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तीन माह पूर्व विधानसभा चुनाव में बुरी तरह पराजित प्रदेश भारतीय जनता पार्टी की सबसे बड़ी चिंता इस बात को लेकर है कि वह संगठन में जान किस तरह फूंके ताकि लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को बराबरी की टक्कर दे सके। छत्तीसगढ़ में तीन चरणों में लोकसभा चुनाव होने हैं, 11, 18 व 23 अप्रैल। पिछले नवंबर में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने तत्कालीन मुख्यमंत्री रमन सिंह व तब के प्रदेश अध्यक्ष धरमलाल कौशिक को 65 प्लस का लक्ष्य दिया था। आत्म मुग्धता की शिकार भाजपा सरकार व संगठन ने 65 से अधिक सीटें जीतकर देने के संकल्प के साथ लगातार चौथी बार सरकार बनाने का दम भरा था। पर उसका संकल्प इस कदर धराशायी हुआ कि विधानसभा में वह केवल 15 सीटों तक सिमट कर रह गई। इस बुरी हार के बाद स्वाभाविक रूप से दबा हुआ अंतरकलह सतह पर आ गया तथा कार्यकर्ता व नेता एक दूसरे के खिलाफ तनकर खड़े हो गए। यह स्थिति अभी भी बनी हुई है जबकि लोकसभा चुनाव की तारीखों की घोषणा हो चुकी है। केन्द्रीय नेतृत्व की ओर से अब कोई मिशन इलेवन नहीं है। शायद इसलिए क्योंकि संख्या-बल की दृष्टि से बड़े प्रान्तों की तुलना में छत्तीसगढ़ की 11 सीटों की कोई खास अहमियत नहीं है जिस पर दाँव लगाया जाए अलबत्ता कांग्रेस के लिए अभी एक-एक सीट महत्वपूर्ण है। दरअसल भाजपा के बड़े नेता इस वस्तुस्थिति से वाकिफ है कि छत्तीसगढ़ में कांग्रेस व भूपेश बघेल के राज में अब पहले जैसा परिणाम हासिल करना संभव नहीं है इसीलिए फिलहाल संगठन में कोई विशेष फेरबदल किए बिना यथास्थिति बनाए रखी गई है और रमन सिंह को अपने को साबित करने का फिर से एक मौका दिया है। इसी क्रम में केन्द्रीय नेतृत्व ने मिशन 65 प्लस के ध्वस्त होने बावजूद पराजित सेनापति का सम्मान बरकरार रखा। रमन सिंह अब पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं तथा उनकी पसंद के हिसाब से अभी हाल ही में नए प्रदेश अध्यक्ष के रूप में सांसद व आदिवासी नेता विक्रम उसेंडी की नियुक्ति की गई है। हालाँकि राष्ट्रीय सह-संगठन मंत्री के रूप में सौदान सिंह का राज्य में वर्षों से जारी दखल यथावत है जबकि समीक्षा बैठकों में उनकी कार्यशैली की तीखी आलोचना होती रही है। पार्टी की हार के लिए उन्हें भी समान रूप से जिम्मेदार माना गया है।
बहरहाल, विधानसभा चुनाव सम्पन्न हुए तीन महीने बीत चुके है। तुरंत बाद हुए राष्ट्रीय न्यूज चैनलों ने छत्तीसगढ़ लोकसभा चुनाव के सन्दर्भ में जो अनुमान जारी किए थे, वे अभी भी प्रासंगिक हैं। इन अनुमानों में प्रदेश की 11 में से 10 सीटें कांग्रेस को दी गई थी। यानी 2014 के ठीक उलट। 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने दस सीटें जीती थी। और कांग्रेस ने एक। 2009 के चुनाव में भी दस और इसके पूर्व 2004 के चुनाव में नौ। 