
संसद में हाल ही में पारित विकसित भारत–जी राम जी विधेयक को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की मंजूरी मिलने के साथ ही यह कानून का रूप ले चुका है। महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) की जगह लाए गए इस नए कानून को लेकर राजनीतिक हलकों में तीखी बहस शुरू हो गई है। जहां एक ओर केंद्र सरकार इसे ग्रामीण विकास की नई दिशा बताने में जुटी है, वहीं कांग्रेस समेत कई विपक्षी दल इसका कड़ा विरोध कर रहे हैं।
विरोध का सबसे बड़ा कारण इस योजना के तहत राज्यों पर डाले गए 40 प्रतिशत वित्तीय अंशदान का बोझ है। पहले मनरेगा में मजदूरी का पूरा खर्च केंद्र सरकार वहन करती थी, जबकि सामग्री आदि का खर्च राज्य सरकारें एक निर्धारित अनुपात में उठाती थीं। लेकिन नए कानून में कुल व्यय का केवल 60 प्रतिशत केंद्र और शेष 40 प्रतिशत राज्यों द्वारा वहन करने का प्रावधान किया गया है।
चुनावी वादों को पूरा करने, सामाजिक कल्याण योजनाओं को चलाने और बढ़ते कर्ज के दबाव से जूझ रही अधिकांश राज्य सरकारों के लिए यह अतिरिक्त वित्तीय भार एक गंभीर चुनौती बनकर उभरा है। कई राज्य पहले से ही ऋण लेकर अपनी सामान्य प्रशासनिक व्यवस्थाएं चला रहे हैं। ऐसे में यह देखना अहम होगा कि वे इस नई योजना के लिए आवश्यक संसाधन कैसे जुटाएंगे।
विपक्षी दलों के साथ-साथ सिविल सोसाइटी का एक बड़ा वर्ग भी इस कानून के तौर-तरीकों पर सवाल उठा रहा है। उनका आरोप है कि सरकार यह विधेयक बिना व्यापक सार्वजनिक चर्चा और आम सहमति के ‘गुपचुप’ तरीके से लेकर आई। इसके अलावा योजना से महात्मा गांधी का नाम हटाए जाने पर भी राजनीतिक विवाद गहराया है।
हालांकि प्रसिद्ध अर्थशास्त्री और मनरेगा के प्रमुख शिल्पकारों में शामिल ज्यां द्रेज का मानना है कि नाम बदलने का मुद्दा असल सवालों से ध्यान भटकाने की कोशिश है। उनके अनुसार, गांधी जी का नाम बाद में जोड़ा गया था और उस समय इसे लेकर व्यापक सहमति मौजूद थी। असली चिंता का विषय नए कानून के प्रावधान हैं।
ज्यां द्रेज ने स्पष्ट रूप से कहा कि राज्यों पर 40 प्रतिशत वित्तीय बोझ डालना गलत है, खासकर तब जब योजना के सभी अधिकार केंद्र सरकार के पास केंद्रित कर दिए गए हैं। योजना कहां लागू होगी, किस राज्य को कितनी राशि मिलेगी,इन सभी निर्णयों का अधिकार केंद्र के पास है, जबकि क्रियान्वयन की पूरी जिम्मेदारी राज्यों पर डाल दी गई है।
नए कानून में 125 दिन काम की बात कही गई है, लेकिन यह मनरेगा की तरह कानूनी गारंटी नहीं है। द्रेज का कहना है कि 100 से 125 दिन करने का भी कोई बड़ा अर्थ नहीं निकलता, क्योंकि मनरेगा के तहत भी महज करीब दो प्रतिशत परिवारों को ही पूरे 100 दिन का रोजगार मिल पाता था।
उन्होंने इस कानून को “बुलडोजर बिल” करार देते हुए कहा कि मनरेगा कानून एक व्यापक लोकतांत्रिक प्रक्रिया का परिणाम था। वर्ष 2004 में जनआंदोलनों ने नरेगा का ड्राफ्ट नेशनल एडवाइजरी काउंसिल को सौंपा, वहां से यह सरकार, पीएमओ और ग्रामीण विकास मंत्रालय होते हुए संसद पहुंचा। लोकसभा में पेश होने के बाद इसे भाजपा सांसद कल्याण सिंह की अध्यक्षता वाली स्थायी समिति को भेजा गया और अंततः लोकसभा व राज्यसभा में सर्वसम्मति से पारित किया गया। इसके विपरीत, इस बार विधेयक के बारे में लोगों को उसके पेश होने के बाद ही जानकारी मिली।
द्रेज का मानना है कि नया कानून लाने की जरूरत नहीं थी, बल्कि भुगतान प्रणाली में सुधार, पारदर्शिता बढ़ाने और भ्रष्टाचार में लिप्त लोगों पर सख्त कार्रवाई करने की आवश्यकता थी।
ग्रामीण विकास मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने लोकसभा में चर्चा का जवाब देते हुए कहा कि मनरेगा में कई गंभीर खामियां थीं। केंद्र और राज्यों के बीच फंड बंटवारा असमान था और योजना को भ्रष्टाचार के हवाले कर दिया गया था। उन्होंने कहा कि पारदर्शिता सुनिश्चित करना जरूरी था।
