कि बच्चों से ज्यादा संख्या बूढ़ों  की की होगी। क्या हमारे देश ने आने वाले वक्त में अपने वृद्ध जनों के जीवन को सहज सुगम तथा सुखी बनाने की कोई ठोस रणनीति तैयार की है? जवाब में आपको लंबे सन्नाटे के अलावा कुछ नहीं मिलने वाला। हमारे समाज का युवा यह भूल जाता है कि एक दिन चाहे अनचाहे उसे भी वृद्धों की लाइन में अनिवार्य रूप से खड़ा होना है। युवा यह भी भूल जाता है कि  इस  नामुराद वार्धक्य यानि बुढापे का बोझ उठाना व्यावहारिक रूप से कितना कठिन होता है।  

 इसे राजा भर्तृहरि के वैराग्यशतकम् के इस श्लोक से समझा जा सकता है:

“गात्रं सङ्कुचितं गतिर्विगलिता भ्रष्टा च दन्तावलिर्दृष्टिर्नश्यति वर्धते बधिरता वक्त्रं च लालायते ।

वाक्यं नाद्रियते च बान्धवजनो भार्या न शुश्रूषते हा कष्टं पुरुषस्य जीर्णवयसः पुत्रोऽप्यमित्रायते ॥

(भर्तृहरिरचित वैराग्यशतकम् -111)

भावार्थ यह है कि ” वृद्धावस्था में आदमी की ऐसी दुर्गति होती है कि शरीर सिकुड़ने लगता है ,उसमें झुर्रिया पड़ जाती हैं  व्यक्ति लड़खड़ाते हुए चलता है, दांत गिर जाते हैं, आंखों की ज्योति क्षीण हो जाती है, सुनाई भी कम देता है, मुंह से अनायास लार टपकने लगती है, अपने मुख पर भी नियंत्रण नहीं रह जाता है, परिजन, रिश्तेदार भी कहे गये वचन का सम्मान नहीं करता, पत्नी भी पूर्ववत सेवाभाव नहीं दर्शाती है, और पुत्र भी शत्रु की भांति व्यवहार करने लगता है; हाय! उम्र ढल जाने पर व्यक्ति का जीवन कितना कष्टप्रद हो जाता है!

 यह श्लोक मनुष्य जीवन के उत्तरार्ध के शाश्वत कटु सत्य से साक्षात्कार कराता है।

 आज शारीरिक रोगों के कई तरह के कारगर उपचार उपलब्ध होने के कारण संपन्न लोगों के लिए स्थिति उतनी गंभीर नहीं रहती है। किंतु कहां जाता है कि बुढ़ापा एक अनिवार्य लाइलाज बीमारी है। इसलिए चाहे धनी व्यक्ति हो अथवा गरीब हो आखिर कार बुढापे में हर व्यक्ति का शरीर क्षीण तथा असमर्थ होने लगता है । भरपेट संतुलित भोजन प्राप्त न होने के कारण कुपोषण के शिकार गरीब व्यक्ति का बुढ़ापा और ज्यादा कठिन और नारकीय होता है। कारण चाहे जो भी हों पर हकीकत तो यही है कि आज बहुसंख्य बूढ़े लोगों को बुढ़ापा एक कठोर अभिशाप के तौर पर भोगना ही पड़ता है। समाज ने अपने बुजुर्गों का जीवन आज नर्क बना दिया है। न्यूक्लियर फैमिली में तो वृद्धों के लिए कोई जगह है ही नहीं। कुछ लोग वृद्ध आश्रम में रह रहे हैं तो कई बेचारे तो भीख मांगने को मजबूर हो जाते हैं।

ऐसा नहीं है कि वृद्धजनों के समुचित देखभाल तथा पालन पोषण को लेकर कोई प्रयास नहीं किए गए।

आजादी के बाद इस देश में वृद्धि जनों की सुरक्षा एवं देखभाल को लेकर कई कानून तथा नीतियां बनाई गई।

सरकारी कानून तथा प्रयास:-

1-साधन विहीन माता-पिता अपने साधन सम्पन्न बच्चों द्वारा सहयोग प्राप्त करने के अधिकार को आपराधिक प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 125 (1) (डी) तथा हिन्दू दतक तथा भरण-पोषण अधिनियम, 1956 की धारा 20 ( 1 एवं 3 ) द्वारा मान्यता प्रदान किया गया है ।

