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जन संस्कृति मंच का 17वां राष्ट्रीय सम्मेलन सम्पन्न

रांची 14 जुलाई। जन संस्कृति मंच का 17वां राष्ट्रीय सम्मेलन 12 व 13 जुलाई को सोशल डेवलपमेंट सेंटर, रांची (झारखंड) में फासीवाद की विभाजनकारी संस्कृति के खिलाफ सृजन और संघर्ष के संकल्प व आगे की कार्य योजना तथा पदाधिकारियों, राष्ट्रीय कार्यकारिणी व परिषद के चुनाव के साथ संपन्न हुआ।

   सम्मेलन में बंगाल, ओडिशा, झारखंड, छत्तीसगढ़, तेलंगाना, बिहार, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, पंजाब, राजस्थान, महाराष्ट्र आदि राज्यों से तीन सौ से अधिक लेखक, कलाकार और बुद्धिजीवी शामिल हुए।

 सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए सोशल एक्टिविस्ट डॉ नवशरण सिंह ने कहा कि आज फ़ासीवाद का चौतरफा हमला हो रहा है। आज लोगों का साथ में मिलना-जुलना और बैठना भी आपराधिक गतिविधि मानी जा सकती है। यदि कोई शख्स बुद्धि और विवेक से भरा हुआ है तो वह आपराधिक दायरे में आ चुका है। उमर खालिद को फ़ासीवादियों ने पांच साल से जेल में डाल रखा है। दमन और विभाजन के औजारों का बर्बर इस्तेमाल सत्ता के द्वारा हो रहा है।

   डा.सिंह ने सीएए के खिलाफ महिलाओं के आंदोलन और किसान आन्दोलन की चर्चा की। इन आंदोलनों में हम जन एकता और संघर्ष की संस्कृति को देखते हैं। हम फ़ासीवादियों की नफ़रत को अपनी विरासत, आपसी मोहब्बत और एकता के सहारे परास्त करेंगे।

  सम्मेलन में जसम के राष्ट्रीय अध्यक्ष रविभूषण ने कहा कि 2014 से पहले स्वाधीन भारत में कभी विभाजनकारी शक्तियां इतनी प्रबल नहीं थीं। भाजपा को बहुमत मिलने के बाद इस देश में एक भी लोकतांत्रिक और संवैधानिक संस्था नहीं बची है। लोकतंत्र के सभी स्तंभ ढह गए हैं।

जाने माने दस्तावेजी फिल्मकार बीजू टोप्पो ने कहा कि झारखंड में विस्थापन विरोधी आंदोलनों का लंबा इतिहास रहा है जो बताता है कि यह संघर्ष की जमीन है। हमने जल जंगल जमीन और भाषा संस्कृति को बचाने की लड़ाई लड़ी है और अपने गीत, कविता और नाटक के माध्यम से फासीवाद से लड़ रहे हैं।

   प्रलेस के महादेव टोप्पो ने कहा कि फासीवाद अब कोई अटकल नहीं है, बल्कि नग्न तांडव कर रहा है। जैसा कि मार्क्सवादी एजाज अहमद कहते हैं, हर देश अपने ढंग के फासीवाद का हकदार होता है। भारत में सदियों से महिलाओं, दलितों, आदिवासियों के खिलाफ हिंसा से जो आंख चुराई गई उसने फासीवाद के लिए रेड कार्पेट बिछाया। उमर खालिद से फादर स्टेन स्वामी तक के मामले में निगरानी राज्य का क्रूर चेहरा सामने आया है। फासीवादी के खिलाफ लड़ाई में प्रलेस कंधा से कंधा मिलाकर लड़ने को तैयार है।

   जम्मू विश्वविद्यालय के प्रो राशिद ने कहा कि आज ऐसी चीजें घटित हो रही हैं जिसके बारे में कुछ साल पहले तक सोचा भी नहीं जा सकता था, जैसे बाजार में पानी बिकना, नदी का प्रवाह रोका जाना। हम लोग बचपन में देशभक्ति का एक गीत सुना करते थे – बारूद के ढेर पर बैठी है ये दुनिया, तुम हर कदम उठाना जरा देख-भाल के। लेकिन आज स्थिति ये हो गई है कि हमारे कदम ठिठक गए हैं। उन्होंने गाजा में इजराइली बर्बरता और ईरान पर साम्राज्यवादी हमले पर भी बात की।

   दस्तावेजी फिल्मकार संजय काक ने जनवादी संस्कृति कर्म के अपने अनुभवों को साझा किया। उन्होंने कहा कि डॉक्यूमेंट्री फिल्में पहले चंद लोगों तक सीमित थीं, लेकिन जब जनता के मुद्दों पर फ़िल्में बनने लगीं तो ऑडिटोरियम भरने लगे। लेकिन सत्ताधारी भी इसे देख रहे थे, धीरे धीरे अंकुश लगने लगे, स्क्रीनिंग रोकी जाने लगी। उन्होंने आज की पीढ़ी तक पहुंचने के लिए यूट्यूब, इंस्टाग्राम, फेसबुक जैसे नए मंचों का इस्तेमाल करने की सलाह दी। इन मंचों पर दक्षिणपंथी सक्रियता की काट जरूरी है।

