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इंवाका ट्रंप की खातिर हैदराबाद के भिखारियों पर कहर – उमेश त्रिवेदी

                           उमेश त्रिवेदी

यह खबर राजनीतिक सोच में बदलाव के बेरहम ‘इंडीकेटर्स’ को जाहिर करती है कि हैदराबाद पुलिस ने 28 नवम्बर से शुरू होने वाले ‘ग्लोबल एन्टरप्रेन्योर समिट’ के पहले शहर की सड़कों पर भीख मांगने पर रोक लगा दी है। रोक 7 जनवरी 2018 तक जारी रहेगी। यानी उसके बाद भिखारी बदस्तूर महानगर के मुख्य मार्गों और प्रतिष्ठानों में भीख मांग सकेंगे। ग्लोबल समिट भिखारियों पर रोक लगाने का एक एंगल है। उसका दूसरा महत्वपूर्ण कोण 360 डिग्री घूम कर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की लाड़ली बेटी इंवाका ट्रंप के सामने खड़ा हो जाता है। इंवाका ट्रंप समिट की खास मेहमान हैं। मोदी पिछले अमेरिकी प्रवास में इंवाका को भारत आने का अलग से निमंत्रण देकर आए थे। भिखारियों पर सरकारी पहरेदारी इंवाका ट्रंप के पांच सितारा स्वागत के संकेत दे रही है। इस एक्टीविटी से साफ है कि इंवाका ट्रंप के रास्तों पर आकाश में बादलों को भी उड़ने की अनुमति नहीं होगी, जो सूरज की रोशनी में व्यवधान पैदा कर सकते हैं। बहरहाल, बादलों का इलाज हो अथवा नहीं हो, लेकिन भिखारियों को तो खदेड़ना शुरू हो गया है।

समझ से परे है कि वीआईपी-सर्किट में, जहां परिन्दा भी पर नहीं मार सकता, आम आदमी के आने-जाने की आजादी घंटों तक निरुध्द हो जाती है, वहां भिखारियों की पहुंच को लेकर सरकार इतनी आशंकित और आतंकित क्यों है ? सरकार क्यों डरी हुई है कि भिखारियों को देख कर निवेशक कहीं यह नहीं सोचने लगें कि भिखमंगों के देश में निवेश करना सुरक्षित नहीं है?

खुले बाजार के राष्ट्रवादी पूंजीवाद के आर्थिक-कैनवास में भिखारियों की मौजूदगी समता के झूठे दावों का सच उजागर करती है। पूंजी-बाजार में भिखारियों की भूख को महसूस करने वाला सात-आठ दशक पुराना समाजवादी दृष्टिकोण पथरीला हो चुका है, जबकि इलाहाबाद के पथ पर किसी को भीख मांगता देखकर देश के महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कलम सिसकने लगती थी। निराला की कविता की मार्मिकता छोटी कक्षाओं के हिन्दी पाठ्यक्रमों का हिस्सा थी, जो ऩई पीढ़ी की संवेदनाओं को नमी का संस्कार देती थी। भिखारियों को दया और करुणा के चश्मे से देखने का नजरिया खत्म हो चला है। महाकवि निराला ने जाने किस नजर से उस भिखारी को देखा होगा, जिसका विवरण उनकी कालजयी मार्मिक रचना का सबब बना, जो आज भी कई लोगों के दिलो-दिमाग में ताजा है- ”वह आता, दो टूक कलेजे के करता, पछताता पथ पर आता…पेट-पीठ दोनों हैं मिलकर एक, चल रहा  लकुटिया टेक, मुट्ठी भर दाने को, भूख मिटाने को, मुंह फटी-पुरानी झोली का फैलाता… वह आता…।”

सड़कों पर, गलियों में और बाजारों में वह भिखारी आ तो आज भी रहा है, लेकिन उसे देखकर पसीजने की प्रक्रिया में पत्थर घुलने लगे हैं। धारणाएं बदल रही हैं कि भिखारी अब सामाजिक समस्या नहीं, बल्कि सामाजिक-गुनाह है। भिखारियों की उपस्थिति समाज के लिए अपशगुन है, उत्पात है, कलंक का टीका है, जिससे लोग दूर रहना चाहते हैं। सड़कों पर उनका दिखना-दिखाना बदमिजाजी पैदा करता है। इसीलिए सरकारी महकमों की कोशिश होती है कि इन्हें शहर-बदर कर दिया जाए। लेकिन क्या यह मुनासिब है?

1960 से लागू भिक्षावृति निषेध कानून के तहत जुलाई 2016 में दिल्ली के समाज-कल्याण विभाग ने दिल्ली को भिखारी-मुक्त करने का अभियान शुरू किया था। लेकिन मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने 15 जुलाई 2016 को भिखारियों के खिलाफ इस अमानवीय अभियान को रोक दिया था। भिखारी के रूप में भूख की त्रासदी को पढ़ना और समझना जरूरी है। इसके लिए समाज को अतिरिक्त रूप से संवेदनशील होना पड़ेगा। कई सर्वेक्षण कहते हैं कि भिखारी बनकर लोग सुनियोजित तरीके से जीवन-यापन करते हैं। लखपति-करोड़पति भिखारियों की खबरें इसकी पुष्टि करती हैं। लेकिन भूख से लथपथ मजबूरियों को कतिपय लखपति भिखारियों के किस्सों से तौलना मुनासिब नहीं है। पेट में सुलगती भूख की लपटों की भयावहता को समझना जरूरी है। भिक्षावृत्ति के जरिये जीवन-यापन नारकीय जीवन की यंत्रणाओं का पर्याय है। गटरों में सांस लेना कोई पसंद नहीं करता। ‘आखिर, कुछ और नहीं, इंसान हैं हम…।’ इसलिए इंवाका ट्रंप से घबराने की जरूरत नहीं है, क्योंकि अमेरिका में भी भिखमंगों की संख्या कम नहीं है। भारत में भी उन्हें जीने दो..।

सम्प्रति– लेखक श्री उमेश त्रिवेदी भोपाल एनं इन्दौर से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के प्रधान संपादक है। यह आलेख सुबह सवेरे के आज 10 नवम्बर के अंक में प्रकाशित हुआ है।वरिष्ठ पत्रकार श्री त्रिवेदी दैनिक नई दुनिया के समूह सम्पादक भी रह चुके है।