2003 के दिसंबर से राज्य में भाजपा का शासन शुरू हुआ था। और लोकसभा चुनाव के परिणाम उसके पक्ष में आते चले गए थे। अब भारी बहुमत के साथ कांग्रेस सत्तासीन है और यह स्वाभाविक अनुमान है कि इस बार लोकसभा चुनाव के परिणाम उसके पक्ष में जाएँगे। यानी अधिकांश लोकसभा सीटों पर वह जीत दर्ज करेगी। इसका एक बडा कारण यह माना जा रहा है कि प्रदेश भाजपा का मनोबल बुरी तरह गिरा हुआ है, नेतृत्व दिशाहीन व निर्बल है, कार्यकर्ता हताश हैं तथा वे उन बड़बोले नेताओं को पुन: सबक सीखाने के मूड में है जो विधान सभा चुनाव में पराजय के लिए उन्हें जिम्मेदार ठहराते रहे हैं।
इसके अतिरिक्त भी लोकसभा चुनाव में भाजपा की संभावनाओं को खारिज करने के और भी कारण है। एक बड़ी बात यह है कि मतदाताओं ने अभी-अभी भूपेश बघेल को प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता सौंपी है। उनके कामकाज का आकंलन इतने जल्दी करना संभव नहीं हैं हालाँकि उनकी शुरूआत बेहतर है लिहाजा लोकसभा चुनाव में मतदाताओं के रूख में बदलाव की कोई गुंजाइश नजर नहीं आती। पर एक बड़ा फर्क यह है कि विधान सभा चुनाव के दौरान मतदाताओं में जो जोश व उत्साह था, चौक-चौराहे पर जो चर्चाएँ हुआ करती थी, वह अब लगभग गायब है लेकिन वे उदासीन नहीं हैं। उन्होंने तय कर रखा है किसे वोट देना है। लिहाजा लोकसभा चुनाव उनके लिए मात्र एक औपचारिकता है। जबकि पिछला लोकसभा चुनाव बदलाव के विचार से सर्वथा अलग व रोमांचक था। 2014 के उस चुनाव में भाजपा मोदी लहर पर सवार पर थी। मुद्दे गौण थे तथा देशभर में कांग्रेस व यूपीए सरकार के खिलाफ वातावरण था जिसका भरपूर फायदा मोदी व भाजपा को मिला। किंतु पाँच साल बीतते-बीतते, विभिन्न कारणों से, खासकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की वाद खिलाफी से अब न तो देश में और न ही राज्यों में वर्ष 2014 जैसा राजनीतिक वातावरण है और न ही पहले जैसी तेज मोदी लहर। इसलिए भाजपा शासित राज्यों की बात छोड़ दें क्योंकि वहाँ चुनावी समीकरण अलग होंगे, गैर भाजपा प्रदेशों में हवा का रूख बदला हुआ है। छत्तीसगढ़ भी इसमें शामिल है।
छत्तीसगढ़ लोकसभा चुनाव के सन्दर्भ मे विचार करें तो केवल आंकड़ों का सवाल है, 11 लोकसभा सीटों में कौन कितनी जीतेगा? कांग्रेस व भाजपा के अलावा अजीत जोगी की जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ व बसपा का गठबंधन भी मैदान में है जो और कुछ नहीं तो दो-तीन संसदीय क्षेत्रों में वोटों का विभाजन कर ही सकता है। इस स्थिति में भी क्या अधिकांश सीटें कांग्रेस के खाते में जाएँगी तथा भाजपा की हालत विधानसभा चुनाव के परिणाम जैसी होगी? इस बारे में फिलहाल कोई ठोस अनुमान लगाना मुश्किल है पर पिछले आँकड़ों पर गौर करें तो लगता कुछ ऐसा ही है भले ही केन्द्र में किसी भी पार्टी की सरकार हो। मसलन 2004 से 2014 तक केन्द्र में मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए की सरकार थी। और राज्य मे भाजपा की। इस दौरान हुए दो लोकसभा चुनावों में छत्तीसगढ़ के मतदाताओं ने भाजपा के पक्ष में मतदान किया और उसे दस-दस सीटें जीतकर दी। वोटरों ने मनमोहन सिंह व सोनिया गांधी को न देखकर रमन सिंह सरकार पर ज्यादा भरोसा जताया था।