  जलेस के एम जेड खान ने कहा कि हम नाजुक दौर से गुजर रहे हैं। डर से सब खामोश हैं। पूंजीवाद पोषित सांप्रदायिक फासीवाद का नंगा नाच चल रहा है। गोलवलकर के सपनों का भारत बनाने के क्रम में एक खास समुदाय को निशाना बनाया जा रहा है। धर्म संसद से एक समुदाय के सफाए का खुला आह्वान किया जाता और हर तरफ खामोशी है। उन्होंने कहा कि देश को आज राजनीतिक से ज्यादा सांस्कृतिक आंदोलन की जरूरत है।

  इप्टा के शैलेन्द्र ने कहा कि हम एक सुंदर दुनिया के साझे ख्वाब से बंधे हैं। कहीं भी गरीब का खून बहता है तो हमें दर्द होता है। ग्राम्सी के शब्दों में कहें तो यह वैचारिक वर्चस्व का जमाना है। भारत में इसे ब्राह्मणवादी शोषण व्यवस्था से खाद पानी मिला है। बाजार की सत्ता से जुलूस से नहीं, बल्कि संस्कृति से लड़ा जा सकता है। हमारे सोच विचार, व्यवहार को बाजार और कॉरपोरेट तय कर रहे हैं। नरेंद्र मोदी भी कॉरपोरेट का पॉलिटिकल प्रोड्यूस हैं, जिसे यही है राइट चॉइस बेबी बताकर बेच दिया गया। हमारी मोहब्बत और सौन्दर्यबोध नई दुनिया रचेंगे।

  उद्घाटन सत्र का संचालन करते हुए प्रो आशुतोष ने कहा कि फासीवाद सांस्कृतिक प्रतिक्रांति है। आज आजादी की जगह भक्ति और दासता तथा समानता की जगह पितृसत्ता और वर्णव्यवस्था को स्थापित किया जा रहा है। इस प्रतिक्रांति को हमें परास्त करना है। प्रो उमा ने धन्यवाद ज्ञापित करने के साथ ही उमर खालिद की रिहाई के लिए एकजुटता का आह्वान किया। प्रो सुधीर सुमन ने शोक प्रस्ताव पढ़ा तथा एक मिनट के मौन के साथ यह सत्र समाप्त हुआ।

   सम्मेलन के दूसरे दिन सांगठनिक सत्र था जिसमें महासचिव मनोज कुमार सिंह ने फासीवादी दौर, उसके हमले व चुनौतियां, जसम के कामकाज की समीक्षा तथा आगे के कार्यभार को लेकर प्रतिवेदन विचार के लिए प्रस्तुत किया। इस पर हुई चर्चा में विभिन्न राज्यों से आए दो दर्जन से अधिक प्रतिनिधियों ने अपने विचार व्यक्त किए। अनेक सुझाव आए। इस सत्र के अध्यक्ष मंडल की ओर से सियाराम शर्मा (छत्तीसगढ़), अहमद सगीर (बिहार) और कौशल किशोर (उत्तर प्रदेश) ने अपने विचार रखे। इस सत्र का संचालन प्रेम शंकर ने किया। प्रतिनिधियों के द्वारा दिए गए सुझावों को शामिल करते हुए सदन ने प्रतिवेदन को पारित किया।

  सांगठनिक सत्र का दूसरा भाग चुनाव का था। वरिष्ठ रंगकर्मी, कवि-लेखक जहूर आलम को अध्यक्ष तथा लेखक व पत्रकार मनोज कुमार सिंह को महासचिव की जिम्मेदारी दी गई। शिवमूर्ति, रामजी राय, मदन कश्यप,  भारत मेहता, लाल्टू, सुरेन्द्र प्रसाद सुमन और कौशल किशोर उपाध्यक्ष बनाए गए। वहीं सुधीर सुमन, अनुपम सिंह, रूपम मिश्र, अहमद सगीर और राजकुमार सोनी को सचिव तथा के के पांडेय को कोषाध्यक्ष चुना गया। सम्मेलन में 52 सदस्यीय राष्ट्रीय कार्यकारिणी और 213 सदस्यीय राष्ट्रीय परिषद भी चुनी गई।

  दोनों दिन शाम में आयोजित सांस्कृतिक कार्यक्रमों तथा विभिन्न सत्रों के दौरान झारखंड, बिहार, उत्तर प्रदेश, बंगाल, छत्तीसगढ़, ओडिशा, तेलंगाना आदि राज्यों से आई सांस्कृतिक टीमों व कलाकारों द्वारा गीत-गायन, नृत्य, नाटक, काव्य की संगीतमय प्रस्तुतियां  हुईं जो सम्मेलन का विशेष आकर्षण का केंद्र थीं। ‘हम होंगे कामयाब ‘ के गायन तथा अपने-अपने कार्य क्षेत्र में फासीवाद के विरुद्ध सांस्कृतिक अभियान को तेज करने की प्रतिबद्धता के साथ सम्मेलन समाप्त हुआ।