2- राष्‍ट्रीय वृद्धजन नीति 1999: –

राष्ट्रीय वृद्धजन नीति के पैरा 95 के प्रावधानो के अनुसार, सरकार ने सामाजिक न्‍याय और अधिकारिता मंत्री की अध्‍यक्षता में 10 मई, 1999 को एनसीओपी का गठन किया था। एनसीओपी वृद्धजनों के लिए कल्‍याण नीति और कार्यक्रम तैयार करने तथा क्रियान्‍वित करने में सलाह देने तथा सरकार के साथ समन्‍वय करने के लिए शीर्षस्‍थ संस्‍था है।

3-‘माता पिता और वरिष्ठ नागरिक भरण पोषण कानून-2007 ’:-

 माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों का भरणपोषण और कल्याण अधिनियम, 2007 को माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों की आवश्यकता के आधार पर उनका भरणपोषण और कल्याण सुनिश्चित करने के लिए 29 दिसंबर, 2007 को अधिनियमित किया गया था ।

सरकार ने बुजुर्गों के हितों की रक्षा हेतु कानून तो बना दिया किंतु इसके प्रावधानों का सख्ती से पालन किया जाएगा तभी बुजुर्गों को कोई राहत मिल पाएगी।

4 -माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों का भरण पोषण और कल्याण (संशोधन) विधेयक, 2019:- इसमें बुजुर्गों के भरण पोषण तथा हित रक्षा हेतु इसमें कई संशोधन तथा नए प्रस्ताव रखे गए हैं।

5–बुजुर्गों के लिए समन्वित कार्यक्रम :-

 सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय द्वारा लागू की गई इस योजना द्वारा वृद्धाश्रमों, दिवा देखभाल केन्द्र, मोबाइल मेडीकेयर इकाइयों की स्थापना करने तथा उनका रख रखाव करने तथा बुजुर्गों को गैर संस्थागत सेवाएँ प्रदान करने में किया जाता है।

 कुछेक अन्य परियोजनाएं कुछ इस प्रकार है:-

क-आराम एवं सतत देखभाल गृहों का रखरखाव,

अलजाइमर रोग / डिमेंसिया रोगियों के लिए देखभाल केंद्र;

ख-बुजुर्गों के लिए भौतिक चिकित्सा क्लिनिक;

बुजुर्गों के लिए हेल्प लाईन तथा काउन्सिलंग केन्द्र;

ग-बुजुर्गों का देखभाल करने वालों को प्रशिक्षण;

घ-बुजुर्गों तथा देखभाल करने वालों के लिए जारूकता पैदा करने वाले कार्यक्रम;

ङ-वरिष्ठ नागरिक संगठनों की स्थापना।

6- संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा भी वृद्ध जनों तथा सीनियर सिटीजन के सतत कल्याण के दृष्टिकोण से प्रतिवर्ष 1 अक्टूबर को अंतरराष्ट्रीय वृद्धजन  दिवस मनाया जाता है।

7-संयुक राष्ट संघ द्वारा वर्ष 2023 की अंतर्राष्ट्रीय वृद्धजन दिवस की थीम ” वृद्ध व्यक्तियों के लिए मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा के वादों को पूरा करने ” की रखी गई थी। परंतु इस थीम पर भी अपेक्षित कार्य नहीं हो पाया है।

 वर्तमान समय में देश के लगभग  250 जिलों में केवल 400 वृद्धाश्रम संचालित हैं। इसके अलावा गैर सरकारी संस्थाओं  द्वारा भी कई वृद्धाश्रम संचालित किया जा रहे हैं‌, जबकि इस समय लगभग 4000 वृद्धाश्रमों की तात्कालिक आवश्यकता है।  वर्तमान में बहुसंख्य वृद्धजनों की दुरावस्था को देखते हुए यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि यह सारे प्रयास नाकाफी हैं।

अंत में बूढ़ों की दशा के बारे में ‘अकबर इलाहाबादी’ की दो लाइनों से बात खत्म करना चाहूंगा कि,

“बूढ़ों के साथ लोग कहाँ तक वफ़ा करें,

बूढ़ों को भी जो मौत न आए तो क्या करें !!

सम्प्रति-लेखक डा. राजाराम त्रिपाठी जाने माने किसान नेता हैं।राष्ट्रीय स्तर पर पहचाने जाने वाले प्रगतिशील किसान डा.त्रिपाठी की साहित्य जगत में भी अच्छी पैठ है।