चौहान ने मजदूरी पर होने वाले भारी खर्च पर सवाल उठाते हुए कहा कि लगभग 10 लाख करोड़ रुपये मजदूरी में खर्च हो गए, जबकि इस राशि से टिकाऊ परिसंपत्तियां बनाई जा सकती थीं। उन्होंने आंकड़ों के जरिए दावा किया कि यूपीए सरकार के दौरान (2006 से 2013-14) 1660 करोड़ मानव-दिवस सृजित हुए, जबकि मोदी सरकार के दौरान 3210 करोड़ मानव-दिवस सृजित किए गए। यूपीए के समय 153 लाख कार्य पूरे हुए, जबकि मोदी सरकार में यह संख्या 862 लाख तक पहुंची। महिलाओं की भागीदारी भी 48 प्रतिशत से बढ़कर 56 प्रतिशत हुई।
मंत्री ने कहा कि यह योजना अचानक नहीं लाई गई, बल्कि राज्यों और संबंधित पक्षों से विचार-विमर्श के बाद तैयार की गई है। चालू वित्त वर्ष में इसके तहत 1 लाख 51 हजार 282 करोड़ रुपये खर्च करने का प्रावधान है, जिसमें 95 हजार 600 करोड़ रुपये केंद्र सरकार देगी। योजना में जल संरक्षण, तालाब-कुएं, वृक्षारोपण और आजीविका से जुड़े कार्य शामिल होंगे। सरकार की मंशा है कि राज्य विकास में भागीदार बनें, न कि केवल कार्यान्वयन एजेंसी।
विपक्ष का आरोप है कि इस योजना में पूरा नियंत्रण केंद्र सरकार के हाथों में रहेगा, खर्च राज्यों को अधिक करना होगा और श्रेय केंद्र ले जाएगा। कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी ने कहा कि मनरेगा को लगभग सभी दलों के समर्थन से लाया गया था, जो इसके जन-कल्याणकारी चरित्र को दर्शाता है। नए कानून में पंचायतों की भूमिका सीमित कर दी गई है और फंड आवंटन का अधिकार पूरी तरह केंद्र को दे दिया गया है।
राहुल गांधी ने इसे महात्मा गांधी के आदर्शों का अपमान बताते हुए कहा कि यह कानून ग्रामीण गरीबों की सुरक्षित रोजी-रोटी को खत्म करने की दिशा में एक और कदम है।
मनरेगा के क्रियान्वयन में हाल के वर्षों में सबसे बड़ी समस्या मजदूरी दर रही है। वर्ष 2024-25 में औसत मजदूरी 261 रुपये और मौजूदा वित्त वर्ष में 289 रुपये है। बढ़ती महंगाई के बीच कई राज्यों में इससे अधिक मजदूरी गांवों के आसपास ही मिल जाती है, जिससे योजना का आकर्षण कम हुआ है। नई योजना में मजदूरी को लेकर क्या अतिरिक्त प्रोत्साहन होगा, यह अभी स्पष्ट नहीं है।
लोकसभा में मंत्री ने भले ही विधेयक लाने से पहले राज्यों एवं सम्बधित पक्षों से चर्चा की बात की लेकिन इसमें हकीकत नही दिखाई देती।हालांकि कानून की मंजूरी के बाद सरकार विपक्ष के हमलों का जवाब देने में जुट गई है। मंत्री ने महिला स्वयं सहायता समूहों से बैठक की है और 26 दिसंबर से देशभर के गांवों में ग्राम सभाएं आयोजित करने की योजना बनाई गई है।
मनरेगा को खत्म करने के मुद्दे पर आक्रामक रूख अख्तियार किए कांग्रेस ने इस बीच दावा किया है कि मनरेगा को समाप्त करने का फैसला सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लिया, जिसमें न तो ग्रामीण विकास मंत्री शिवराज सिंह चौहान से परामर्श किया गया और न ही कैबिनेट में कोई चर्चा हुई। पार्टी ने मोदी सरकार के खिलाफ आक्रामक रुख अपनाते हुए 5 जनवरी से देशभर में ‘मनरेगा बचाओ अभियान’ शुरू करने का ऐलान किया है।
सरकार के तमाम दावों के बावजूद यह स्पष्ट है कि ‘विकसित भारत–जी राम जी’ योजना का भविष्य काफी हद तक राज्यों की वित्तीय क्षमता और उनके 40 प्रतिशत अंशदान पर निर्भर करेगा। मौजूदा आर्थिक हालात में राज्यों के लिए यह बोझ उठाना आसान नहीं होगा। यही इस योजना की सबसे बड़ी चुनौती है।
लेखक-अशोक कुमार साहू सेन्ट्रल ग्राउन्ड न्यूज(cgnews.in) के सम्पादक तथा संवाद समिति यूएनआई के छत्तीसगढ़ के पूर्व राज्य प्रमुख हैं।
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