तीन राज्यों में जीत के बाद खुद ही खुद की पीठ थपथपा रहे कांग्रेस के प्रादेशिक शिल्पकार अपनी गदगद-मुद्रा से अगर जल्दी ही बाहर नहीं आए तो अप्रैल-मई में हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी से होने वाले मल्ल-युद्ध में वे कहीं लड़खड़ा न जाएं! इसलिए कि विधानसभा चुनावों की जीत का शिला-लेख इतना भी अमिट नहीं है कि दशकों उस पर धूल न जमे। कांग्रेस जीती तो है, लेकिन उसने कोई धोबियापाट लगा कर भारतीय जनता पार्टी को चारों खाने चित्त भी नहीं कर दिया है। इसकी बानगी के लिए आगे चल कर राजस्थान और छत्तीसगढ़ को भी लेंगे, मगर फ़िलहाल मध्यप्रदेश को ही लीजिए। जीत की सतह के नीचे तैरती काई की अनदेखी करने वालों को आने वाला ज़माना सूरमा-भोपाली के अलावा क्या समझेगा?
मध्यप्रदेश में कांग्रेस 230 में से 229 सीटों पर लड़ी थी और 114 जीती। भाजपा सभी 230 पर लड़ी और 109 जीती। कांग्रेस और भाजपा के बीच सिर्फ़ 5 सीटों का फ़र्क़ रहा। बसपा 227 पर लड़ी और महज़ 2 सीटें जीत पाई। सपा 52 पर लड़ी और 1 पर जीती। 214 निर्दलीय उम्मीदवार मैदान में थे। उनमें से 4 जीते। भाजपा को कांग्रेस से सीटें भले ही 5 कम मिलीं, लेकिन उसका वोट प्रतिशत कांग्रेस से कम नहीं है। अलबत्ता, ज़रा-सा ज़्यादा है। कांग्रेस को 41.5 प्रतिशत वोट मिले तो भाजपा को 41.6 प्रतिशत। भाजपा को पूरे प्रदेश में कांग्रेस से 47,827 वोट ज़्यादा मिले हैं।
कांग्रेस को एक और तथ्य अपने ज़ेहन में रखना होगा। 13 विधानसभा क्षेत्रों में उसके उम्मीदवार तीसरे क्रम पर रहे और 12 सीटें ऐसी हैं, जहां भाजपा जितने मतों के अंतर से हारी, उससे ज़्यादा वोट ‘नोटा’ को मिले। मैं मानता हूं कि मध्यप्रदेश में ‘नोटा’ की गोद में गिरे 5 लाख 42 हजार 295 मतों का नब्बे प्रतिशत भाजपा से नाराज़ उन मतदाताओं का था, जो भाजपा से तो नाराज़ थे, मगर अपनी निष्ठा को दूसरे पाले में कुदा देने को भी तैयार नहीं थे। 1.4 प्रतिशत का ‘नोटा’ भले ही ज़्यादा मोटा नहीं लगे, मगर लोकसभा में अगर भाजपा से रूठा यह मतदाता वर्ग अपने कोप-भवन से बाहर आ कर नरेंद्र भाई के कंधे पर बैठा तो कांग्रेस की संभावनाओं पर प्रतिकूल असर ही तो डालेगा।
मध्यप्रदेश को मोटे तौर पर छह अंचलों में बांट कर देखा जाता है। मालवा-निमाड़, मालवा, चम्बल, बुंदेलखंड, विंध्य और महाकौशल। अब तक मालवा-निमाड़ और मालवा में भाजपा की जड़ों का गहराई-समीकरण विधानसभा के इस चुनाव में बदला है। सो, भाजपा ने इन इलाक़ों में नए सिरे से बीज बोने शुरू कर दिए हैं। कांग्रेस को इस बार सबसे कम वोट विंध्य में मिले हैं और सबसे ज़्यादा महाकौशल में। उसके बाद मालवा-निमाड़ में। प्रदेश के सभी अंचलों में कांग्रेस का मत-प्रतिशत पहले के मुकाबले में बढ़ा है। विंध्य तक में उसे पहले की तुलना में 2.51 प्रतिशत वोट ज़्यादा मिले हैं। भाजपा का वोट प्रतिशत विंध्य को छोड़ कर हर अंचल में घटा है। मगर बावजूद इसके उसके मतों का जोड़ कांग्रेस से आगे ही है।
बसपा को मिले सवा 19 लाख वोट, सपा के खाते में गए 5 लाख वोट और निर्दलीय प्रत्याशियों के पक्ष में पड़े सवा 22 लाख वोट का प्रबंधन भी लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के लिए ज़रूरी होगा। बसपा मध्यप्रदेश में साफतौर पर तीसरे क्रम का राजनीतिक दल है। उसे सबसे ज़्यादा वोट चम्बल और विंध्य में मिलते रहे हैं और इस बार भी मिले हैं। चम्बल में बसपा को 14 प्रतिशत वोट मिले हैं और विंध्य में 11 प्रतिशत। तीसरे क्रम पर मज़बूती से अपनी हाज़िरी दर्ज़ कराने वालों में इस बार गोंडवाना और सपाक्स भी रहे हैं। तीसरे क्रम पर आम आदमी पार्टी की छुटपुट मौजूदगी को भी लोकसभा के लिहाज से नकारना बुद्धिमानी नहीं होगी।