यानी केन्द्र व राज्य में अलग-अलग सरकार व अलग चुनावी मुद्दे होने के बावजूद मतदाता आम तौर पर राज्य मे जिस किसी पार्टी की सरकार हो, उसके पक्ष में वोट करते हैं। उसे अधिक सीटें जीताकर देते हैं। यदि इसे आधार मानें तो यह मानना होगा कि छत्तीसगढ़ के वोटर इस बार मोदी को नहीं भूपेश बघेल को देखकर वोट करेंगे।
कांग्रेस पक्ष इसलिए भी मजबूत है क्योंकि चुनाव जीतने के साथ ही, घोषणा-पत्र के अनुरूप, मुख्यमंत्री ने वायदों पर अमल शुरू कर दिया। तीन माह में तीन दर्जन से अधिक फैसले लिए गए जो सीधे आम जनता के हितों से जुड़े हुए थे। इससे मतदाताओं का पार्टी व सरकार के प्रति विश्वास और मजबूत हुआ। दूसरी महत्वपूर्ण बात है, नेता व कार्यकर्ता उत्साह से भरे हुए हैं तथा वे एक नई कांग्रेस का चेहरा बन गए हैं। तीसरी बात- विधानसभा के चुनाव के नतीजे लगभग एकतरफा रहे तथा कांग्रेस-भाजपा के बीच वोटों का बडा फासला रहा। कांग्रेस को 43.04 प्रतिशत वोट मिले जबकि भाजपा को 32.97 प्रतिशत। यानी दस प्रतिशत का अंतर। सरगुजा संभाग की सभी 14 सीटें कांग्रेस ने जीती। रायपुर 20 में से 13, बस्तर 12 में से 11, दुर्ग 20 में से 17 व बिलासपुर संभाग की 22 में से 12 सीटें कांग्रेस के कब्जे में है। इस दृष्टि से भी देखें तो बिलासपुर, कोरबा व जांजगीर-चाँपा लोकसभा क्षेत्रों को छोड़कर शेष सभी निर्वाचन क्षेत्रों पर कांग्रेस का दबदबा है। चौथा और सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि कांग्रेस का नेतृत्व भूपेश बघेल कर रहे हैं जो मुख्यमंत्री हैं और प्रदेश अध्यक्ष भी। राज्य में 15 साल से राज कर रही भाजपा सरकार को बाहर का रास्ता दिखाने में उनका बड़ा योगदान है। दूसरी ओर संगठन की दृष्टि से भाजपा का नेतृत्व कभी सबल हाथों में नहीं रहा। रमन सरकार उस पर हावी रही। हालिया परिवर्तन के नाम पर संगठन की बागडोर एक कमजोर हाथ से वापस लेकर दूसरे कमजोर को सौंप दी गई है। विक्रम उसेंडी आदिवासी जरूर है पर राज्य के मशहूर व आम लोगों के बीच बहुत जाने पहिचाने नेता नहीं है। आदिवासी वोटों पर वे कितना प्रभाव डाल पाएँगे, शक है। विधानसभा चुनाव में प्रदेश की 29 आदिवासी सीटों में से 25 सीटें कांग्रेस ने जीती हुई है। ऐसे में फिलहाल यही कहा जा सकता है कि भाजपा एक हारी हुई लड़ाई पुन: लडऩे का प्रयत्न कर रही है।
सम्प्रति-लेखक श्री दिवाकर मुक्तिबोध छत्तीसगढ़ के प्रतिष्ठित पत्रकार है।श्री मुक्तिबोध कई प्रमुख समाचार पत्रो के सम्पादक रह चुके है।