विधानसभा चुनाव के नतीजों ने अगर अपनी चदरिया मध्यप्रदेश के लोकसभा-मैदान में ज्यों-की-त्यों रख दी तो कांग्रेस को 29 में से 12 या 13 और भाजपा को भी इतनी ही सीटें मिलने का अंकगणित हमारे सामने है। ऐसे में 3 से 5 सीटें बसपा इत्यादि के पल्लू से बंधेंगी। लेकिन चार महीने बाद जब लोकसभा चुनाव का रथ भिंड-मुरेना के बीहड़ों से चल कर ज्योतिरादित्य सिंधिया के ग्वालियर-गुना होता हुआ जबलपुर में भेड़ाघाट के जलप्रपात की मूसलाधार से भीगता खजुराहो के मंदिरों से गुजर रहा होगा तो क्या मतों का अंकगणित ऐसा ही रह पाएगा? क्या जब इस रथ के कांग्रेसी घोड़े रीवा और सीधी की पगडंडियों से चल कर छिंदवाड़ा की विकास अट्टालिकाओं तक पहुंचेंगे तो बिलकुल भी थके हुए नहीं होंगे? कमलनाथ के छिंदवाड़ा से ऊर्जा-पेय का बड़ा घूंट लेने के बाद जब यह रथ होशंगाबाद और मंदसौर हो कर उज्जैन के महाकाल की परिक्रमा करने पहुंचेगा तो कितना चमचमा रहा होगा?
पंद्रह बरस बाद मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनाने के लिए अपना-तेरी छोड़ कर सब-कुछ दांव पर इसलिए लग गया था कि अगर बूंदी इकट्ठी कर लड्डू बनाएंगे ही नहीं, तो प्रसाद बंटेगा कैसे? बाद में, ये मेरा, ये मेरे भाई का, ये मेरी अम्मा का, कह-कह कर प्रसाद के ज़्यादा-से-ज़्यादा दोने बटोरने की संभावनाएं चूंकि शेष थीं, इसलिए मध्यप्रदेश में कांग्रेस की नैया पार लग गई। मगर केंद्र में कांग्रेस की सरकार बनवाने की ऐसी ही ललक कितनी है, कौन जाने! ख़ासकर पिछले पांच साल में बुरी तरह आजिज़ आ गए मतदाताओं को भाजपा को हटाना ही था। इसलिए मध्यप्रदेश में कांग्रेस पांच कदम आगे निकल गई। लेकिन केंद्र में कांग्रेस को बैठाने के लिए भी मतदाता कितने लालायित हैं, कौन जाने!
मतदाताओं की इस ललक को खौलती आंच पर रखने का ज़िम्मा किसका है? सियासत के चकमक पत्थरों से यह आंच पैदा करने का ज़िम्मा किसका है? जिन्हें अपने निजी, पारिवारिक और कबीलाई किलों को मजबूत करने के लिए सारे प्रपंच करने में कभी थकान नहीं होती, वे राहुल गांधी के लिए दधीचि बनने से पीठ क्यों फेर लेते हैं? मैं तो अब तक यही नहीं समझ पाया हूं कि राहुल की राह का रोड़ा भाजपा है या कांग्रेसी बरामदों में टंगे चंद चेहरे? राहुल को भाजपा के तीरंदाज़ों से नहीं, दरअसल अपने दरबानों से निबटना है।
अब तो इसमें किसी को कोई खटका नहीं रह गया है कि राहुल गांधी मेहनती हैं, उनकी राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय छवि में ज़मीन-आसमान का फ़र्क़ आ गया है, मंचीय-लफ्फाज़ी को छोड़ कर वे नरेंद्र भाई मोदी से हर हाल में इक्कीस हैं और मौक़ा मिलने पर प्रधानमंत्रित्व की नेहरू-अटल आचरण-परंपरा के सशक्त वाहक साबित होंगे। सियासत की ऋणात्मकता से आरंभ हुआ राहुल का इस मंज़िल तक बावजूद इसके पहुंचे हैं कि उनके आसपास ऐसे तमाम तत्व डेरा जमाए बैठे हैं, जो अपने को समझते कुछ भी हों; जाने-अनजाने, हैं राहुल की राह के कंटक ही। इतनी खटारा व्यवस्था के साथ अगर राहुल अपने को यहां तक खींच लाए तो जिस दिन वे अपनी घुड़साल को खच्चरों से मुक्त कर लेंगे, इतने सरपट दौडेंगे कि आपकी आंखें फटी रह जाएंगी। मैं तो पता नहीं कब से यह प्रार्थना कर रहा हूं कि राहुल के ईष्ट भोलेनाथ उनमें यह तांडव-भाव उत्पन्न करें!
सम्प्रति -लेखक पंकज शर्मा न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।